कहानी - मामूजान घर पे हैं?
मज़मून - हॉस्टल में पढ़ना
पतरस बुखारी
जब हमने कॉलेज में दाखिले के लिए इंटरेन्स इम्तिहान पास किया तो लोकल स्कूल के हेड मास्टर साहब ख़ास तौर से मुबारकबाद देने के लिए घर आये। क़रीबी रिश्तेदारों ने दावतें दीं। मोहल्ले वालों में मिठाई बांटी गयी और हमारे घर वालों को अचानक एहसास हुआ कि वह लड़का जिसे आज तक अपनी तंग नज़री की वजह से बेकार और नालाएक़ समझ रहे थे। दरअस्ल वो बेशुमार क़ाबलियतों का मालिक है। लिहाज़ा हमारी आने वाली ज़िंदगी कि के बारे में ग़ौर किया जाने लगा। (बाकी की कहानी नीचे पढ़ें या इसी कहानी को ऑडियो में सुनने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें)
इसी कहानी को SPOTIFY पर जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से सुनने के लिए यहां क्लिक करें
इसी कहानी को APPLE PODCAST पर जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से सुनने के लिए यहां क्लिक करें
(बाकी की कहानी यहां से पढ़ें) थर्ड डिवीज़न में पास होने की वजह से यूनीवर्सिटी ने हमको स्कॉलरशिप देना मुनासिब नहीं समझा। और वैसे भी चूँकि हमारे ख़ानदान ने खुदा के फज़ल से आज तक कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया इसलिए वज़ीफ़े का न मिलना मेरे लिए एक तरह के फख़्र की वजह बन गया। हमारे ख़ानदान में फ़ालतू रूपये की बोहतात थी, इसलिए ये फैसला भी कर लिया गया कि न सिर्फ़ हमारी बल्कि मुल्क-ओ-क़ौम और शायद इन्सानियत की बेहतरी के लिए ये ज़रूरी है कि ऐसे होनहार बच्चे की तालीम जारी रख्खी जाये।
इस बारे में हमसे भी मश्वरा लिया गया। उम्र भर में इससे पहले हमारे किसी मामले में हमसे राय नहीं पूछी गयी थी। लेकिन अब बात अलग थी। थर्ड डिविज़न में पास हुए तो क्या... हुए तो। पास हुए इसका मतलब यूनीवर्सिटी हमारी काबिलियत का लोहा मान गयी थी। तो जब हमसे राय पूछी गयी तो हमने काफी सोच कर ये मश्विरा दिया कि फ़ौरन से पहले हमें विदेश भेज दिया जाये। लेकिन हमारी ये राय फौरन रद कर दी गयी। क्योंकि दूर दूर तक किसी का लड़का अभी तक विलायत न गया था। इसके बाद फिर हम से राय नहीं पूछी गयी। इसके बाद हमारे वालिद, हमारे हेड-मास्टर साहब, और तहसीलदार साहब तीनों ने मिल कर ये फैसला किया कि हमें लाहौर भेज दिया जाये।
जब हमने यह खबर सुनी तो शुरू शुरू में हमें सख़्त मायूसी हुई, लेकिन फिर कुछ लोगों ने कहा कि लंदन और लाहौर में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं। कुछ दोस्तों ने लाहौर में सिनेमा के हालात पर रोशनी डाली। कुछ ने थियेटरों के बारे में बताया.. लिहाज़ा जब लाहौर की जियोग्राफी पूरी तरह हमारे ज़ेहन में बन गयी तो साबित ये हुआ कि ... कि पढ़ाई करने के लिए अच्छी जगह है।
