दिल्ली में यह गर्मियों के शुरुआती दिन हैं. सूरज दिन-ब-दिन चमकीला, हवाएं गर्म और आसमान धूलधक्कड़ से जज्ब है. इस बीच देश की राजधानी मौसम से अधिक सियासी तपिश से तप रही है. देश में आम चुनावों की सरगर्मी है तो असर राजधानी पर पड़ेगा ही. ऊपर सूरज और नीचे सियासती जबानी जंग से दोचार दिल्ली वाले हैं, कि अपने में मस्त हैं. शब्दों की इस जंग से बाबस्ता, पर बेपरवाह भी. वैसे भी ये शब्द बड़े बेतरतीब से हैं... दिल्ली हमेशा विजेताओं की रही है, इसलिए उसके लिए इनकी कोई अहमियत नहीं. वह इतिहास बनाती है, इतिहास गढ़ती है. वह इतिहास, जिससे 'साहित्य' बनता है. इसीलिए बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन से बातचीत का मौका आया, तो लपक लिया.
तसलीमा अपने क्रांतिकारी विचारों को लेकर समूची दुनिया में मशहूर हैं. उनकी आजाद खयाली और निर्भीकता ने उन्हें एक अंतहीन निर्वासन का स्वाद चखाया है, फिर भी वह कभी चुप नहीं रही. मानवतावाद, मानवाधिकार, नारी-स्वाधीनता और नास्तिकता जैसे मुद्दे उठाने के कारण वह लंबे समय से धार्मिक कट्टरपंथियों का विरोध झेलती रही हैं. उनमें दुनिया भर में हो रहे सियासी बदलाओं की गहरी समझ है. ऐसे में उनसे केवल साहित्य के दायरे में बात करना थोड़ा मुश्किल था. तसलीमा नसरीन से मुलाकात का सबब बनी हालिया किताब 'बेशरम'. तसलीमा नसरीन के बहुचर्चित उपन्यास 'लज्जा' की उत्तर कथा है 'बेशरम'. प्रकाशक राजकमल प्रकाशन ने यह मुलाकात तय कराई थी.
'लज्जा' तसलीमा की साल 1993 में प्रकाशित वह किताब है, जिसके चलते उन्हें देश निकाला दे दिया गया. वह दरबदर कर दी गईं. 'लज्जा' के प्रकाशन के बाद से ही वह बांग्लादेश से निर्वासित हैं... और निर्वासन का यह सिलसिला, निर्वासन दर निर्वासन जारी है. इस बीच वह योरोप के एक बड़े हिस्से का दौरा कर चुकी हैं. फिर भी अंततः उन्हें रिहाइश के लिए भारत ही पसंद आया. भारत, और उसमें भी पश्चिम बंगाल भाषागत जुड़ाव के चलते उनके लिए दूसरे घर जैसा है, पर एक दिन तसलीमा को पश्चिम बंगाल के कोलकाता से भी निकाल दिया गया... ऐसे में दिल्ली उनका ठिकाना बना.
दक्षिणी दिल्ली के एक भीड़भाड़ वाले इलाके में तसलीमा रहती हैं. पता उनकी सुरक्षा के लिहाज से गोपनीय है. सुरक्षा में दिल्ली पुलिस के जवान तैनात हैं, पर अमूमन अपने एकांत को पसंद करने वाली तसलीमा से मिलने-जुलने वालों की गिनती इतनी कम है कि सुरक्षाकर्मियों को भी आराम है. इसीलिए किसी के आने पर सुरक्षाकर्मी ज्यादा चौंकते नहीं. उन्हें पहले से पता होता है कि मिलने वाला टाइम लेकर ही आया होगा. बावजूद इसके वे मुलाकाती को कॉलबेल नहीं दबाने देते. उनका कहना होता है कि अगर आपने समय लिया है, तो खुद से फोन कर दरवाजा खुलवाइए.
