भगवान ही जानता है कि जब मैं किसी को साइकिल की सवारी करते या हारमोनियम बजाते देखता हूं तब मुझे अपने ऊपर कैसा आफसोस होता है. सोचता हूं, भगवान ने ये दोनों विद्याएं भी ख़ूब बनाई हैं. एक से वक्त बचता है, दूसरी से वक्त कटता है. लेकिन तमाशा देखिए, हमारी किस्मत में कलियुग की ये दोनों कलाएं नहीं लिखी गईं। न साइकिल चला सकते हैं, न बाजा ही बजा सकते हैं। पता नहीं, कब से यह बात मेरे मन में बैठ गई है कि हम सब कुछ कर सकते हैं, लेकिन ये दोनों काम नहीं कर सकता।
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शायद 1932 की बात है कि बैठे-बैठे ख़्याल आया कि चलो साइकिल चलाना सीख लें. और इसकी शुरुआत यूं हुई कि हमारे बेटे ने चुपचाप यह कला सीख ली और हमारे सामने से सवार होकर शान से और कभी कभी इतराते हे निकलने लगा। अब आपसे क्या कहें कि शर्म और जलन के कैसे कैसे ख़्याल हमारे मन में उठे. सोचा, क्या हमीं जमाने भर के फिसड्डी रह गए हैं! हैं सारी दुनिया चलाती है, ज़रा ज़रा से लड़के चलाते हैं, बेवकूफ और गंवार तक चलाते हैं, हम तो ऊपर वाले की कृपा से फिर भी पढ़े लिखे हैं. क्या हमीं नहीं चला सकेंगे? आख़िर इसमें मुश्किल क्या है? कूदकर चढ़ गए और ताबड़तोड़ पैर मारने लगे. और जब देखा कि कोई राह में खड़ा है तब टन टन करके घंटी बजा दी. हटा तो ठीक और न हटा तो गुस्साई आंखों से उसकी तरफ़ देखते हुए निकल गए. बस, यही तो सारा मामला है इस लोहे की सवारी का. कुछ ही दिनों में सीख लेंगे. बस महाराज, हमने फैसला कर लिया कि चाहे जो हो जाए, परवाह नहीं.
दूसरे दिन हमने अपने फटे पुराने कपड़े तलाश किए और उन्हें ले जाकर श्रीमतीजी के सामने पटक दिया कि इनकी ज़रा मरम्मत तो कर दो। श्रीमती जी ने हमारी तरफ़ हैरानी की नज़र से देखा और कहा ‘अरे ये कहां से उठा लाए। इन कपड़ों में अब जान ही कहा है कि मरम्मत करूं! इन्हें तो फेंक दिया था. वहीं जाकर डाल आइए.’
हमने मुस्कुराकर मैडम की तरफ़ देखा और कहा, ‘तुम हर वक्त बहस मत किया करो. आख़िर मैं इन्हें ढूंढ़ ढांढ़ कर लाया हूं तो ऐसे ही तो नहीं उठा लाया. अब महरबानी करके इनकी मरम्मत कर डालो.’
पर वो बोलीं ‘पहले बताओ, इनका क्या बनेगा?’
हम चाहते थे कि घर में किसी को कानोंकान खबर न हो और हम साइकिल सवार बन जाएं. और इसके बाद जब इसके माहिर हो जाएं तब एक दिन जहांगीर के मकबरे को जाने का फैसला करें. घरवालों को तांगे में बिठा दें और ऐंठ कर कहें, ‘तुम चलो हम दूसरे तांगे में आते हैं’ और जब वो चले जाएं तब साइकिल पर सवार होकर उनको रास्ते में मिलें. आए हाए... हमें साइकिल पर सवार देखकर उन लोगों की क्या हालत होगी! हैरान हो जाएंगे, अरे आंखें मल-मल कर देखेंगे कि कहीं कोई और तो नहीं! लेकिन हम गर्दन टेढ़ी करके दूसरी तरफ़ देखने लग जाएंगे, जैसे हमें कुछ मालूम ही नहीं है, औऱ जैसे यह तो हमारे लिए बहुत मामूली बात है.... पर ऐसा न हो सका। मैडम पीछे ही पड़ गयीं... ये औरतों का भी न... ख़ैर... बताना ही पड़ा। लेकिन ये नहीं कहा कि हम शौक से सीख रहे हैं.. ऐसे बताया कि लगे बड़ी संजीदा ज़रूरत है. कहा – हां भई.. वो किराया बहुत बढ़ गया है... रोज रोज तांगे का खर्च जेब फाड़े दे रहा है... सोचते हैं साइकिल चलाना लें तो...