इसके बाद हमने अपनी ज़िंदगी का प्रोग्राम बनाना करना शुरू कर दिया। जिसमें पढ़ाई लिखाई को भी जगह तो जरूर दी गयी लेकिन एक मुनासिब हद तक, ताकि तबीअ’त पर कोई बेकार का बोझ न पड़े। लेकिन तहसीलदार साहब और हेड-मास्टर साहब की नेक नियती बस यहीं तक रही। क्योंकि अगर वह सिर्फ़ ये देते कि लड़के को लाहौर भेज दिया जाये तो अच्छा था..., लेकिन उन्होंने तो डीटेल में में दख़ल देना शुरु कर दिया और हमारे वालिद साहब से ये कह दिया कि लड़के को हॉस्टल में मत डालियेगा। क्योंकि - घर पाकीज़गी का एक का’बा है और हॉस्टल गुनाह की एक दोज़ख़ है। उनकी ग़लत बयानियों से घर वालों को यक़ीन सा हो गया कि कॉलेज का हॉस्टल जुर्म करने वालों की एक बस्ती होती है और अगर लाहौर के हॉस्टल जाने वाले बच्चों पर से नज़र चूक जाए तो वह अक्सर शराब के नशे में चूर सड़क के किनारे गिरे हुए पाये जाते हैं या किसी जुए ख़ाने में हज़ार रुपये हार कर खुदकुशी कर लेते हैं या फिर फस्ट-इयर का इम्तिहान पास करने से पहले दस बारह शादियाँ कर बैठते हैं।
अब घर वालों ने तय कर लिया कि लड़के को कॉलेज में तो दाख़िल कराया जाये लेकिन हॉस्टल से दूर रखा जाए। कॉलेज ज़रूर, मगर हॉस्टल हरगिज़ नहीं। चुनान्चे लाहौर में हमारे एक दूर के मामू ढूंढे गए और उनको हमारा सर-परस्त यानि गार्जियन बना दिया गया। मेरे मन में उनके लिए अदब पैदा करने के लिए बहुत से खानदानी शिजरों के ज़रिए ये साबित किया गया कि वह वाक़ई मेरे मामूँ हैं। मुझे बताया गया कि वह कि जब मैं टॉफी खाने वाला बच्चा था तो वो मुझसे बे-इंतहा मुहब्बत किया करते थे, इसलिए फैसला हुआ कि हम पढ़ेंगे कॉलेज में और रहेंगे मामूँ के घर।
ये सुनकर एक हमारा सारा जोश ठंडा हो गया। सोचा यह मामूँ लोग अपनी सर-परस्ती में मां-बाप से भी ज़्यादा नज़र रखेंगे, जिसका नतीजा यह होगा कि हमारे दिमाग़ी और रूहानी शख्सियत को फलने फूलने का मौक़ा ही नहीं मिलेगा और तालीम का अस्ली मक़सद ही खत्म हो जाएगा। ये सोच-सोच कर हम रोज़ बरोज़ मुर्झाते चले गये और हमारे दिमाग़ पर फफूँद सी जमने लगी। पर करते तो क्या... फैसला तो हो गया था। तो इस तरह हम पहुंच गए लाहौर... अपने मामू के यहां। वहां वही हुआ जिसका डर था। हमारी ज़िंदगी के सारे बड़े फैसले जैसे कौन दोस्त घर आएगा और कौन नहीं आएगा इसका इंतख़ाब मामूँ के हाथ में था। कोट कितना लम्बा पहना जाये और बाल कितने लम्बे रखे जायें, उनके बारे में हिदायात बहुत कड़ी थीं। हफ्ते में दो बार घर ख़त लिखना ज़रूरी था। सिगरेट ग़ुस्ल-ख़ाने में छुप कर पीते थे। गाने-बजाना सख़्त मना था।
पर ये सिपाहियों जैसी ज़िंदगी हमें रास नहीं आयी। यूँ तो दोस्ती-यारी भी हो जाती थी। सैर को भी चले जाते थे। हंस बोल भी लेते थे लेकिन वह जो ज़िंदगी में एक आज़ादी, एक खुलापन होना चाहिए वह हमें नसीब नहीं हो रही थी। पर हमने इसकी काट निकाली, ये गौर किया कि मामूँ जान किस वक़्त घर में होते हैं, किस वक़्त बाहर जाते हैं, किस कमरे में से किस कमरे तक गाने की आवाज़ नहीं पहुँच सकती, किस दरवाज़े से कमरे के किस कोने में झांकना न मुमकिन, घर का कौन सा दरवाज़ा रात के वक़्त बाहर खोला जा सकता है, कौन सा नौकर पटाया जा सकता है और कौन सा नमक हलाल है।