ऐसा करना बाध्यता है. पर मोबाइल पर घंटी बजते ही अधखुले दरवाजे की ओट से दो बड़ी आंखें झांकती हैं. बिना बोले ही काफी कुछ बोलती सी. अंदर घुसने पर आपका साबका पेंटिंग और किताबों से सजे एक बेहद सुरुचिपूर्ण ड्राईंगरूम से होता है. वहां से जिस तरफ भी नजर डालिए, पेंटिंग और किताबें... घर की सज्जा पर बंगाली छाप, आप इन्हें निहारते हैं कि तसलीमा कोई ठंडा पेय ले आती हैं. तसलीमा को देख एकबारगी यह अहसास ही नहीं होता कि आप लेखन जगत की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की उस शख्सियत से मिल रहे हो, जिसकी जान पर खतरा है! कि जिसने अपनी अभिव्यक्ति की आजादी, लेखन और औरत के सम्मान में निर्वासन मंजूर किया माफी नहीं, कि जिसके समर्थक पाठकों की गिनती करोड़ों में है, कि जो आज इन हालातों में भी बेहद निडर है, कि जिसके लिए आजादी और समानता का मतलब हर स्त्री की समानता, हर स्त्री की आजाद खयाली, जिसमें अंततः मानवमात्र की आजादी निहित है.
प्रस्तुत है तसलीमा नसरीन से बातचीत के खास अंशः
1. आपके लेखक बनने की प्रक्रिया कब शुरू हुई?
तेरह साल की थी, जब मैंने कविता लिखना शुरू किया. ये कविताएं वहां की स्थानीय साहित्यिक पत्रिकाओं में छपनी भी शुरू हुईं. बंगला भाषा में युवा लेखकों को प्रोत्साहन देने वाली ऐसी पत्रिकाओं की भरमार है. ये पत्रिकाएं अभिव्यक्ति और विचारों की स्वतंत्रता को व्यक्त करतीं थीं. मैं जब कोलकाता में आयोजित पुस्तक मेलों में आती थी, तो ऐसी सैकड़ों पत्रिकाएं देखती थीं. मैं इन पत्रिकाओं से इतना प्रभावित थी कि सत्रह साल की उम्र में स्वयं भी ऐसी एक पत्रिका निकाली. इसमें मैं नए लेखकों को मौका देती. इसका संपादन खुद करती. प्रकाशन के लिए पैसे मेरे भाई देते. इस तरह मेरा लिखना हमेशा ही जारी रहा. मैं मेडिसिन की स्टूडेंट थी. उसका कोर्स काफी बड़ा होता है, इसलिए तीसरे साल में मेरा लिखना बंद हो गया. पर जब मैं एक बार डॉक्टर हो गई, तो मैंने फिर से लिखना शुरू कर दिया.
2. लेखन क्षेत्र में आपके प्रेरणास्रोत कौन हैं?
मैं अपने बड़े भाई से प्रभावित थी. वह पत्रिका निकालते थे, और उन्होंने मुझे हमेशा लेखन के लिए प्रोत्साहित किया. 1986 और 1989 में मेरी कविता की किताबें आईं. इनमें मेरी दूसरी किताब को काफी सफलता मिली. इसके कई संस्करण छपे. इसके बाद कई अखबारों के संपादकों ने मुझसे स्तंभ लेखन के लिए संपर्क किया. मैं महिलाओं की स्थिति पर आधारित कॉलम लिखने लगी. इससे मेरे संपर्क का दायरा बढ़ा.
3. 'लज्जा' लिखने का विचार जब दिमाग में आया, तो क्या आपको यह पता था कि इसे लेकर ऐसी प्रतिक्रिया होगी? निर्वासन झेलना होगा?
मैं स्तंभ लिखती थी. अपनी पत्रिकाओं के संपादकों के कहने पर मैंने उपन्यास भी लिखना शुरू कर दिया था. मेरी कई किताबें छप चुकीं थीं. 1992 में जब बाबरी मस्जिद ढही, तब बांग्लादेश में उसकी प्रतिक्रिया देख मैं दंग रह गई. हिंदुओं के ऊपर जुल्म को मैंने अपनी आंखों से देखा. मुझे लगा ये कट्टरपंथी ऐसा कैसे कर सकते हैं. मेरे कई दोस्त हिंदू थे. मेरे मरीज भी हिंदू थे. मैं उनके घरों में गई. इस हालात ने मुझे अंदर तक आहत कर दिया था. मैंने जानकारी इकट्ठा करना शुरू किया, एक दस्तावेज और आंकड़े की शक्ल में. केवल तथ्यों पर आधारित. पर ये सब इतने भयावह थे कि मैंने इसे दुनिया को बताने की सोचा और इस तरह 1993 में 'लज्जा' छपा .
4. 'लज्जा' ने आपको बेशुमार शोहरत दिलाई, साथ ही आपको एक अंतहीन संघर्ष भी दिया. आप इसे लेकर क्या सोचती हैं?
