कहानी - हकीम साहब की चूहेदानी
जमशेद कमर सिद्दीक़ी
दुनिया में एक से बढ़कर एक कंजूस हुए हैं... लेकिन हकीम साहब जैसा कंजूस मैंने आजतक नहीं देखा... कानपुर झकरकट्टी की एक गली में पुराना मकान था, मकान ऊंचा था... दरवाज़े तक जाने के लिए सीढ़ियां थीं... हकीम साहब को मैंने जब भी सीढ़ियां चढ़ते देखा... वो एक-एक सीढ़ी छोड़कर चढ़ते थे... कहते थे कि इससे चप्पल कम घिसती है... जो चप्पल साल भर चलनी है वो दो साल चल जाती थी। ये और बात है कि चप्पल तो 6 महीना ज़्यादा चल जाती थी.. लेकिन पैजामा फट जाता था... उसकी सिलाई में धागा अलग से खर्च होता है... उनकी कंजूसी का आलम ये था कि कान साफ करके ईयर फोन भी धो कर रख लेते थे.. कि अभी एक बार चल जाएगी... (बाकी कहानी पढ़ने के लिए नीचे स्क्रॉल करें। या इसी कहानी को जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से सुनने के लिए ठीक नीचे लिंक दिया है)
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(बाकी कहानी यहां से पढ़ें) हकीम साहब हमेशा से हकीम नहीं थे... वो तो सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर पद से रिटायर हुए थे। ये तो रिटायरमेंट के बाद वो घर पर हकीमी नुस्खे पढ़ने लगे थे। और इसकी एक वजह थी, बड़ी खास वजह... भले उन्हें आता जाता कुछ नहीं था लेकिन मोहल्ले में कोई खांसता-छींकता दिख जाए तो कहते थे। शाम को घर आ जाना एक ऐसा नुस्खा बना कर दूंगा कि सात पुश्तों में कोई नहीं छींकेगा। और इसके बाद इस फर्ज़ी नुस्खे के अहसान तले उसे दबाकर सौ काम करवा लेते थे। पिछले दिनों घर के पिछवाड़े वाले दरवाज़े की पुताई होनी थी... एक मज़दूर के पास गए और बोले "अरे तुम्हारे हाथ क्यों कांप रहे हैं... अरे ये तो बड़ी बीमारी की अलामत है... अरे अरे ... ये तो बड़ी खतरनाक बीमारी है... कुछ साल बाद तो खड़ा होना मुश्किल हो जाएगा..."अच्छा भला आदमी घबरा गया। बोले, घर आओ... एक नुस्खा बना कर दूंगा... छ महीने खाओ, पहलवान उठा कर पटक दोगे... अब वो बेचारा गरीब आदमी... दवा की लालच में घर आया तो फिर पूरे घर का कोई दरवाज़ा, कोई खिड़की नहीं बची जो उससे पेंट न करवाई हो।
हकीम साहब सुबह उठते, सामने वाले घर से अख़बार मांग कर लाते, बैठकर दो बार पढ़ते, तब तक अपनी बेटी हुमैरा से कहते हुमैरा बिटिया, चाय बनाओ। लेकिन उसी पत्ती में बना देना जिसमें रात में बनाई थी... फेंकी तो नहीं थी? हुमैरा बिना कोई जवाब दिये गहरी सांस लेती और अपने अब्बू की कंजूसी को कोसते हुए खुदा को याद करते हुए बावर्ची खाने में चली जाती। हकीम साहब अपनी बेटी हुमैरा से ज़्यादा प्यार करते थे या अपनी पेंशन से बचत करके बनाई हुई रकम से। ये तो नहीं पता लेकिन ये बात साफ है कि उन्हें नफरत थी घर में घुस आए कुछ चूहों से। ज़्यादा नहीं तीन चूहे ही थे... लेकिन मोटे मोटे... अब वो कभी रसोई में दिखाई देते ... कभी ड्राइंग रूम में... चूहों ने ऐसा आतंक मचा रखा था कि भाई साहब... हर सुबह हकीम साहब के दिल को कोई नया झटका लग जाता... कभी देखते तो जूते कुतरे पड़े हैं... कभी देखते कि अलमारी में कोई पुराना बिल को कतरन बना दिया है। कभी टीवी नहीं चल रहा क्योंकि ऐनटीना का तार कटा पड़ा है। हर सुबह एक नया ज़ख्म मिल जाता था।
- अरे हुमैरा... ये देखो.... या अल्लाह... क्या बताएं... हकीम साहब फिर चिल्लाए
- क्या हुआ पापा... वो भागी-भागी आती और घबराकर पूछती तो देखती कि हाथ में एक फटी हुई सदरी लिये सर पकड़े बैठे हैं... बोले देखो... ये हमारी सदरी काट दी इन चूहों नें... अभी तो नई थी...
