कहानी - एक उदास रूह
जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
भूत होते हैं या नहीं – आप को क्या लगता है? क्या ये हकीकत है कि कोई मरने के बाद किसी की रूह इस दुनिया में भटकती है। क्या आपको लगता है कि जो लोग अपनी मौत नहीं मरते वो इसी दुनिया की फिज़ाओं में हवा बनकर शामिल रहते हैं? क्या आपके साथ कभी ऐसा होता है कि जब आप कमरे में बिल्कुल अकेले हों तो अचानक महसूस होता है कि आपके पीछे कोई है... आप चौंककर पलटकर देखते हैं पर वहां कोई नहीं होता... कभी सड़क से जाते हुए आपको लगता है कि किसी ने आपका नाम पुकारा है... पर जब आप रास्ते की तरफ देखते हैं तो कोई दिखाई नहीं देता... ये सारी बातें कुछ लोगों के लिए इस बात का यकीन है कि भूत होते हैं... रूहे होती हैं... पर मेरे लिए ये बातें किसी कोरी गप्प से बढ़कर कुछ नहीं थी... मुझे ये बकवास लगती थीं... तब तक जब तक मैं उत्तराखंड के एक गांव भावनपुर में नहीं गया था। (बाकी की कहानी पढने के लिए नीचे स्क्रॉल करें। या इसे ऑडियो में सुनने के लिए ठीक नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें)
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(बाकी की कहानी यहां से पढ़ें) ये बात नब्बे पनचानबे के आसा पास की है... उस वक्त मेरी उम्र यही कोई 30 – 32 की रही होगी। मेरी नई नई नौकरी लगी थी... एक प्राइवेट कंपनी में जो पहाड़ी इलाकों में चट्टानों को तोड़कर वहां बड़े बड़े होटल बनाती थी। भावनपुर में उस कंपनी के दफ्तर में मैं इंजीनियर था... मेरा काम था इलाके में ये देखना कि कौन सी जगह पहाड़ों को काटकर कंस्ट्रक्शन किया जा सकता है। हालांकि हमारी कंपनी का लोकल्स विरोध भी करते थे.... उनका कहना था कि हमारी वजह से ही, पहाड़ी इलाकों का संतुलन बिगड़ रहा है, चट्टाने खिसकने की घटनाएं बढ़ने लगी हैं। कंपनियां पैसा कमाने के लिए पहाड़ी इलाकों को बर्बाद कर रही हैं... वगैरह वगैरह... पर उन मुट्ठीभर लोगों के विरोध से क्या होता है। मैं तो भई बस अपना काम कर रहा था।
तो साहब वो अगस्त का महीना था जब मैं भावनपुर पहुंचा और मैंने दफ्तर के पास ही एक मकान में कमरा किराए पर ले लिया था। वो जगह मुझे पसंद आ रही थी क्योंकि मेरे कमरे की बड़ी सी खिड़की से सामने बड़े बड़े पहाड़ दिखाई देते थे, हवा साफ थी... मौसम सर्द... मैं नई नई नौकरी में नया नया जोश लिये, मेहनत से काम करता था। मेरी मकान मालकिन एक बूढ़ी औरत थीं जो अपने एक बेटे के साथ ऊपर वाले कमरे में रहती थीं। उनका बेटा प्रशांत पास में ही बने एक फोर स्टार होटल में नौकरी करता था। आंटी ज़्यादातर अकेले ही रहती थीं इसलिए जब भी मौका लगता वो मुझसे बातचीत करती थीं, और अक्सर मुझे भावनपुर के बारे में बताया करती थीं। पर एक दिन उन्होंने मुझसे कहा, सुनो, तुम जब शाम को दफ्तर से लौटते हो.. तो... वो जो होटल है न जिसमें प्रशांत काम करता है, उधर से आया करो... उस सुनसान चढ़ाई वाले रास्ते से मत आया करो...
- क्यों आंटी... मैंने पूछा तो वो खामोश रहीं...
मैंने फिर से पूछा कि बल्कि वो रास्ता तो शॉर्ट कट है... उधर से क्यों नहीं तो उन्होंन मेरी तरफ ग़ौर से देखा और कहा... शार्टकट है लेकिन सेफ नहीं है
क्यों.... क्योंकि वहां एक उदास रूह भटकती है।
रूह भटकती है... मैंने मुस्कुराते हुए कहा... अरे आंटी... ये रूंह वूह पर मेरा यकीन नहीं है... आप भी न...