'लज्जा' मेरे बांग्लादेश छोड़ने की एकलौती वजह नहीं था. कट्टरपंथी जमात महिलाओं की आजादी और उनकी स्थितियों को लेकर मेरे विचारों से पहले से ही सहमत नहीं थे. परंपरा. रुढ़ियां, धर्म, विचार सब मेरे खिलाफ थे. वे मेरी सोच के खिलाफ थे. वे बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों पर जुल्म पर मेरे विचारों के खिलाफ थे.
5. 'बेशरम' को आपने 'लज्जा' की उत्तरकथा कहा है, जबकि 'लज्जा' की पृष्ठभूमि में बांग्लादेश था, और 'बेशरम' में भारत? दोनों ही पुस्तकों से आपका संदेश क्या है?
मैंने किसी संदेश के लिए ये किताबें नहीं लिखीं. मैंने अपने समय के हालात को इन किताबों में लिखा. 'लज्जा' के पात्र मुझसे रियल लाइफ में कोलकाता में मिल गए तो 'बेशरम' की भूमिका बनी. ऐसा कम ही होता है कि किसी लेखक की मुलाकात उसके पात्रों से हो जाए. 'बेशरम' में नारी अधिकार, मानवाधिकार, हिंदू-मुस्लिम एकता के बारे में लिखा. यह मेरे पाठकों के ऊपर है कि वे इसमें से क्या ग्रहण करते हैं. जुलेखा के माध्यम से नारीमुक्ति भी है, तो सुरंजन का हिंदुत्व भी. मेरा मकसद यह बताना है कि अच्छाई-बुराई सभी में है. हिंदू-मुसलमान, स्त्री-पुरुष कोई एक ही इससे जुड़ा हो ऐसा नहीं है. सबमें सब कुछ होता है.
6. अगर हम आपसे पूछें कि आपके निर्वासन ने किस तसलीमा को तैयार किया? तो आप क्या कहेंगी?
निर्वासन किसे अच्छा लगता है. पहले मुझे लगता था कि मैं शायद एकदिन लौट सकती हूं. पर यह आशा खत्म हो गयी. मेरे बचपन के साथी, मेरे संपादक, मेरे रिश्तेदार, मेरे अपने...उनके सुखदुख में भी उनसे न मिलने का मलाल तो होता ही है. पर मैंने इस दौर में भी इतने काम किए, बिना किसी राजनीतिक दल व संस्था से जुड़कर जो कुछ किया, उससे मुझे अपने अतीत पर कोई पछतावा नहीं है. यह सोचने की बात है कि 1971 में जिस धर्मनिरपेक्ष देश में मैं पैदा हुई, वही इतना कट्टरपंथी बन गया कि मैं अपनी मां, अपने बाबा अपने दादा किसी की मृत्यु पर वहां नहीं जा सकी...( लंबी सांस के साथ एक चुप्पी) फिर भी मुझे पश्चाताप नहीं है, क्योंकि मैं महिलाओं की आजादी, मानवता के पक्ष में लड़ी. मुझे संतोष है कि मैं सत्य के साथ हूं. जिसके चलते मेरे खिलाफ फतवा भी जारी हुआ. मेरी हत्या का प्रयास भी हुआ... बावजूद इसके मैं यह नहीं कह सकती कि मुझे अकेलेपन का अहसास नहीं होता! मैं भी इनसान हूं, दिक्कत मुझे भी महसूस होती है.
7. बांग्लादेश, योरोप के कई देश, फिर भारत...यहां भी पश्चिम बंगाल और दिल्ली? किस जगह की मिट्टी, लोग और संस्कृति आपको पसंद आई?
हर जगह बहुत सारे अच्छे लोग भी होते हैं और बुरे लोग भी हैं. हर देश में हैं. मैं हमेशा से अपने देश जाना चाहती हूं. मैं अपने प्रकाशकों, दोस्तों से मिलना चाहती हूं. चूंकि मैं वहां नहीं जा सकती इसलिए पश्चिम बंगाल आयी. भाषा, बोली और रहन सहन के चलते यह मेरे लिए मेरे दूसरे घर जैसा था. यहां मैं योरोप से आई थी. वहां के सारे मौकों को छोड़ कर. बंगाली, बंगला संस्कृति से मुझे प्रेम था. पर यहां भी 2007 में मेरी किताब बैन कर दी गई. यहां से मेरा दूसरा निर्वासन हुआ. मेरे लिए यह बहुत दुखद स्थिति है.