- अरे अब्बा अल्लाह का खौफ करिए... इसको नई बता रहे हैं ... मैं जब स्कूल में थी तब से पहन रहे हैं आप इसे... मोहल्ले वाले मज़ाक बनाते हैं कि ये उस ज़माने की है जब ट्रेन में कोयले के इंजन चलते थे...
- ज़बान देखो कैसे तेज़ तेज़ चलती है... और तुम्हारा बचपन का क्या है... उम्र ही क्या है तुम्हारी... अभी 25 की हुई नहीं हो... लेकिन अब इन चूहों का कुछ करना पड़ेगा...
- अरे कुछ क्या होता है अब्बा... चूहेदानी खरीदनी पड़ेगी और क्या
- यार तुम सुबह सुबह खरीदने-वरीदने की बात मत किया करो.... तुमको ज़रा तकलीफ नहीं होती... जेब से पैसा खर्च होने पर बैठे-बिठाए चूहेदानी के नाम पर चार पांच सौ रुपए खर्च हो जाएंगे...
- अब्बा आप भी न... कसम से... कहते हुए हुमैरा पैर पटकते हुए चली गयी। लेकिन हकीम साहब सोचने लगे कि यार पहले ही सुबह-सुबह सदरी का नुकसान हो गया है… अब कौन ही कमबख्त मारे चूहों के लिए बीस-चीस रूपए और खर्च कर के चूहे-मार दवा लाएं... और उससे तो चूहे मरते भी नहीं हैं, उसकी जगह फिर चूहेदानी खरीदो.. दो ढाई सौ की चपत और लग जाएगी... कोई ऐसा तरीका सोचा जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
ख़ैर तैयार हुए और चल दिये बाज़ार की तरफ... पैदल घूमते घूमते दुकानों की तरफ झांक-झांक कर देखते रहे कि कहीं सस्ता ज़हर लिखा हो तो दो पुड़िया ले लें। पर कहीं नहीं था। अब देखिए... खुदा को भी जब अंधा और कोढ़ी को मिलाना होता है तो कैसे बिना किसी तमहीद के, बिना भूमिका बनाए के यूं हीं मिला देता है... अभी बाज़ार का एक चक्कर मारकर हकीम साहब आए ही थे कि क्या देखते हैं कि गली के मुहाने पर इफ्तिख़ार साहब का लड़का पान की दुकान पर खड़ा अब्बा के लिए पान बनवा रहा है, और हाथ में...हाथ में चूहेदानी है।
हां, बत्तीस इलाइची राजरतन किमाम... तंबाकू ठीक से लगाना... पीली पत्ती वाला... अब्बा कही रहे थे मज़ा नहीं आ रहा आजकल... उस लड़के ने पान वाले से कहा। हकीम साहब उसे देख रहे थे, वैसे तो वो इफ़्तिखार साहब के लड़के, जिसका नाम अरशद था, उसे ज़रा भी पसंद नहीं करते थे... कई बार तो वो घर के इर्द-गिर्द दिख भी जाता था तो उसे डांट कर भगा देते थे। लेकिन आज क्योंकि उसके हाथ में चूहेदानी थी... इसलिए हकीम साहब भी पान की दुकान पर गए... और इस तरह खड़े हो गए जैसे देखा ही नहीं कि अरशद है... फिर दुकान पर एक डिबिया में रखी माचिस की तीलियों में से एक तीली निकाल कर दांत खोदने की एक्टिंग करते हुए अचानक से पलटे और यूं अरशद को देखा... जैसे अभी अभी देखा... अरे अरशद तुम... कैसे हो बेटा... अब्बू ख़ैरियत से हैं.. सब ठीक है... अरशद ने सोचा कि इन्हें क्या हुआ... ये आदमी जिसे जब सीधे मुंह सलाम करो तो जवाब नहीं देता है.. आज तो बडे दिल आवेज़ी से बातें कर रहा है... स.ससालालेकुम...
