मजबूरी या परंपरा...'सेव-परमल' नहीं तो चुनाव प्रचार फेल, काफिले में नाश्ता रख के चलते हैं उम्मीदवार

MP Chunav 2023: राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों को मतदाताओं को गांव-गांव जाकर समझाने के लिए 'खाटला चौपालें' लगानी पड़ती हैं और इन चौपालों के तत्काल बाद सेव-परमल का नाश्ता करवाना अनिवार्य होता है. इन खाटला बैठकों को स्थानीय आदिवासी भाषा में मीटिंग भी कहां जाता है. 

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गांव के लोगों को सेव-परमल बांटते राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता. (फोटो:aajtak) गांव के लोगों को सेव-परमल बांटते राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता. (फोटो:aajtak)

चंद्रभान सिंह भदौरिया

  • झाबुआ ,
  • 10 नवंबर 2023,
  • अपडेटेड 12:46 PM IST

मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव में प्रचार-प्रसार का दौर चरम पर है. राजनीतिक दलों के उम्मीदवार हर मतदाता तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में पश्चिम मध्यप्रदेश में एक इलाका ऐसा है जहां उम्मीदवारों को मतदाताओं को उनके गांव में जाकर समझाने के लिए खाटला चौपालें लगानी पड़ती हैं और इन चौपालों के तत्काल बाद सेव-परमल का नाश्ता करवाना अनिवार्य होता है. इन खाटला बैठकों को स्थानीय आदिवासी भाषा में मीटिंग भी कहां जाता है. 

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स्थानीय राजनीति के जानकार कहते हैं कि बिना सेव‌ परमल के आपकी मीटिंग यानी खाटला बैठकें फैल हो सकती हैं. ग्रामीण नाराज हो सकते हैं, इसलिए उम्मीदवारों की मजबूरी है कि उन्हें अपने काफिले में एक वाहन सेव परमल से भरा हुआ शामिल करना पड़ता है. उस वाहन को देखकर ही बैठकों में संख्या बढ़ती है. यह सेव परमल खिलाने की परंपरा बीते कुछ दशक पहले शुरू हुई और अब यह परंपरा अनिवार्यता बन गई है. राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों को यह सबसे बड़ा खर्च है. लेकिन इसे छिपाकर करने की भी मजबूरी है, क्योंकि भारत निर्वाचन आयोग ने खर्च की सीमा तय कर रखी है.

मजबूरी या परंपरा?

क्या बिना सेव परमल खिलाए खाटला बैठकें यानी मीटिंग सफल हो सकती हैं? यह सवाल जब हमने बीते चार विधानसभा चुनाव कवर कर चुके वरिष्ठ पत्रकार दिनेश वर्मा से किया तो उनका कहना था कि सेव-परमल उम्मीदवारों की ग्रामीण इलाकों में बैठकों की सफलता की गारंटी है. क्योंकि बिना भीड़ के आप बैठकें किसके साथ करेंगे? भीड़ आपकी बात सुनने तभी एक जाजम पर बैठेगी. वरना उदासीनता साफ देखी जाती है. इतना ही नहीं, अगर बैठक हो जाए और अगर सेव परमल ना बंटे तो नाराजगी उम्मीदवार के खिलाफ वोट में बदल सकती है. यह खर्चा राजनीतिक दलों के साथ साथ निर्दलीय उम्मीदवारों को भी उठाना मजबूरी है. 

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निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ चुके रामेश्वर सिंगाड कहते हैं कि राजनीतिक दल तो बड़े बजट के साथ चुनाव में आते हैं, इसलिए उन्हें सेव परमल खिलाने से फर्क नहीं पड़ता. लेकिन निर्दलीय को न पार्टी फंड होता है और न ही उनको घोषित-अघोषित चुनावी चंदा मिलता है, इसलिए दिक्कत होती है. यही वजह है कि इलाके में निर्दलीय के जीतने का इतिहास नहीं है.

रेट निकालकर होता है सौदा

पश्चिम मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल झाबुआ में नमकीन सेव का बहुत चलन है. आम इंसान अगर थोड़ा सा सक्षम होता है तो खाने की थाली में सेव नमकीन होता ही है. ऐसे में जब चुनाव प्रचार अभियान के दौरान क्विंटलों सेव खरीदना होता है तो बाकायदा उम्मीदवार भी कम रेट का नमकीन हासिल करने के लिए मोलभाव करते हैं. नमकीन के थोक विक्रेता राजेन्द्र कुमार कहते हैं कि चूंकि थोक में माल देना होता है तो रेट में थोड़ा बहुत मोल भाव किया जाता है. हम लोग भी कम मुनाफे पर माल दे देते हैं.

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