बस अपनी रफ्तार से जा रही थी. वाकमैन पर मैं गाने सुन रहा था. मेरी मंज़िल हरि बाबा का आश्रम थी. बाबा का आश्रम गंगा के किनारे स्थित है. जहां हर साल गुरू पूर्णिमा का मेला लगता है. लाखों की तादाद में श्रद्धालु वहां आते हैं.
मेरा मकसद हरि बाबा से मिलना नहीं था. ना मैं उनका भक्त था. मेरा मकसद तो अपने एक दोस्त से मिलना था. उससे अपने दिल की बात कहनी थी. वो बात, जो मैं कई साल की कोशिश के बाद भी मैं नहीं कह पाया था. मुझे लगा था कि शायद यहां मैं उससे वो बात कह सकूं.
अचानक मैंने नोटिस किया कि बस में बैठी एक लड़की लगातार मुझे देखे जा रही है. मुझे लगा कि ये मेरा वहम होगा. शायद किसी और की तरफ उसका ध्यान होगा. मैंने उसे अपनी ओर देखता देख कर भी अनदेखा कर दिया.
कई घंटे के सफर के बाद बस एक जगह रुकी. ये यूपी टूरिज़्म का एक मिड-वे सेंटर था. यहां रेस्त्रां और बार था. सभी यात्री बस से उतर गए. किसी ने चाय, किसी ने कॉफी, किसी ने समोसा, किसी ने टोस्ट, तो किसी ने पूरी थाली का ऑर्डर करना शुरू किया. मैं और मेरे साथी दोनों ने पहले बीयर ली, उसे पीया, लंच किया और वापस आकर अपनी सीट पर बैठ गये. मैंने नोटिस किया कि वो लड़की अपनी सीट बदलकर मेरे और करीब वाली एक सीट पर आ कर बैठ गयी थी.
तकरीबन घंटे भर के सफर के बाद ही हम लोग अपनी मंज़िल तक पंहुच गये. आश्रम बड़ा था. सबके रुकने की व्यवस्था उसके अंदर ही थी. वहीं एक कमरे में अपना बैग रख कर मैं बाहर आ गया. मेरा मकसद उस साथी की तलाश था जिससे कुछ कहना था. यहां इतनी दूर तक मैं ये सोच कर आया था कि चाहे जो हो इस बार मैं अपने दिल की बात उससे कह ही दूंगा. इश्क में डूबे आशिक को अंजाम की परवाह भला कब होती है?
मैं उस खूबसूरत दोस्त की तलाश में भीड़ में भटक रहा था. लेकिन कई घंटों की मेहनत के बावजूद मैं उसकी तलाश में नाकाम रहा. थक कर मैं एक पेड़ के नीचे रुक गया. सामने एक स्टेज पर भजन गाये जा रहे थे.
गुरू पूर्णिमा का चांद आसमान में था. चांदनी दूर दूर तक फैली हुई थी. हर कोई हरि बाबा की भक्ति में लीन था. सिवाये मेरे जिसकी भक्ति किसी और के प्रति थी.
लेकिन मुझ अंदाज़ा भी नहीं था कि मेरे जैसा दीवाना वहां एक और भी था. मैं पेड़ के नीच खड़ा होकर अपने आगे का एक्शन सोच ही रहा था कि मुझे अहसास हुआ कि मेरे करीब कोई आकर खड़ा हो गया है. मैंने देखा तो पाया कि मेरे करीब आने वाला कोई और नहीं, वही लड़की थी जो बस में मुझे लगातार न जाने कैसी नजरों से देखे जा रही थी.
मैंने उसकी तरफ देखा तो वो मुस्कुरा दी.
'हैलो, मैं प्रिया.'
'मेरा नाम सुनील है . सुनील त्रिपाठी.'
'आप यहां पहली बार आये हैं?'
'कैसे जाना?'
'अगर आप पहले भी आ चुके होते तो यहां नहीं खड़े होते.'
'तो मैं कहां खड़ा होता?' मैंने उसकी बातों का आनंद लेते हुए कहा, 'अच्छा यही बता दीजिए कि मुझे कहां होना चाहिये?'
'चलिये मेरे साथ.' कहते हुए उसने मेरा हाथ पकड़ लिया.
उसकी इस हरकत ने मुझे हैरान कर दिया. मध्यम कद की सांवली -सलोनी रंगत वाली इस आकर्षक लड़की का दुस्साहस देख मैं हैरान था. हम पहली बार मिल रहे थे. ज़्यादा बात भी नहीं हुई थी. एक तरह से हम एक दूसरे से पूरी तरह अनजान थे. और वो मेरा हाथ पकड़ कर खींचते हुए मुझे ले जा रही थी.