- वालैकुम सलाम .. बड़े से हो जाओ... और बताओ... उस दिन देखा तो तुमको वो सरकारी नौकरियों वाली फार्म की दुकान पर... क्या भरा कोई फार्म वार्म
- जी वो कोस्ट गार्ड में डाला है... और भी कुछ हैं.. वो उनकी तैयारी
- अरे हो जाएगा... बिल्कुल हो जाएगा...ये... ये क्या लिये फिर रहे हो..
- ये ... वो हमारे घर में चूहे बहुत हो गए हैं... तो अब्बा ने कहा चूहेदानी ले आओ.. बाज़ार से.. तो वही ले आए
- अच्छा अच्छा... दिखाना... हां.. ये इसमें ऐसे स्प्रिंग लगी है.. ओके... अच्छा यहां से .. ये जैसे ही खिंचेगा... खटाक से बंद... हैं..बढ़िया है यार..
- बढ़िया क्या.. ऐसे ही होती है चूहेजानी...
- नहीं मतलब क्वालिटी इसकी अच्छी है... और भई होगी ही.. .तुम लाए हो... जवान हो, समझदार हो... देख दाख के लाए होगे... अच्छा अरशद सुनो... अभी अभी हमको याद आया... वो तुम्हाए के पैर जो बार बार सुन्न हो जाता था... उसकी दवा लाए... कुछ फायदा हुआ
- नहीं, फायदा तो नहीं हुआ... खा रहे हैं दवा...
- अरे कहां तुम इन अंग्रेज़ी दवाओं के चक्कर में पड़े हो... ऐसा करो... इतवार को हमाए घर आओ... हैं... ऐसा नुस्खा देंगे... कि अब्बा एक टांग पे नाचने न लगें तो कहना...
अरशद ने ज़रा गुस्से में देखा कि ये क्या बदतमीज़ी की बात बोल गए.. हकीम साहब... आ... वो. मतलब अगर पैर बिल्कुल दुरुस्त न हो जाएं तो कहना...
अरशद ने हां में सर हिला दिया और करता भी क्या बेचारा... अब्बा की सेहत की बात थी... पर इंजीनियर चचा की दिल आवेज़ी के सामने न करता भी कैसे... बोला.. ठीक है... मैं आ जाउंगा इतवार को...
इतना सुनते ही इश्तियाक इंजीनियर के दिल में जैसे सैकड़ों सारंगियां एक साथ बजने लगीं। मन ही मन खुद पर फख्र करने लगे कि हमारे जैसा दिमागदार आदमी इस पूरे जहान में न होगा.. कि घर के चूहों का निपटारा हो जाएगा और वो भी बिना हींग-फिटकरी के। झूम ही गए...
घर पहुंचे तो हुमैरा को आवाज़ दी हुमैरा... ओ हुमैरा... अरे कर दिया जुगाड़। ऐसा पागल बनाया है इफ्तिखार के लड़के को... आएगा अब्बू की दवा लेने... हुमैरा ने सर पकड़ लिया... बोली... लेकिन आपको दवा भी तो देना पड़ेगी...
- अरे दवा काहे की... वो तो दे ही दूंगा... घर की है...
हकीम साहब का प्लैन ये था कि जुमेरात को घर में जो अगरबत्ती जलती है घर में... उसी की राख को पानी में घोल के देदेंगे। यही तो वो करते थे बहुत लोगों के साथ... लोग सोचते थे कोई तिबिया अमल है... हकीम साहब ने सोचा था कि इसी बहाने लड़के का घर में आना जाना हो जाएगा... फिर किसी दिन उससे कह दूंगा कि भई अपनी वो चूहेदानी ले आना... बस हो गया काम...