बेटा... जैसा कह रही हूं वैसा मान लो... मत आना उधऱ से... वो उदास रूह... पहले भी... कहते कहते वो रुक गयीं। फिर बोलीं, बस उधर से मत आना। मुझे दफ्तर के लिए लेट हो रहा था तो मैंने बात काट दी और कहा, ठीक है नहीं आउंगा। और ये कहकर मैं दफ्तर के लिए निकल गया। पर जब दफ्तर में अपनी सीट पर बैठा तो बार बार ये याद आ रहा था कि आखिर आंटी क्या कहते कहते रुक गयी थीं। क्या हुआ था उस रास्ते पर... मैंने सोचा और दफ्तर में काम करने वाले शंभू से जो हमें चाय पिलाते थे और जो वहां के लोकल थे, उनसे पूछने का सोचा। इंटरवेल के वक्त मैं उनके पास पहुंचा शंभू उस वक्त छोटे से रसोई में चाय का बर्तन मांझ रहे थे
शंभू जी नमस्कार, कैसे हैं मैंने कहा तो ज़मीन पर बैठे वो चौंक गए फिर बोले
बढ़िया हैं सर आपकी कृपा है..बताइये
शंभू जी एक बात पूछनी थी
हां पूछिए ना... वो खड़े हो गए और भीगे हाथ अपनी धोती में पोंछ लिए
एक बात बताइये... ये जो पहाड़ के पीछे की तरफ से खड़ी चढ़ाई वाला रास्ता है... इसके बारे में कोई खास बात है क्या... जो मेरी मकान मालिकन हैं... उन्होंने मुझसे कहा कि मैं उधर से न आया करूं... क्यों कि वहां कोई उदास रूह भटकती है... मेरा तो इसमें कोई यकीन नहीं है... पर वो कुछ कह रही थीं कि पहले भी वहां... पर इसके आगे बताते बताते रुक गयीं थी... पहले भी वहां क्या हुआ है... आपको कुछ पता है
मैंने कहा तो शंभू के चेहरे पर थोड़ा डर दिखाई दिया... फिर बोले... साहब, वो सही कह रही हैं... उधर से मत आया कीजिए...
चलिए नहीं आऊंगा... पर पहले भी वहां क्या हुआ है... मैंने पूछा तो शंभू मेरे करीब आए... और अपनी बड़ी बड़ी आंखे फैलाते हुए बोले... पहले भी वहां तीन लाशें मिल चुकी हैं... कटी फटी लाशें... जैसे किसी ने चबा डाला हो... चेहरा तक नहीं बचा था... वो उदास रूह बहुत खूंखार है... बस अब बाकी मत कहलवाइये... उधर से मत जाइयेगा बस...
देखिए जब आप को कोई ऐसी बात बताता है तो डर तो लगता है... आप चाहे जितने बड़े सूरमा हों। ये झूठ है कि मुझे डर नहीं लगता, सबको लगता है। मुझे भी लगा। लेकिन वो क्या है कि एक चीज़ होती है डर और दूसरी चीज़ होती है चुल... इंसान की ये जो चुल होती न.. ये ही उसे बड़ी बड़ी मुसीबतों में डाल देती है... चुल हमें भी थी...
उस दिन के बाद से कुछ दिन तो हमने उस रास्ते से गुज़रना छोड़ दिया ... पर ज़्यादा दिनों तक खुद को रोक नहीं पाए। एक शाम दफ्तर से लौटते वक्त... जब हल्का अंधेरा हो गया था। तो मैं उस चढ़ाई वाले रास्ते के पास से गुज़रा। मन में आया कि चलो आज चलते हैं इधर से... देखें ज़रा क्या होता है... बेवजह इतना लंबा घूम के जाता हूं। इधर से तो घर दस मिनट में पहुंच जाऊंगा।
हिम्मत जुटाई, गहरी सांस ली... और चल दिए उसी सुनसान रास्ते पर। ऊपर की तरफ। वहां पर मुझे किनारे पर एक बोर्ड दिखाई दिया। लिखा था – ये रास्ता सुरक्षित नहीं है। कृप्या अगले रास्ते से जाएं... मैंने ग़ौर किया तो वो कोई आधिकारिक बोर्ड नहीं था। लोकल्स ने लगा दिया था। मैंने भी सोचा कि ये लोकल्स तो है कहानियां बनाने में माहिर... चलो चलते हैं... मैंने उस बोर्ड को अनदेखा किया और पहाड़ी पर चढ़ने लगा।
शाम के धुंधलके में मेरे पैरों की आवाज़ दूर तक सुनाई दे रही थी। दूर तक घने पेड़ और हवा की सांय सांय... कुछ दूर उड़ते हुए जंगली परिंदों की कांय कांय की आवाज़... पहाड़ी पर उड़ते हुए बादल... मैं चलता रहा, आगे बढ़ता रहा। पर जैसे ही मैं कुछ ऊपर आया... मुझे कुछ दूर पर हल्की सी रौशनी दिखाई दी...