8. 'लज्जा' से 'बेशरम' तक, बांग्लादेश और भारत में, भारतीय समाज और सियासत में क्या कुछ बदला?
बदलाव से भला किसे इनकार हो सकता है, पर अफसोस यह है कि इस बदलाव व विकास में 'स्त्री' की स्थिति में उस स्तर पर बदलाव नहीं हुआ, जितना होना चाहिए. स्त्री ने जितनी तरक्की की, उतना ही उसका शोषण भी हुआ. बांग्लादेश में पितृसत्तात्मक समाज में अभी वह बदलाव नहीं आया. विकास की तमाम गति के बावजूद स्त्रियों को दबाने की कोशिश लगातार जारी है. फिर हमारी सामाजिक व्यवस्था में कई दिक्कतें हैं. हमारी वैवाहिक व्यवस्था में पुरुषों के अपने रिश्ते कायम रहते हैं. संतानोत्पत्ति तक में उसकी अपनी मर्जी नहीं चलती. अगर आज उसे नौकरी की छूट है, तो इसके पीछे भी परिवार की, पति की आर्थिक मदद हो सके यह सोच शामिल है. महिलाएं अभी भी परंपरागत भूमिका ही निभाती हैं. वह अपने परिवार को पैसे नहीं दे सकती. अगर आप महिलाओं को सही मायनों में बराबरी का दर्जा देना चाहते हैं तो आपको 'पितृसत्तात्मक' समाज खत्म करना होगा. स्त्री बलात्कार का शिकार केवल इसलिए होती है कि लड़कों के दिमाग में यह भर दिया जाता है कि 'लड़की' तुम्हारे इस्तेमाल की वस्तु है. आप मुझे बताइए, जो पुरुष वेश्यावृत्ति करके आता है, वह किसी भी महिला को अच्छी नजर से कैसे देख सकता है? उसके लिए हर स्त्री एक 'सेक्स ऑब्जेक्ट' ही रहती है! स्त्री को अपने शरीर पर ही अधिकार नहीं. विवाह जैसी संस्था में भी वह बलात्कार- वैवाहिक बलात्कार का शिकार होती रहती है. इसीलिए मैं हर लड़की को यह कहती हूं, अपने अधिकार के लिए, सम्मान के लिए वह बुरी बने. वह जितना ही बुरी बनेगी, व्यवस्था का विरोध करेगी, अपने को पाएगी. अपने सम्मान व बराबरी को पाएगी.
9. आप इनदिनों किस प्रोजेक्ट पर काम कर रही हैं?
कुछ अखबारों में स्तंभ लिख रही हूं. कविता लिखना कम हो गया है. एक उपन्यास और आत्मकथा के आठवें भाग पर काम कर रही हूं.
10. अभी श्रीलंका में चर्च पर हमले हुए. पूरी दुनिया में कट्टरता बढ़ रही है. बतौर लेखक आप इसका क्या समाधान देखती हैं?
शिक्षा कट्टरता को खत्म करने का एकलौता माध्यम है. जब तक धर्म पर जोर दिया जाता रहेगा, यह स्थिति बदलेगी नहीं. राज्य का दखल धर्म से खत्म हो. राज्य इसे किसी भी रूप में बढ़ावा न दे. धर्म हमेशा व्यक्ति की निजी आस्था का विषय रहे. वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दिया जाए. विशेष बात यह कि यह काम सभी को मिलकर करना होगा. चाहे हिंदू हो, मुस्लिम हो, सिख या ईसाई. सभी को यह समझना होगा कि 'आतंकवाद' धर्म से ही, धार्मिक कट्टरता से ही आ रहा है. 'हेट ट्रेड' पर रोक लगानी होगी. दुर्भाग्य यह कि धर्म लोगों को सहिष्णु नहीं कर रहा.
यहां यह भी ध्यान देना होगा कि ये हालात केवल अकादमिक शिक्षा से नहीं बदलेंगे. बराबरी, एकता, करुणा, संवेदना की शिक्षा सबको दी जाए. मेरा आशय 'सुशिक्षा' से है. इनसानियत और मानवीयता की शिक्षा से है.
11. अपने प्रशंसकों, पाठकों के लिए कोई संदेश?
मेरा अपना कुछ भी नहीं है. मेरे पाठक ही मेरे प्रेरणास्रोत हैं.
जय प्रकाश पाण्डेय