हकीम साहब ने फख्र से अपने ही कंधे थपथपाए और दोनों हाथ सर के पीछे टिका कर बिस्तर पर आराम से लेट गए।
अब आगे का प्लैन तो सेट ही था... बेचारा अरशद हर तीसरे दिन आता था... हकीम साहब उसे अगरबत्ती की राख को इस तरह इख छोटी सी चमकीली थैली में रखकर चूम के देते थे कि वो बड़ी अकीदत से उसे घर ले जाता था। कुछ दिन बाद ही हकीम साहब ने पासा फेंक भी दिया, बोले..... सुनो... यार वो मैं चूहेदानी लेने जा रहा था कि याद आया कि तुम्हारे पास तो है, देखी थी उस दिन... तो ऐसा करो... ले आना जब अबकी आओ तो... वैसे मैं अपनी ही खरीदूंगा... मुझे अच्छी क्वालिटी की चाहिए.. पर अभी मार्केट जाना नहीं हो पा रहा... ले आना...
- जी बिल्कुल ले आउंगा... उसने कहा... तो हकीम साहब ने पानी लेकर आई हुमैरा को आंख मारी।
- बढ़िया... ये लो दवा... ये बिस्मिल्ला करके चटा देना अब्बू को... जल्दी आराम हो जाएगा
आप सोच रहे होंगे कि हकीम साहब भी कैसे लीचड़ आदमी थे... मगर भाई साहब... सच बताऊं तो ऐसे लोग हमारे आपके आसपास बहुत हैं। आप जानते होंगे ऐसे लोगों को जो कॉनटैक्ट्स बनाते हैं... क्यों क्योंकि उनको लगता है कि शायद उनकी ज़रूरत पड़ जाए। एक-आध जान पहचान पुलिस में रखते हैं, कुछ वकीलों को भी चाय पिलाते हैं, कुछ दबंग टाइप के लोगों को सलाम ठोंकते हैं... ये वही लोग होंते हैं जो हकीम साहब की तरह ज़रूरत के हिसाब से कॉनटैक्टस बनाते हैं... हकीम साहब भी वही थे...
तो ख़ैर अब हकीम साहब का मामला फिट हो गया था... अक्सर जब वो शाम को सस्ती वाली सब्ज़ी झोले में भरे घर में दाखिल होते तो देखते कि अरशद चूहेदानी लिए उनका इंतज़ार कर रहा है...
सलालेकुम... हकीम साब... ये देखिए तीन पकड़ लिये... आज...
बहुत बढ़िया बेटा... शब्बाश... अच्छा रुको हम दवा बना कर देते हैं... ये सब्ज़ी रख आते हैं - ये कहते हुए रसोई में दाखिल होते और हुमैरा से कहते... ये लो... सब्ज़ी वाले से फ्री का धनिया.. दो बार ले लिया... संभाल के रखना... अगरबत्ती कहां है...
वो दवा देते और फिर अरशद चूहेदानी लिये हुए घर चला जाता। लेकिन कुछ दिन बाद चूहे फिर घर में दिखने लगते... तो उन्हें फिर से अरशद की ज़रूरत पड़ती... अरशद फिर आता... वो फिर उसको दवा देते... यही माला कई दिनों तक चलता रहा।
अबतक इस कहानी में आपको यही लग रहा होगा कि हकीम साहब कितने चतुर थे... कितने चालाक थे... पर ऐसा है नहीं... वो आपने तो सुना ही होगा... कि सियाना कव्वा कहां गिरता है... चलिए आपको सुनते हैं इस कहानी की दूसरी साइड... उस दिन की तरफ चलते हैं... जब चूहों ने पहली बार हकीम साहब की सदरी काटी थी
(फ्लैशबैक)
- अरे हुमैरा... ये देखो.... या अल्लाह... क्या बताएं... हकीम साहब फिर चिल्लाए
- क्या हुआ पापा... वो भागी-भागी आती और घबराकर पूछती तो देखती कि हाथ में एक फटी हुई सदरी लिये सर पकड़े बैठे हैं... बोले
- देखो... ये हमारी सदरी काट दी इन चूहों नें... अभी तो नई थी...
