देश में इंडिया बनाम एनडीए की 2024 की फाइट की रिहर्सल कहे जाने वाले घोसी उपचुनाव से बीजेपी के अंदर हलचल तो जरूर होगी. इतनी बड़ी हार के बारे में पार्टी ने कतई नहीं सोचा होगा. हार के कारणों पर पार्टी के अंदर तमाम तरह के चिंतन मनन होंगे. कुछ लोग जिम्मेदार भी ठहराए जाएंगे पर असली कारणों पर अगर पार्टी ने गौर नहीं किया तो 2024 के लोकसभा चुनावों में जादुई आंकड़ा छूना मुश्किल हो जाएगा. पार्टी के अंदर की कलह की चर्चा करना बेमानी है, क्योंकि वो तो घर की खेती है, कभी भी खत्म की जा सकती है. पर बाहर की चुनौतियों से निपटना मुश्किल जरूर होगा.
दलबदलू नेताओं पर अब जनता भरोसा नहीं कर रही
घोसी उपचुनाव की इतनी बड़ी हार भारतीय जनता पार्टी को यह सबक सिखा गई है कि अपने लाभ के लिए दल बदलने वाले नेताओं को जनता पसंद नहीं करती. ऐसे नेताओं के फॉलोअर भी समझते हैं कि उनका नेता हमारे वोटों को क्यों शिफ्ट करना चाहता है. किसी भी नेता के एक बार पार्टी छोड़ने को उसके समर्थक माफ कर देते हैं पर जब यह क्रम बार-बार होने लगता है तो समर्थक भी भड़क जाते हैं. दारा सिंह चौहान के कांग्रेस से होते हुए बीएसपी, सपा फिर बीजेपी फिर सपा और फिर बीजेपी में आने को समर्थक पचा नहीं सके. वो जानते हैं कि ऐसा नेता जो अपने लाभ के लिए अपने सिद्धांतों से समझौता कर रहा है उसका कोई भरोसा नहीं है .ओमप्रकाश राजभर की भी यही स्थित रही उन्होंने भी पहले बीजेपी के बड़े नेताओं से लेकर और योगी आदित्यनाथ तक को क्या कुछ नहीं कहा फिर मंत्री बनने की चाह में पार्टी में वापसी कर लिए. भारतीय जनता पार्टी को यह समझना होगा कि अपने हितों के लिए दल बदलने वाले नेताओं को अब पब्लिक वोट नहीं देने वाली है.
सवर्णों का वोट भी सहेजना जरूरी, धोखा मिल सकता है
पिछले कुछ चुनावों से पार्टी सवर्ण वोटरों को कैजुअली ले रही है. पार्टी नेताओं को लगता है कि सवर्णों का तो वोट मिलेगा ही. इसलिए सारा फोकस पिछड़े वर्ग और दलित वोटों के लिए होता है. घोसी चुनाव में अरिवंद शर्मा खुद भूमिहार बिरादरी से आते हैं पर अपनी बिरादरी तक का वोट नहीं दिला सके.अगर सवर्णों का भी वोट पूरा मिला होता बीजेपी की इतनी बड़ी हार नहीं होती. योगी आदित्यनाथ के नाम पर प्रदेश भर में राजपूत वोटों का ध्रुवीकरण होता रहा है पर जब एक स्थानीय उम्मीदवार भी राजपूत मिल गया तो लोगों का इरादा बदल गया.आगामी लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी को सवर्ण मतदाताओं के लिए भी काम करना होगा. उन्हें यह समझाना होगा कि उनके हितों की अनदेखी नहीं की जाएगी.
मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण रोकने के लिए केवल पसमांदा से नहीं चलेगा काम
पूरे देश में मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण बीजेपी के खिलाफ हो रहा है. 2014 और 2019 के चुनावों बाद हुए कई सर्वेक्षणों में यह बात समझ में आई थी कि मुस्लिम वोट भी बीजेपी को मिल रहे हैं. पर लगातार मुस्लिम कम्युनिटी को टिकट न देना, मंत्रीमंडल और अन्य प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति न होने, लव जिहाद के खिलाफ माहौल बनने, मुस्लिम माफिया को नेस्तनाबूद करने से ये संदेश गया है कि बीजेपी सरकार में मुसलमानों का कभी भला नहीं हो सकता . बीजेपी को यह अहसास कराना होगा कि पार्टी मुसलमानों की भी है. उनको प्रतिनिधित्व पार्टी और सरकार में भी बढ़ाना होगा.केवल पसमांदा की बात करने से मुसलमानों का वोट नहीं मिलने वाला है. पीएम मोदी ने कार्यकर्ताओं से कहा था कि पसमांदा में पैठ बढ़ाओ. यह सही है कि मुस्लिम वोटों में पसमांदा परसेंटेज 70 प्रतिशत के करीब है. पीएम की अपील के बाद यूपी के नगर निकाय चुनावों में भाजपा ने 395 मुसलमानों को टिकट दिया और उनके जीत का स्ट्राइक रेट 15 परसेंट के करीब रहा.इसे और बढ़ाना होगा.किसी भी समुदाय को नाराज करके भारतीय लोकतंत्र में सत्ता की राजनीति असंभव है.
मंत्रियों को क्षेत्र की समस्याएं सुलझानी होंगी
घोसी विधानसभा में नहरों में पानी नहीं आ रहा था, किसान परेशान थे. चुनावों को देखते हुए आनन फानन में नहरों में पानी देने का प्रयास हुआ पर असफल रहा. मंत्रियों को अपने क्षेत्रों में घूमकर जनता की समस्याओं को सुलझाना होगा. गांव-गांव में यह शिकायत आम हो गई है कि उनकी समस्याओं की सुनवाई नहीं हो रही है. बिजली कटौती के चलते घोसी विधानसभा में मंत्री अरविंद शर्मा से लोगों में भारी नाराजगी रही. बिजली बिलों के लिए छापों से भी लोग त्रस्त दिखे. घोसी के मूल निवासी आरपी राय ने बताया कि अधिकारी बिजली चोरी के लिए छापे मारते हैं और जनता से फिर वसूली करते हैं.जनता इस तरह के भ्रष्टाचार से तंग आ गई है.
दलित और पिछड़ों को अहसास कराना होगा कि बीजेपी उनकी पार्टी है
पिछले कुछ चुनावों से बीजेपी को बड़े पैमाने पर पिछड़ों का वोट मिलता रहा है. उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने और केंद्र में बीजेपी सरकार बनाने में पिछड़े और दलित वोटों की बड़ी भूमिका रही है.पर अब अखिलेश के पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) फार्मूले की तोड़ ढूंढनी होगी. नहीं तो फिर एक बार मऊ-गाजीपुर-आजमगढ़-बलिया आदि की लोकसभा सीटों से हाथ धोना पड़ेगा.दरअसल पार्टी पिछड़ों और दलितों को टिकट तो खूब बांट रही है, उनके उत्थान के लिए तमाम योजनाएं भी बना रही है पर उन्हें शायद यह अहसास कराने में पार्टी असफल साबित हो रही कि यह उन्हीं की पार्टी है. पिछड़े और दलित तबकों के बीच पार्टी को अब भी सवर्णों और बनियों की पार्टी समझा जाता है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, अपना दल, सुभासपा आदि के नेताओं को अपने गठबंधन में शामिल करा लेने भर से अब वोट नहीं मिलने वाला है. क्योंकि वोटर हर चुनाव बाद अलग तरह से सोचता है. चुनाव दर चुनाव उसकी सोच बदलती रहती है.
संयम श्रीवास्तव