श्रीमती जी ने बच्चे को सुलाते हुए हमारी तरफ़ देखा और मुस्कुराकर बोलीं, ‘मुझे तो उम्मीद नहीं कि यह बेल आपसे मत्थे चढ़ सके. खैर कोशिश करके देख लीजिए. मगर इन कपड़ों से क्या बनेगा?’
हमने ज़रा रोब से कहा, ‘आख़िर बाइसिकिल से एक दो बार गिरेंगे या नहीं? और गिरने से कपड़े फटेंगे या नहीं? जो बेवकूफ हैं, वो नए कपड़ों का नुकसान करते हैं. और जो मेरी तरह समझदार लोग हैं हैं, वो पुराने कपड़ों से काम चलाते हैं.
लगा तो यही कि हमारी इस बात का कोई जवाब हमारी मैडम के पास नही था, क्योंकि उन्होंने उसी समय मशीन मंगवाकर उन कपड़ों की मरम्मत शुरू कर दी.
हमने इधर बाजार जाकर मरहम का डिब्बा खरीद लिया कि चोट लगते ही उसी समय इलाज किया जा सके। इसके बाद जाकर एक खुला मैदान तलाश किया, ताकि दूसरे दिन से साइकिल-सवारी का प्रैक्टिस की जा सके।
पर अब आया सबसे बड़ा सवाल और वो ये कि अपना उस्ताद किसे बनाएं. इसी उधेड़बुन में बैठे थे कि तिवारी लक्ष्मीनारायण आ गए और बोले, ‘क्यों भाई हो जाए एक बाजी शतरंज की?’
हमने सिर हिलाकर जवाब दिया, ‘नहीं साहब! आज तो मन नहीं है’
‘क्यों?’
‘अरे क्यों मतलब... मैंने कहा अब किसी का दिन न करे तो?’ फिर मेरा गला भर आया
तिवारी जी फौरन मेंरे पास आकर बैठे ‘अरे भाई मामला क्या है? भाभी से झगड़ा तो नहीं हो गया?’
हमने कहा, ‘तिवारी भैया, क्या कहें? सोचा था, लाओ, साइकिल की सवारी सीख लें. मगर अब कोई ऐसा आदमी दिखाई नहीं देता जो हमारी मदद करे. बताओ, है कोई ऐसा आदमी तुम्हारे ख़्याल में?’
तिवारी जी ने हमारी तरफ़ बेबसी की आंखों से ऐसे देखा, मानों हमको कोई खजाना मिल रहा है और वो खाली हाथ रह जाएंगे। दोस्त की तरक्की आखिर किसको बर्दाश्त होती है। जलकुकड़े अंदाज़ में बोले, ‘भई देखो, फैसला तुम्हारा ही है... लेकिन मेरी मानो तो यह रोग न पालो. इस उम्र में साइकिल पर चढ़ोगे? और यह भी कोई सवारियों में कोई सवारी है कि डंडे पर उकड़ूं बैठे हैं और पांव चला रहे हैं. अमा लानत भेजो इस ख़्याल पर आओ एक बाजी खेलें’ मगर हमने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थी. साफ समझ गए कि तिवारी जलन की आग में फुंका जा रहा है मुंह फुलाकर हमने कहा, ‘भाई तिवारी हम तो जरूर सीखेंगे. कोई आदमी बताओ.’
‘आदमी तो है ऐसा एक, मगर वह मुफ्त में नहीं सिखाएगा. फीस लेगा. दोगे?’
‘कितने दिन में सिखा देगा?’
‘यही दस-बारह दिनों में!’
‘और फीस क्या लेगा?’
‘औरों से पचास लेता है. तुमसे बीस ले लेगा... हमारी खातिर.’
हमने सोचा दस दिन सिखाएगा और बीस रुपये लेगा. दस दिन बीस रुपये. बीस रुपये-दस दिन. यानि दो रुपये रोजाना यानि साठ रुपये महीना और वो भी सिर्फ एक दो घंटे के लिए. ऐसी तीन चार ट्यूशनें मिल जाएं तो ढाई-तीन सौ रुपये महीने के खड़े हो जाएंगे. हमने तिवारी जी से तो इतना ही कहा कि जाओ जाकर मामला तय कर आओ, मगर जी में खुश हो रहे थे कि साइकिल चलाना सीख गए तो एक ट्रेनिंग स्कूल खोल लेंगे और तीन-चार सौ रुपये महीने के पीटने लगेंगे।
इधर तिवारी जी मामला तय करने गए इधर हमने यह खुशखबरी जाकर पत्नी जी को सुना दी कि कुछ दिनों में हमलोग ऐसा स्कूल खोलने वाले हैं जिससे तीन-चार सौ रुपये महीने की आमदनी होगी.