इससे कुछ राहत तो मिली लेकिन हॉस्टल में रहने वालों को जब मैं देखता था तो बड़ी जलन होती थी उनकी आज़ाद ज़िंदगी देखकर। इसलिए जब गर्मियों में जब मैं अपने वतन वापस आया तो मैंने कई दलीलें अपने ज़हन में तैयार रखी थीं। मैंने उनको हॉस्टल में रहने के फायदों के बारे में बताया कि कैसे हॉस्टल में रहने से इंसान ज़िम्मादार बनता है, उसके दोस्त बढ़ते हैं, और वहां तो पूरे दिन पढ़ाई लिखाई की ही बात होती है। बल्कि हमनें तो ये तक कह दिया कि जो शख़्स हॉस्टल की ज़िंदगी से महरूम हो, उसकी शख़्सियत अधूरी रह जाती है। जब हम डेढ़ महीने तक लगातार शख़्सियत और ‘हॉस्टल की ज़िंदगी पर उसका असर’ इस टॉपिक पर अपने ख़यालात ज़ाहिर करते रहे तो एक दिन वालिद साहब ने पूछा,
“तुम्हारा शख़्सियत से आखिर मतलब क्या है? क्या होती है शख्सियत”
मुझे लगा बात बन रही है, कहा, “देखिए न! मान लीजिए एक स्टूडेंट है। वह कॉलेज में पढ़ता है। अब एक तो उसका दिमाग़ है। एक उसका जिस्म है। जिस्म की सेहत भी ज़रूरी है और दिमाग़ की सहत तो जरूरी है ही, लेकिन उनके अलावा वह एक और बात भी होती है जिससे आदमी असल में पहचाना जाता है। मैं उसको शख़्सियत कहता हूँ। उसका तअ’ल्लुक़ न जिस्म से होता है न दिमाग़ से। हो सकता है कि एक आदमी की जिस्मानी सेहत बिल्कुल ख़राब हो लेकिन फिर भी उसकी शख़्सियत... न खैर दिमाग़ तो बेकार नहीं होना चाहिए, वर्ना इन्सान पागल कहलाता है। लेकिन फिर भी अगर हो भी, तो भी... जैसे शख़्सियत एक ऐसी चीज़ है... ठहरिए, मैं अभी एक मिनट में आप को बताता हूँ।”
एक मिनट के बजाए वालिद ने मुझे आधे घंटे की मोहलत दी जिसके दौरान वह खामोशी के साथ मेरे जवाब का इंतज़ार करते रहे। उसके बाद वहाँ से उठ कर चला आया।
तीन चार दिन बाद मुझे अपनी ग़लती का एहसास हुआ। मुझे शख्सियत नहीं सीरत कहना चाहिए था। शख़्सियत तो एक बे-रंग सा लफ़्ज़ है। सीरत के लफ़्ज़ से नेकी टपकती है। लिहाज़ा मैंने सीरत को अपना तक्य-ए-कलाम बना लिया लेकिन इससे भी कोई खास फायदा हुआ नहीं, क्योंकि एक दिन वालिद साहब कहने लगे, “क्या सीरत से तुम्हारा मतलब चाल-चलन है या कुछ और?”
मैंने कहा, “कि चाल चलन ही कह-लीजिए।”
“हम्म... तो मतलब दिमाग़ी और जिस्मानी सहत के अलावा चाल चलन भी अच्छा होना चाहिए?”
मैंने कहा, “बस.. बस.. अब्बा... बस .. अब आप समझे... यही तो मेरा मतलब है।”
“और यह चाल-चलन हॉस्टल में रहने से बहुत अच्छा हो जाता है?”
“जी हाँ।”
“या’नी हॉस्टल में रहने वाले स्टूडेंट नमाज़-रोज़े के ज़्यादा पाबंद होते हैं। मुल्क की ज़्यादा खिदमत करते हैं। सच ज़्यादा बोलते हैं। नेक ज़्यादा होते हैं। ये कह रहे हो”
“जी हाँ, बिल्कुल यही कह रहा हूं ”
मुझे लगा था बात बन रही है पर वो बोले, “लेकिन क्यूँ?”
