कहानी - मैं एक पति हूं
पतरस बुख़ारी
मैं एक पति हूँ। नेक और फ़रमां-बरदार। अपनी बीवी रौशन आरा को अपनी ज़िंदगी की हर एक बात से आगाह रखना ज़िंदगी का उसूल समझता हूं, यानि मैं उससे कुछ नहीं छुपाता। और हमेशा से इस पर पक्का रहा हूँ। मेरी बीवी रौशन आरा मेरे दोस्तों की तमाम हरकतों को अच्छी तरह जानती है और इसीलिए मेरे दोस्त जितने मुझ को पसंद हैं उतने ही रौशन आरा को बुरे लगते हैं। मेरे यार-दोस्तों की जिन अदाओं ने मुझे मुतास्सिर कर रखा है उन्हें मेरी अहलिया कहती है कि वो आदतें एक शरीफ़ इंसान के लिए ज़िल्लत की वजह होनी चाहिए।
इसी कहानी को ऑडियो में APPLE PODCAST या SPOTIFY पर यहां सुनिए
आप कहीं ये न समझ लें कि ख़ुदा-नख़्वास्ता वो कोई ऐसे आदमी हैं जिनका ज़िक्र किसी शरीफों फहफ़िल नहीं किया जा सकता। कुछ अपने हुनर के चलते और कुछ मेरी सोहबत की बदौलत सब के सब ही सफेदपोश हैं। लेकिन इस बात का क्या करूँ कि उनकी दोस्ती मेरे घर के अमन चैन में इस क़दर ख़लल डालती है कि क्या बताऊं।
मसलन मिर्ज़ा साहब ही को लीजिए। अच्छे ख़ासे और भले आदमी हैं। फॉरेस्ट ड़िपार्टमेंट में एक बड़े ओहदे पर हैं और शक्ल सूरत माशाल्लाह ऐसी पाकीज़ा पाई है कि लगता है अभी मस्जिद में इमाम की जगह खड़े होकर नमाज़ पढ़ाने लगेंगे।
जुवा वह नहीं खेलते, गिल्ली-डंडे का उनको शौक़ नहीं, जेब कतरते हुए कभी वो नहीं पकड़े गये। हां कबूतर पाल रखे हैं। और उन्हीं से जी बहलाते हैं... अब ये तो कोई बुरी बात नहीं है। छत पर खड़े होकर चिल्लाना ही तो होता.. आओ..... अप अप ओए... अप अप ओए... अब मोहल्ले की औरतों को और कोई वक्त नहीं मिलता क्या कपड़े सूखाने के लिए अलगनी पर डालने के लिए। ये क्यों कहा जाए कि मिर्ज़ा उन्हें देख कर और ज़ोर से चिल्लाने लगते हैं – ओए... आ जाओ... ओए... ओए... सब बेकार की झूठी बातें हैं।
अच्छा हमारी बीवी रौशन आरा कुछ इस नाज़ुक मिज़ाज की हैं कि मुहल्ले का कोई बदमाश भी जुए में पकड़ लिया जाए, और पुलिस उसका कॉलर घसीटते हुए थाने में ले जाए तो ये शाम को उस जुआरी की माँ के पास मातम-पुर्सी के लिए चली जाती हैं। अऱे बहन, खुदा पर यकीन रखो... सब ठीक होगा... रो मत... लो बिस्कुट खाओ... उनका दिल इतना नाज़ुक है कि कोई जेब-कतरा पकड़ा जाये और पब्लिक मिलकर उसकी कुटाई कर दे... तो उसे देख कर ये आंसू बाहती है। इतना नाज़ुक दिल है...मगर... दूसरे लोगों के लिए... ये नाज़ुक दिल मेरे दोस्तों के लिए सख्त बन जाता है। पत्थर की तरह। मिर्ज़ा साहब मेरे दोस्त, वही कबूतर वाले... जिनको जिनको शहर भर मिर्ज़ा साहब, मिर्ज़ा साहब कहता रहता है, हमारे घर में कबूतर -बाज़ के नाम से याद किए जाते हैं।
अरे कहां चले, मैं सब समझ रही हूं... उसी कबूतर बाज़ के पास जा रहे होगे... हंसी ठिठोली करने... हैं। उम्र हो गयी है, लेकिन ये लफंदर बाज़ी बंद हो रही... और तुम न करने लगना कबूतर बाज़ी की छिछोरों की तरह दूसरी छत पर खड़ी औरतों के देख कर ओए ओए चिल्लाने लगे...