हज़ारों की भीड़ से बेपरवाह, मुझे खींचते हुए वो कच्चे रास्तों से लेकर गंगा के किनारे बने एक छोटे चबूतरे पर ले आयी. इस जगह पर कोई नहीं था. चबूतरे पर सिर्फ एक बेंच पड़ी थी. सामने कल-कल बहती गंगा. आसमान में फैली चांदनी. हम दोनों उस बेंच पर बैठ गये.
उस इलाके के सूनेपन से मुझे घबराहट हो रही थी. मैं एक अनजान लड़की के साथ इस बेंच पर क्या कर रहा हूं? क्यूं हूं मैं यहां. ये लड़की कौन है. मैं तो ये भी नहीं जानता. चार घंटे की बस यात्रा के अलावा हम एक-दूसरे को जानते भी नही हैं. 1990 में इस तरह की बात मैं सोच भी नहीं सकता था.
ऐसी घटना मेरे साथ पहली बार हुई थी. 21 साल की अपनी जिंदगी में मैं किसी लड़की के साथ कभी अकेला रहा भी नहीं था. और अब पहली बार ऐसी किसी लड़की का साथ था जिससे मैं चंद घंटों पहले तक मिला भी नहीं था. मेरे होश और हवास गुम करने के लिये यह बात काफी थी.
पता नहीं उसने कुछ भांप लिया या मेरी सोच पढ़ लिया, मुझे चुप देख कर उसने पूछा कि आप कुछ बोलते क्यूं नहीं.
'क्या कहूं. ये चांद है या तुम्हारा चेहरा. ये पत्तियों की है सरसराहट कि तुमने चुपके से कुछ कहा है.' बेसाख्ता मेरे मुंह से निकल गया. क्यूंकि हवा भी चल रही थी. गंगा का किनारा था. आसमान में पूरा चांद था... मुझे और कुछ सूझा ही नहीं.
वो हंस पड़ी. 'आप बातें बहुत अच्छी करते हैं. बोलते रहिये.' कहते हुए उसने अपना सिर मेरे कंधे पर रख दिया.
मैंने भी हटने की कोशिश नहीं की. ना जाने क्या -क्या बाते हम करते रहे. काफी वक्त गुज़र गया. अचानक किस की आवाज़ ने हमारी बातों में खलल डाल दिया. देखा तो प्रिया के पिता जी थे. उनको मैं बस में देख चुका था.
मुझ देख कर वो हैरान हुए हों ऐसा उनके हाव भाव से नहीं लगा. उन्होंने मुझसे पूछा भी कि क्या मैंने खाना खा लिया. मेरे इनकार करने पर वो मुझ अपने साथ खाना खिलाने ले गये. खाने के बाद सब लोग अपने-अपने कमरे में सोने चले गये.
अगली मुलाकात मेरी प्रिया से बस में ही हुई. मैं ड्राईवर के साईड में जो लंबी सी सीट होती है ड्राईवर को फेस करने वाली वहां बैठा था. एकदम आगे वाले दरवाज़े के करीब. और वो ड्राईवर के ठीक पीछे वाली सीट पर. जाहिर था हम दोनों एक दूसरे को देख सकते थे.
प्रिया लगातार मुझे देखे जा रही थी. मैं कभी वॉकमैन पर गाने सुनता और आंखें बंद कर लेता. आंखे खोलता तो प्रिया की नज़रें खुद पर पाता, मुस्कुराते हुए. मैं नोटिस कर चुका था कि बस के कई लोगों की नज़र में हमारा ये खेल आ चुका था. लेकिन प्रिया को इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था.
चार घंटे के बाद हमारी बस शहर में प्रवेश कर गयी. पहले ही स्टॉप पर प्रिया का परिवार उतरने लगा. प्रिया सबसे पीछे थी. छोटे भाई, मां और पिता के पीछे. दरवाज़े पर पंहुच कर वो रुकी. उसने मेरा हाथ पकड़ा और मेरी हथेली पर कुछ रख दिया. फिर अपने हाथों से ही मेरी मुट्ठी बंद की. अपना चेहरा मेरे करीब लायी और कान के पास आकर बोली.
आई लव यू.