मैंने जवाब दिया... पर बात बनते बनते रह गयी। और उस के बाद फिर साल भर मैं मामूँ के घर में “ज़िंदगी है तो ख़ज़ाँ के भी गुज़र जाएँगे दिन” गाता रहा।
तो हर साल अब्बा के सामने हॉस्टल वाली मेरी दरख़्वास्त का यही हश्र होता रहा। लेकिन मैंने भी हिम्मत नहीं हारी। हर साल नाकामी का मुंह देखना पड़ता था लेकिन अगले साल गर्मियों की छुट्टी में पहले से भी ज़्यादा तैयारी के साथ घर आता था। हर दफ़ा नयी नयी दलीलें पेश करता, नयी नयी मिसालें काम में लाता। जब शख़्सियत और सीरत वाले मज़मून से काम न चला तो अगले साल यह दलील पेश की कि हॉस्टल में रहने से प्रोफ़ेसरों के साथ मिलने-जुलने के मौक़े ज़्यादा मिलते रहते हैं, उससे इंसान पारस हो जाता है। बात नहीं बनी, अगले साल ये कहा कि हॉस्टल की आब-ओ-हवा बहुत अच्छी होती है, सफ़ाई का ख़ास तौर से ख़याल रखा जाता है। मख्खियाँ और मच्छर मारने के लिए कई कई अफ़्सर मुक़र्रर हैं। उससे अगले साल यूँ सुख़न पैरा हुआ कि जब बड़े बड़े अफसर कॉलेज का मुआ’इना करने आते हैं तो हॉस्टल में रहने वाले स्टूडेंट से अक्सर हाथ मिलाते हैं। इससे रुसूख़ बढ़ता है, लेकिन बात न बननी थी, नहीं बनी। लेकिन उनके इस सुलूक से आप यह अंदाज़ा ना लगाइये कि मेरे लिए उनकी मुहब्बत कुछ कम हो गयी थी। हरगिज़ नहीं। बात असल में ये है कि एक हादसे की वजह से घर में मेरा रसूख कम हो गया था। हादसा ये नहीं था कि बी.ए. के इम्तिहान में फेल हो गया था। बल्कि ये था अगले साल फिर फेल हो गया। बल्कि उसके बाद भी जब तीन चार दफ़ा यही क़िस्सा हुआ तो घर वालों ने मेरी उमंगों में दिलचस्पी लेनी छोड़ दी। बी.ए. में साल दर साल फ़ेल होने की वजह से मेरी गुफ़्तगू में पहले जैसी शौकत और मेरी राय में वह पहले जैसी बात अब न रही थी।
आप लोग सोच रहे होंगे कि मेरे जैसा इतना ज़हीन आदमी मैं बी.ए. में फेल कैसे हो गया... समझ रहा हूं मैं आप लोगों की हैरानी... यकीन नहीं कर पा रहे होंगे... आप लोग... मैं समझा देता हूं। असल में बात ये हुई कि जब हम ने एफ़.ए. का इम्तिहान दिया और चूँकि हमने काम बहुत दिल लगा कर दिया था तो इसमें थोड़े से पास हो गए... थोड़े से पास होने का मतलब है कि बस फेल होते होते बचे। पर फ़ेल न हुए। यूनीवर्सिटी ने यूँ तो हमारा ज़िक्र बड़े अच्छे अलफ़ाज़ में किया लेकिन ये भी रिकवेस्ट की... कि ये इम्तिहान एक आध दफ़ा फिर दे डालो। इस प्रोसेस को उन्होंने प्यार में कम्पार्टमेंट का नाम दिया था।
कम्पार्टमेंट के इम्तिहान में मैं तो पास हो गया, लेकिन बी.ए. में एक तो अंग्रेज़ी मं फ़ेल हुआ। ख़ैर वह तो होना ही था, क्योंकि अंग्रेज़ी हमारी मादरी ज़बान तो है नहीं। इसके अलावा हिस्ट्री और फ़ारसी में भी फ़ेल हो गया। बाकी सब तो ख़ैर कुछ नहीं, लेकिन फ़ारसी में किसी ऐसे शख़्स का फ़ेल होना जो एक पढ़े लिखे ख़ानदान से तअ’ल्लुक़ रखता हो, लोगों के लिए हैरत अंगेज़ बात थी। सच पुछिए तो हमें भी कुछ शर्मिंदगी हुई लेकिन फिर ख़ैर... ये शर्मिंदगी अगले साल धुल गयी... क्योंकि उस साल हम फारसी में पास हो गए। और उसके अगले साल अंग्रेज़ी में।
अब कायदे से देखिए तो हमें बी.ए. का सर्टिफ़िकेट मिल जाना चाहिए था, लेकिन यूनीवर्सिटी की इस बेवकूफाना ज़िद का क्या कीजिए कि साहब तीनों सब्जेक्ट में एक ही वक्त पास होना ज़रूरी है।
(पूरी कहानी सुनने के लिए ऊपर दिए गए लिंक पर क्लिक करें या फिर SPOTIFY, APPLE PODCAST, GOOGLE PODCAST, JIO-SAAVN, WYNK MUSIC में से जो भी आप के फोन में हो, उसमें सर्च करें STORYBOX WITH JAMSHED )
जमशेद क़मर सिद्दीक़ी