मुजीब रिज़वी उत्तर भारतीय साहित्य के बहुभाषा, बहुविधा के आलोचक और चिंतक रहे हैं. मुजीब उर्दू के गलियारों से लेकर कबीर और तुलसी तक अपने गहरे अध्ययन और तार्किक सोच के लिए जाने जाते रहे हैं. मुजीब दिल्ली की जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी में हिंदी विभाग के संस्थापक थे. जामिया में करीब 40 वर्ष तक उन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य की सेवा करते हुए अपना विशेष योगदान दिया.
हिंदी के इस प्रिय आलोचक के पास कबीर और तुलसी को देखने की अलग दृष्टि है. वो पारंपरिक दृष्टि से इन्हें देखने के बजाय एक नए संगत में दोनों को समझाते नज़र आते हैं. मुजीब की यह दृष्टि हिंदी में आलोचना को तो नया आयाम देती ही है, साहित्य में इस महान कवियों के प्रति एक नए बिंब को भी गढ़ती है जो आज के समय में और अधिक प्रासंगिक और व्यवहारिक है.
मुजीब के इस योगदान को याद करते हुए उनके लेखों का एक संकलन राजकमल प्रकाशन द्वारा तैयार किया गया है जिसे 'पीछे फिरत कहत कबीर कबीर' के साथ प्रकाशित किया गया है.
इस संकलन का लोकार्पण करते हुए हिंदी के कवि और आलोचक अशोक वाजपेयी ने कहा कि मुजीब साहब तुलसीदास को एक अलग ही परिप्रेक्ष्य में देखते हैं. वो तुलसी दास पर अपने निबंध की शुरुआत ही उनकी इन पंक्तियों से करते हैं “आग आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेट की” और बताते हैं कि वो पेट की आग से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे. तुलसी दास को वो तथाकथित भक्ति के दायरे में नहीं देख रहे बल्कि एक अलग नज़र से उन्हें देख रहे थे.
इतिहासकार सुधीर चंद्र ने मुजीब रिज़वी के जामिया में बिताये वक़्त को याद किया. उन्होंने बताया कि मुजीब रिज़वी वो महारथी थे जिनके दम से जामिया के हिंदी डिपार्टमेंट को ताक़त मिली.
आलोचक अपूर्वानंद ने कहा, मुजीब साहब का लेखन तहज़ीबी संगम की निशान देही है. उनके लिखावट में सांस्कृतिक आत्म विश्वास की झलक मिलती है. अपनी किताब “पीछे फिरत कहत कबीर कबीर” में मुजीब रिज़वी हमें सोचने का एक तरीक़ा प्रस्तावित करते हैं जो हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है.
लेखक रविकांत ने कहा कि मुजीब साहब हर लेख में एक अहम सवाल से जूझते हैं कि अगर कोई चीज़ आ रही है तो कहाँ से आ रही है और ये सवाल उन्हें कई पेचीदा रास्तों में ले जाता है.
राजकमल की यह पुस्तक अब पाठकों के लिए उपलब्ध है. निःसंदेह यह पुस्तक मुजीब के ज़रिए हिंदी के रचना संसार को एक नई दृष्टि से देखने का रास्ता खोलेगी.
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