वो बोलीं, ‘अए जाओ... इतनी उम्र हो गई मगर ओछापन नहीं गया. पहले आप तो सीख लो, फिर स्कूल खोलना. मुझे तो लगता है तुम ही नहीं सीख पाओगे... दूसरों को सिखाना तो दूर की बात है.’
हमने बिगड़कर कहा, ‘यह बड़ी बुरी बात है कि हर काम में टोक देती हो. हमसे बड़े बड़े सीख रहे हैं तो क्या हम नहीं सीख पाएंगे? पहले तो शायद सीखते या न सीखते, पर अब तुमने टोका है तो जरूर सीखेंगे. तुम बस अब देखती जाओ....’
श्रीमती जी बोली, ‘मैं तो चाहती हूं कि तुम हवाई जहाज चलाओ. यह बाइसिकिल क्या चीज है? मगर तुमको मैं जानती हूं... देखना एक बार गिरोगे, तो वहीं साइकिल वाइकल फेंक-फांककर चले आओगे.’
इतने में तिवारी जी ने बाहर से आवाज दी. हमने बाहर जाकर देखा तो उस्ताद साहब खड़े थे. हमने शरीफ स्टूडेंट की तरह बडी श्रद्धा से हाथ जोड़ का नमस्ते किया और चुपचाप खड़े हो गए.
तिवारी जी बोले, ‘हेहेहे तो...यही हैं जो हैं... मतलब यह तो बीस पर मान ही नहीं रहे थे. बड़ी मुश्किल से मनाया है। पेशगी लेंगे, कहते हैं, बाद में कोई देता नहीं है’
अरे भाई हम देंगे. मैंने कहा दुनिया लाख बुरी है, मगर फिर भी भले आदमी अभी ज़िंदा हैं। यह बस चलाना सीखा दें, फिर देखें, हम इनकी क्या क्या सेवा करते हैं’
मगर उस्ताद साहब नहीं माने. बोले, ‘फीस पहले लेंगे.’
‘और अगर आपने नहीं सिखाया तो?’
‘नहीं सिखाया तो फीस लौटा देंगे.’
‘और अगर नहीं लौटाया तो?’
इस पर तिवारी जी ने कहा, ‘अरे साहब! क्या यह तिवारी मर गया है? उस्ताद की तरफ देखकर बोले शहर में रहना हराम कर दूं, बाजार में निकलना बंद कर दूं. फीस लेकर भाग जाना कोई हंसी-खेल है?’
जब हमें यकीन हो गया कि इसमें कोई धोखा नहीं है, तब हमने फीस के रुपये लाकर उस्ताद को भेंट कर दिए और कहा, ‘उस्ताद कल सवेरे ही आ जाना. हम तैयार रहेंगे। इस काम के लिए कपड़े भी बनवा लिए हैं. और हां हमारे पड़ोस में जो मिस्त्री रहता है, उससे साइकिल भी मांग ली है. आप सवेरे ही चले आएं तो भगवान का नाम लेकर शुरू कर दें’
तिवारी जी और उस्ताद जी ने हमें हर तरह से तसल्ली दी और चले गए. इतने में हमें याद आया कि एक बात कहना भूल गए. नंगे पांव भागे और उन्हें बाजार में जाकर पकड़ा. वे हैरान थे. हमने हांफते-हांफते कहा, ‘उस्ताद हम शहर के पास नहीं सीखेंगे, लारेंसबाग में जो मैदान है, वहां सीखेंगे. वहां दो फायदे हैं एक तो मिट्टी नरम है, चोट कम लगती है। दूसरे वहां कोई देखता नहीं है’ उन्होंने कहा हम्म ठीक है...
अब रात को आराम की नींद कहां? बार बार चौंकते थे और देखते थे कि कहीं सूरज तो नहीं निकल आया. सोते थे तो साइकिल के सपने आते थे. एक बार देखा कि हम साइकिल से गिरकर जख्मी हो गए हैं. साइकिल आप से आप हवा में चल रही है और लोग हमारी तरफ़ आंखें फाड़-फाड़ के देख रहे थे.
अब आंखें खुली तो दिन निकल आया था. जल्दी से जाकर वो पुराने कपड़े पहन लिए, नौकर को भेज कर मिस्त्री से साइकिल मंगवा ली. इसी समय उस्ताद साहब भी आ गए और हम भगवान का नाम लेकर लारेंसबाग की ओर चले. लेकिन अभी घर से निकले ही थे कि ऐ... लीजिए साहब एक बिल्ली रास्ता काट गई और एक लड़के ने छींक दिया.
क्रमश:
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जमशेद क़मर सिद्दीक़ी