- अरे क्या बात कर रही हो. भई, दफ्तर से लौटा हूं... थोड़ा दो पल दोस्तों की खैर खैरियत लेकर आता हूं... मैं कौन सा कबूतर
- वाह भई, सुबह शाम दोनों टाइम ख़ैरियत ली जा रही है, जैसे दोस्त न हुए कोई बुज़ुर्गाने दीन हो गए।.. .
रौशन आरा को पता नहीं क्यों ये लगता है कि मैं भी मिर्ज़ा साहब की तरह कबूतर लड़ाने का शौकीन होता जा रहा हूं, जबकि खुदा कसम ऐसा नहीं है। मैं कभी भूले से भी में आसमान की तरफ़ नज़र उठा कर किसी चील, कव्वे, गिद्ध को देख भी लूं तो रौशन आरा को मुझे शक से देखने लगती है कि देखो... देखो... ये देख रहे हैं... ये .. ये कबूतर-बाज़ बन जाएंगे
औऱ बस यहीं से मिर्ज़ा का ज़िक्र शुरु हो जाता हैं। हां बन जाओ उसी लफंगे मिर्ज़ा की तरह कबूतर बाज़, वो शोहदा, छिछोरा आदमी, उसकी तो नज़र से कोफ्त होती है मुझे,अल्ला वाला बनता है बहुत... सब पता है... बद-नज़र कहीं है...
आपके भी ऐसे दो चार दोस्त ज़रूर होंगे, जिनके नाम से भी आपकी बीवी हत्थे से उखड़ जाती होंगी। बस समझ लीजिए मिर्ज़ा मेरे वही दोस्त थे। तो ख़ैर एक दिन हुआ यूं कि मैंने पक्का इरादा कर लिया कि जब बखेड़ा सारा मिर्ज़ा के नाम से है तो चलो दूरी बना लेते हैं, ऐसे कौन से हीरे लगे हैं मिर्ज़ा में। अहद कर लिया कि अब नई मिलूंगा। कभी पास भी नहीं फटकने दूँगा। आख़िर घर सब से इमपॉरटेंट है। मियाँ-बीवी के आपसी रिश्ते खुलूस के मुक़ाबले दोस्तों की ख़ुशनूदी क्या चीज़ है? लिहाज़ा हम ग़ुस्से में भरे हुए मिर्ज़ा साहब के घर गये। दरवाज़ा खटखटाया। कहने लगे, “आ.. कौन... ओह तुम... अंदर आ जाओ।” हम ने कहा, “नहीं आएंगे। तुम बाहर आओ।”
मिर्ज़ा थोड़ा घबराए... खैर मैं अंदर चला गया। देखा कि बदन पर तेल मले एक कबूतर की चोंच मुँह में लिए धूप में बैठे थे। कहने लगे, “बैठ जाओ।” हम ने कहा, “बैठेंगे नहीं।” लेकिन फिर बैठ ही गये। शायद भांप गए थे कि हमारे तेवर कुछ बिगड़े हुए थे। बोले, “क्यूँ भई! सब ख़ैरियत। इस वक़्त कैसे आना हुआ?” अब मेरे दिल में फ़िक़रे खौलने शुरू हुए। पहले इरादा किया कि एक दम ही सब कुछ कह डालो और चल दो। फिर सोचा कि मज़ाक़ समझेगा, इसलिए ढंग से बात शुरू करो लेकिन समझ में नहीं आया कि पहले क्या कहें। आख़िर हम ने कहा, “मिर्ज़ा! भई कबूतर बहुत महंगे होते हैं?” ये सुनते ही मिर्ज़ा साहिब ने चीन से लेकर अमरीका तक के तमाम कबूतरों को एक-एक कर के गिनवाना शुरू किया। इसके बाद दाने की महंगाई के बारे में बोलते रहे और फिर सिर्फ महंगाई पर तक़रीर करने लगे। हम बीच बीच में उन्हें रोकने की कोशिश करता था पर हो नहीं पाता था.. आखिर दांत काटी पुरानी दोस्ती थी, ये कह पाना कि अब से हम बात नहीं करेंगे... कोई आसान बात तो थी नहीं। वो बोलते रहे हम हां, हम्म करते रहे और यूँ ही चले आये लेकिन दिल में इरादा बाक़ी था। ख़ुदा का करना क्या हुआ कि शाम को घर में बीवी से हमारी सुलह हो गई। हम ने कहा, “चलो अब मिर्ज़ा के साथ बिगाड़ने की क्या ज़रूरत है? अच्छा हुआ जो मिर्ज़ा से कोई ऐसी वैसी बात नहीं कही।