- अरे अब्बा अल्लाह का खौफ करिए... इसको नई बता रहे हैं ... मैं जब स्कूल में थी तब से पहन रहे हैं आप इसे... मोहल्ले वाले मज़ाक बनाते हैं कि ये उस ज़माने की है जब ट्रेन में कोयले के इंजन चलते थे...
- ज़बान देखो कैसे तेज़ तेज़ चलती है... और तुम्हारा बचपन का क्या है... उम्र ही क्या है तुम्हारी... अभी 25 की हुई नहीं हो... लेकिन अब इन चूहों का कुछ करना पड़ेगा...
- अरे कुछ क्या होता है अब्बा... चूहेदानी खरीदनी पड़ेगी और क्या
- यार तुम सुबह सुबह खरीदने वरीदने की बात मत किया करो.... तुमको ज़रा तकलीफ नहीं होती... जेब से पैसा खर्च होने पर बैठे बिठाए चूहेदानी के नाम पर चार पांच सौ रुपए खर्च हो जाएंगे...
- अब्बा आप भी न... कसम से...
ये कहते हुए हुमैरा चली गयी। और इधर हकीम साहब सोचने लगे कि क्या पैतरा अपनाया जाए कि चूहेमार दवा या चूहेदानी का खर्चा भी बच जाए और चूहे भी मर जाएं। सोचते सोचते वो चले गए बाज़ार की तरफ... और उनके जाते ही... इधर... हुमैरा का फोन बजा...
हैलो... हां अरशद बाबू... खाना खाया?
हां बेबी... खाना खा लिया... तुमने खाया...
हां खा लिया...
- अच्छा ये बताओ... जो चूहे मैंने तुम्हारे घर में छोड़े थे एक हफ्ता पहले... उन्होंने कुछ असर दिखाया... कुछ काटा पीटा या नहीं...
- अरे न पूछो... पापा की रबड़ की चप्पल काट दी... अलमारी में दादी की वसीयत कुतर दी... पुश्तैनी सदरी में छेद कर दिये... तार कुतर दिये... क्या नहीं किया... पर मेरे अबतक नहीं समझ आया कि तुमने ये चहे घर में क्यों छोड़े थे?
- अरे बस तुम देखती जाओ... एक कहावत है कि बेवकूफ अपनी बेवकूफी से पकड़ा जाता है... और समझदारी अपनी समझदारी से... मैं जाता हूं .. चूहेदानी लेकर मार्केट हकीम साहब से टकराना भी है...
तो समझे ... ये था खेल... चलिए अब चलते हैं... और देखते हैं... हकीम साहब के घर में क्या हो रहा है...
(फ्लैशबैक से वापसी)
तो मंज़र कुछ यूं है.. कि हकीम साहब बाज़ार में हैं... और सच झूठ बोलकर क़ॉनटैक्ट्स बना रहे हैं ताकि कुछ और काम निकाल सकें। इधर अरशद मियां अपनी महबूबा हुमैरा के साथ घर में अहमम ... .चूहे पकड़ रहे हैं। दिन में चूहेदानी में चूहे पकड़ के ले जाते हैं... शाम को चुपचाप पिछले दरवाज़े से छोड़ जाते हैं। हकीम साहब इस बात से हैरान हैं कि जितने चूहे उनके घर से निकल चुके हैं... उतने तो नीरो के पीछे भी नहीं थे जो बांसुरी बजा रहा था... पर वो इसी में खुश हैं कि अरशद से फायदा उठा रहे हैं... और अरशद इस बात पर खुश हैं कि हकीम साहब उनकी चूहीदानी में फंस गए हैं।
तो भाईसाब ये दुनिया ऐसे ही चल रही है... कौन किसकी काट रहा है... पता नहीं चल रहा... हर आदमी हकीम साहब है... जिसे तलाश है... एक अरशद की... और हर अरशद एक हकीम साहब को ढूंढ रहा है .... ये दुनिया.. इस दुनिया का हर आदमी ... एक चलती फिरती चूहेदानी है...
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