मैंने आंखे मिचमिचाकर देखा तो वहां पर चिराग की रौशनी थी और उस रौशनी में एक चेहरा था। एक लड़की का चेहरा... जो चट्टान के सबसे आखिरी सिरे पर सर झुकाए बैठी थी। बाल खुले हुए... कपड़े सफेद... चिराग की टिमटिमाती रौशनी में उसके बाल चमक रहे थे... घुटनों पर सर झुकाए बैठी थी। उसकी आंखें अंधेरे में चमक रही थी। मैं कांप गया। ओह तो ये है वो उदास रूह... जिसकी बात आंटी कर रही थीं। मेरी नज़रें उस उदास और शायद सिसक रही लड़की पर जमी हुई थी। ज़हन में तमाम आवाज़ें शोर कर रही थीं। शंभू की वो आवाज़ भी जिसमें उसने बताया था कि यहां से कई मुसाफिरों की कटी फटी लाशें मिली थीं।
याद करके मैं कांप तो गया था लेकिन फिर मैंने खुद को संभाला... मैंने सोचा कि छोटे-छोटे कस्बों में इस तरह की अफ़वाहें फैलना आम बात है। हो सकता है किसी ने शरारतन ये ख़बर उड़ा दी होगी। और लाशें जो मिलीं हो सकता है किसी जंगली जानवर ने हमला किया हो... वैसे भी किसी वक्त में यहां जंगली जानवर बहुत होते थे, पर जबसे पहाडियों में कंस्ट्रक्शन की वजह से जंगल काटे गए हैं अब तो वो जानवर भी नहीं बचे। इन दिलासों से खुद को समझाता हुआ मैं, हिम्मत जुटाकर उस लड़की की तरफ बढ़ने लगा।
मैं चलता चला जा रहा था और मेरी नज़र उस लड़की पर जमी हुई थी। वो मुझसे काफी दूर थी... सामने वाली पहाड़ी के एक सिरे पर... मैं इस तरफ था। वो शायद मुझे देख भी न पा रही हो। मैं आगे बढ़ने लगा। तेज़ कदमों से... लेकिन तभी एक आवाज़ से मैं चौंक गया।
सुनिये... मैंने नज़र घुमा कर देखा तो मेरे थोड़ा पीछे ढलान के किनारे रखे बड़े बड़े पत्थरों पर एक लड़का बैठा था। जो गौर से उस चिराग वाली लड़की को देख रहा था। उस लड़के को देखकर मुझे कुछ राहत हुई कि चलो मैं अकेला नहीं हूं।
जी... कहिए... मैंने कहा तो वो बोला...
आप इधर से क्यों जा रहे हैं। रास्ता तो आगे से है...
मैंने कहा, हां, है तो आगे से... लेकिन ये शार्ट कट है... आज कुछ जल्दी थी तो सोचा इधर से ही निकल जाऊं... वैसे एक बता बताइये... मैं उसके पास जाकर बोला, वो.. वो कौन है, आप जानते हैं क्या उसे? मैंने उस चिराग वाली लड़की की तरफ इशारा करते हुए पूछा। उस लड़के ने मेरी तरफ देखा तो मैंने नकली मुस्कुराकर अपना डर छुपाते हुए कहा.. कोई कह रहा था कि वो कोई रूह-वूह है.. सच है क्या?