इसके बाद वो मुस्कुराती हुई बस से उतर कर चली गयी. मैं अपनी मुट्ठी खोली तो वो गले में पहनने वाली एक चेन थी. जिसमें दिल के आकार वाला लॉकेट था.
पहली बार ज़िंदगी में किसी ने मुझसे कहा था 'आई लव यू.' जो बात कहने में मुझे सालों लग चुके थे. एक लड़की ने कुछ घंटों के सफर में एक अनजाने लड़के को बोल दिया था. बगैर ये सोचे कि शायद कभी हमारी मुलाकात होगी भी या नहीं?
ना तो प्रिया ने मुझसे मेरे घर बारे में पूछा था ना मैंने प्रिया का घर जाना था. इतना ज़रूर पता था कि वो अभी स्कूल में पढ़ रही है. इस साल वो बारहवीं का एक्ज़ाम दे रही थी, जबकि मैं नौकरी खोजने की कोशिश कर रहा था.
कई बरस बीत गये. प्रिया से मिले. मैं उसको भूल चुका था. ये कहना भी सही था कि मेरी याद में वो कभी थी ही नहीं. वो बस एक खुशनुमा हवा का झोंका थी. जो मुझे ये सिखा कर गयी थी कि अपने दिल की बात कहने में कभी देर नहीं करनी चाहिये. जो दिल में आये कह देना चाहिये.
नौकरी की तलाश करते-करते मैंने अपनी ज़िंदगी का रास्ता पकड़ लिया था. मैं पत्रकार बन गया. पहले बरेली फिर मुरादाबाद चला गया. ज़िंदगी बेहतरीन कट रही थी. मैं अपने काम से खुश था. उसी दौरान एक दिन मैं बरेली आया हुआ था कि अचानक मुझे किसी को फोन करने की ज़रूरत आन पड़ी. उस ज़माने में मोबाइल नहीं था. मैं फोन करने के लिये पीसीओ पर आया. पीसीओ पर पंहुच कर जैसे ही मैंने फोन की तरफ हाथ बढ़ाया, ठीक उसी वक्त एक और हाथ आगे बढ़ा और उसने मुझसे पहले फोन उठा लिया.
उस हाथ में कोहनी तक मेंहदी लगी हुई थी. मैंने अपना चेहरा घुमाया तो देखा कि सामने प्रिया खड़ी थी. उसके साथ एक लड़का था जो शायद उसका पति था. हम दोनों की नज़रें मिलीं. प्रिया की नज़रों में इस बार कोई भाव नहीं था. लकिन वो नज़र मुझ पर कुछ देर के लिये रुक गयी. या कहूं कि वो ठिठक गयीं मुझ देख कर तो गलत नही होगा. पर बगैर कोई भाव अपने चेहरे पर लाये उसने कानपुर फोन लगाया. उधर से जो भी था उससे इतना ही कहा कि 'मम्मी हम पंहुच गये हैं. हम अच्छे से आ गये हैं. कोई दिक्कत नहीं हुई. जी मम्मी जी, जी, जी.' कह कर उसने फोन रख दिया. उसने पीसीओ वाले को पैसे दिये. बगैर मेरी तरफ देखे वो मुड़ी और अपने पति के साथ चली गयी.
मैं वहीं खड़ा खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा. मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि मैं उससे कुछ कह पाता. इस बार प्रिया ने भी कोई कोशिश नहीं की.
अगर आपको लगता है कि ये कहानी यहीं खत्म हो गयी तो ऐसा नहीं है. प्रिया से मेरी मुलाकात एक बार फिर हुई. इस बार जगह थी लखनऊ का चार बाग रेलवे स्टेशन.
मैं भाई दूज के दिन अपनी बहन के पास लखनऊ गया था. रेलवे स्टेशन पर दिल्ली शताब्दी का इंतज़ार करते हुए मुझे एक बेंच पर बैठी हुई प्रिया दिखायी दी. उसकी गोद में एक छोटा सा बच्चा था. मुश्किल से एक साल की उसकी उम्र होगी. उसका पति साथ में था. इस बार हम दोनो की नज़रें मिलीं. मेरी तरफ देख कर उसके चेहरे पर एक मुस्कुराहट आयी. इससे पहले कि हम दोनों एक दूसरे से कुछ बात कर पाते ट्रेन प्लेटफॉर्म पर लग गयी. वो अपने पति के साथ अपनी सीट की तलाश में डिब्बे की तरफ बढ़ गयी. और मैं अपनी सीट की तरफ.
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संजीव पालीवाल