सब ठीक था लेकिन मेरी ज़िंदगी में कांटे बोने के लिए एक न एक दोस्त हमेशा मौजूद होता है। तो हुआ यूं कि शादी से पहले हम कभी-कभी दस बजे उठा करते थे वर्ना ग्यारह बजे। अब कितने बजे उठते हैं? इसका अंदाज़ा वही लोग लगा सकते हैं जिन के घर नाश्ता ज़बरदस्ती सुबह के सात बजे करा दिया जाता है और अगर कभी सात बजे के बाद पांच मिनट भी हो जाए तो दस ताने सुनने पड़ते हैं
फ़ौरन कह दिया जाता। ये देखिए... अब सुबह हो रही है... रात रात दोस्तों के साथ अय्य़ाशी की जाती है., ये सब उस निखट्टू नसीम की वजह से... देर रात तक खंबे के नीचे खड़े क्या बाते करते रहते हो। अल्लाह मेरे शौहर की सोहबत ठीक कर दे बस – ये बात नसीम पर आ गयी। एक दिन सुबह-सुबह हम नहा रहे थे। सर्दी का मौसम, हाथ पांव काँप रहे थे। साबुन सर पर मलते थे तो नाक में घुसता था कि इतने में हमने ख़ुदा जाने किस असर में गाना शुरु कर दिया। मैं बालटी बजाते हुए गुनगुना रहा था। आवाज़ गुसलखाने से बाहर जा रही थी।
- हां और नाचने लगो नहाते नहाते... सिवाए बदतमीज़ी के कुछ अच्छी बात न सीखना... ये ज़रूर उस पंडित ने सिखाया होगा... लीजिए हमारे दोस्त पंडित पर आ गयी बात। मेरी बेगम ने ये तय कर लिया है कि मेरे अंदर जितनी भी बदकारियां हैं, बुराइयां हैं, ज़लालत है, बदतमीज़ियां हैं, कमीनगी है वो सब मेरे दोस्तों से आई वरना मैं तो दुनिया का सबसे शरीफ आदमी हूं। और मज़े की बात ये है कि हर दोस्त की बीवी अपने शौहर के बारे में यही सोचती है।
लेकिन हाल ही में कुछ ऐसा हुआ मैंने सब दोस्तों से रिश्ता तोड़ लेने की क़सम खा ली।
तीन चार दिन पहले का ज़िक्र है। सुबह के वक़्त रौशन आरा ने मुझे बताया कि आज वो मायके जाना चाहती हैं। मेरी खुशी की इंतिहा नहीं थी। खुशी मारे गाल लाल हो गये लेकिन मैंने खुशी छुपाई। और बेवजह उबासी लेते हुए कहा, हां अब जाना चाहती ही हो तो फिर चली जाओ... कर लेंगे मैनेज। क्या है... वैसे मुश्किल तो होगी... मगर अब क्या जा सकता है आखिर घर है, दिल करता होगा मायके के लोगों से मिलने का.. तो जाओ फिर... अब क्या बताएं... बोलीं, “तो फिर मैं डेढ़ बजे की गाड़ी से चली जाऊं।” मैंने फिर झूठी सुस्ती से कहा, “डेढ़ बजे, हम्म.... चलो अब इरादा कर ही लिया है तो... जाओ... मगर अब थोड़ा देर से जाती तो ... मगर अब जब इरादा कर लिया है तो क्या डेढ़ बजे क्या ढाई बजे... जाओ?”
वह झट तैयारी में मशग़ूल हो गयी और मेरे दिमाग़ में आज़ादी के ख़्यालात ने चक्कर लगाने शुरू किए। यानी अब बेशक दोस्त आयें, बेशक उधम मचाएं, ये सोफे पर पैर उल्टे कर के लेटे हैं, ये नसीम फर्श पर लोट रहा है, उधर पंडित रसोई में चाय बना रहा है, इधर मिर्ज़ा पत्ते मिला रहा है... चाय पीकर कर सोफे के नीचे खिसका दो... सिगरेट कप में ही बची हुई चाय में बुझा दो... चप्पल पैर से उतारते हुए यूं उछाल कर फेकों की कई दफा घूम कर गिरे... जब चाहे सो कर उठो...चाहे नहाओ.. या न नहाओ.. जब चाहूँ। मन किया तो पिक्चर देखने चले गए। दुनिया अचानक से खूबसूरत हो गयी। मैंने चीख कर रहा
“रौशन आरा जल्दी करो। नहीं तो गाड़ी छूट जाएगी।”
पूरी कहानी सुनने के लिए ऊपर दिए गए लिंक पर क्लिक करें या फिर SPOTIFY, APPLE PODCAST, GOOGLE PODCAST, JIO-SAAVN, WYNK MUSIC में से जो भी आप के फोन में हो, उसमें सर्च करें STORYBOX WITH JAMSHED
जमशेद क़मर सिद्दीक़ी