- रूह... अरे नहीं... वो हंसा और उठकर मेरे करीब आते हुए बोला... नहीं नहीं, रूंब नहीं है कनक नाम है उसका... पास के सिंगरौला गांव में रहती है। मैंने रात की सांस ली।
- कनक... ओह... तो यहां...क्यों... बैठी है मैंने उस लड़की की तरफ देखते हुए पूछा, वो बोला
- उदास है बेचारी... जिससे प्यार करती थी वो शहर चला गया। वादा किया था कि खूब पैसा कमाकर लौटेगा और शादी करेगा।
- तो? नहीं आया क्या? मैंने पूछा तो उसने लड़की को उदासी से देखते हुए गहरी सांस ली और बोला... आया तो था... लेकिन... शायद दोनों की किस्मत में मिलना... लिखा नहीं था। उसने बताया कि जब कनक का प्रेमी शहर से गांव लौट रहा था तो वो उसी रास्ते से लौट रहा था... पर किस्मत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था। ठीक उसी वक्त जब वो उस रास्ते से आ रहा था तो एक चट्टान खिसकने लगी। ऊपर से पत्थर भरभरा के गिरने लगे। ये सब इसीलिए हुआ क्योंकि हाल ही में चट्टान को काटा गया था... पीछे की तरफ एक फोर स्टार होटल बनाने के लिए। पहाड़ी इलाके में हुए कंसट्रक्शन की वजह से ज़मीन भसकने लगी थी और इत्तिफाक से जब कनक का प्रेमी वहां से गुज़र रहा था तो इत्तिफाक से उसी वक्त चट्टान खिसक गयी। बड़े बड़े पत्थरों का मलबा पहाड़ी से लुढ़क कर रास्ते पर गिरा और वो उसी वक्त मलबे में दब गया। तब से लेकर आजतक... कनक हर हफ्ते इसी हादसे वाली जगह पर आती है और घंटो बैठकर रोती रहती है।
- ओह... मैंने गहरी सांस ली... दर्दनाक कहानी सुनकर मेरी आंखें भीग गई थी। कितनी बदनसीब थी बेचारी कनक। मुझे मकान मालकिन आंटी की बात याद करके गुस्सा भी आने लगा... ये गांव वाले भी क्या-क्या अफवाहें उड़ा देते हैं।
- ख़ैर... मैंने उस लड़के से कहा वाकई... बहुत बुरा हुआ बेचारी के साथ। अच्छा... वैसे वो.. वो लड़का कौन था जिसकी उस बस हादसे में मौत हो गई... मेरी नज़री कुछ दूर बैठी कनक पर थी। मैंने सवाल पूछा औऱ कनक की तरफ देखता रहा... पर कोई जवाब नहीं आया... तो मैंने पलटकर लड़के की तरफ सर किया। तो मैं चौंक गया। वो बिलकुल मेरे करीब खड़ा था। बोला, मैं... उसके चेहरे पर खतरनाक मुस्कुराहट थी। बोला, मैं था वो लड़का... अचानक उसकी आंखें लाल हो गयीं... और पुतलियां सफेद... उसने मुंह खोला तो किनारे के दो दांत नुकीले थे। वो मुझ पर झपटा... तो मैं घबराकर पीछे हुआ और गिर पड़ा। उसने मेर पैर पकड़ लिया। मेरी नज़र पहाड़ी के दूसरी तरफ बैठी कनक पर गयी। वो बिल्कुल शांत तरीके से इस तरफ देख रही थी... जैसे वो अक्सर ये देखती हो। मेरे पैरों में उस लड़के ने दांत गड़ा दिये... पर मैं किसी तरह उसे झटका छूट निकला और तेज़ रफ्तार भागने लगा। बदहवास... तेज़ और तेज़... मैंने पलट कर देखा तो वो उदास और खूंखार रूंह दूर खड़ी मुझे देख रही थी।
मैं भागा और भागते हुए सीधे अपने घर पहुंचा...धड़कने तेज़ थी.. इतनी तेज़ मैं ज़िंदगी में कभी नहीं भागा था। सीना फटने को था। मेरे पैर के ज़ख्म से खून रिस रहा था। मैंने पैंट ऊपर की... तो पैर पर दो दांत बने थे जिसने खून बह रहा था। उस दिन मुझे याद आ रही थी आंटी की वो नसीहट... उधर से मत जाना उधर एक उदास रूह भटकती है।
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जमशेद क़मर सिद्दीक़ी