कहानी | दो अजनबी, एक सिगरेट | समरेश बसु | स्टोरीबॉक्स विद जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

शहर में दंगा फैला था, मारकाट मची हुई थी। चौराहे के किनारे एक बड़े से कूड़ेदान में दो अजनबी जान बचाने के लिए छुपे हुए थे। तभी एक ने दूसरे से पूछा "तुम हिंदू हो या मुसलमान" दूसरा कुछ बोलने वाला था पर रुक गया। बोला 'पहले तुम बताओ'...दोनों खामोश हो गए। फिर एक ने पूछा, "सिगरेट पियोगे" - सुनिए समरेश बसु की कहानी स्टोरीबॉक्स में

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जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

  • नोएडा ,
  • 17 सितंबर 2023,
  • अपडेटेड 4:21 PM IST

कहानी - दो अजनबी, एक सिगरेट 
ओरिजिनल टाइटल - आदाब
लेखक - समरेश बसु  

 

कांपती ख़ामोश रात। दूर तक गहरा सन्नाटा। तभी एक फ़ौजी गाड़ी शोर मचाती हुई आयी और इस कंपकंपी को और भी बढ़ा गयी। गाड़ी ने विक्टोरिया पार्क के चारों तरफ सायरन के शोर के साथ चक्कर लगाया और गुज़र गयी। शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था। हिन्दू और मुसलमानों के बीच दंगा हुआ था। आमने-सामने छिड़ी इस लड़ाई में तलवार, बंदूक, भाला सब का खुलकर इस्तेमाल हुआ था। मज़हब के चश्में लगाए इंसान एक अपने ही लोगों के खून का प्यासा हो गया था। इसी में चोर उचक्के और लुटेरे भी मौके की टोह में बैठे थे। मार-काट और मौत के आतंक में डूबी इस अँधेरी गूँगी रात ने उनके हौसले और इरादे को और भी बढ़ा दिया था।  सड़क के एक तरफ के इलाके में जहां घनी बस्ती थी वहां मौत के डर से औरतों और बच्चों के चीखने की आवाज़ कुछ कुछ देर में गूंज जाती थी। वो माहौल बहुत ही डरावना था। और ऊपर से फ़ौजी गाडियों की आवाजाही। लॉ एंड ऑर्डर बनाये रखने के लिए सैनिकों ने भी अन्धा-धुन्ध गोलीबारी की थी। (बाकी की कहानी नीचे पढ़ें। या ऑडियो में सुनने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें)

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(बाकी की कहानी यहां से पढ़ें) एक जगह थी, कुछ कुछ चौराहे जैसी, जहां पर दो तरफ से दो गलियों आकर एक जगह पर मिलती थीं। उसी जगह के किनारे पर एक बड़ा सा ड्रम जैसा कूड़ेदान रखा था। जिसमें कुछ पत्तियां, कुछ खाली पैकेट और ऐसा कुछ सामान था। कूड़ेदान वाली सड़क खामोश थी... कि तभी घुटने के बल चलता हुआ एक आदमी तेजी से गली के अन्दर से निकला और उसकी आड़ में छुप गया। फिर सिर उठाकर ऊपर या इधर-उधर देखने की हिम्मत उसे नहीं हुई। वह कुछ देर तक मुर्दे की तरह वहीं पड़ा रहा और चौकन्ना होकर दूर से आती हुई आहट को सुनने की कोशिश करता रहा। वो दूर से आते नारों की आवाज़ सुनने की कोशिश कर रहा था... ये मुसलमानों का नारा है या हिंदुओं का... उसने ग़ौर से सुनने की कोशिश की... पर कुछ समझ नहीं आया। 
अचानक कूड़ेदान में थोड़ी-सी हरकत हुई। वो घबरा गया, जिस्म की एक-एक रग झनझना उठी। जबड़े भींच गये और वो तैयार हो गया कि अगर किसी ने उस पर हमला किया तो वो भी उस पर कूद पड़ेगा चाहे फिर जो हो... वो चौकन्ना था... कूड़ेदान के अंदर हरकत हो रही थी... उसने कूड़ेदान को थोड़ा सा खिसकाया और झांक कर देखा... फिर गहरी सांस ली... वहां अंदर कुत्ता था। 
ये तो सही जगह छुपने की... किसी को पता नहीं चलेगा
बुदबुदाते हुए उसने कुत्ते को बाहर निकाला और खुद धड़ाम से उस बड़े से कूड़ेदान में कूद गया। पर जैसे ही वो अंदर कूदा... उसे महसूस हुआ कि वहां उस कुत्ते के अलावा कोई और भी था। वो घबराया... धीरे-धीरे उसने सर उठाया तो पाया कि सामने उसी की तरह कोई आदमी औऱ था.... जो कूड़ेदान में छुपा हुआ था। शायद वो भी जान बचाने के लिए इस कूड़ेदान में पत्तों के नीचे छुपा हुआ था। 
दोनों के दिल की धडकनें एक पल को थम गयी। दो जोड़ी पथरायी ठण्डी आँखों में धीरे-धीरे डर आतंक-शक और घबराहट गहराती चली गयी। कोई किसी पर विश्वास नहीं कर रहा था। दोनों एक दूसरे की निगाह में हत्यारे थे। आँखों आँखों में ही, वो एक-दूसरे पर हमला करने की तैयारी में बैठे रहे। इसी इन्तजार में दोनों की आँखों की पुतलियों से फूटती चिनगारियों धीरे-धीरे ठंडी हो गयीं। पर हमला किसी भी तरफ से नहीं हुआ। अब दोनों के मन में यही एक सवाल कौंध रहा था यह हिन्दू है या मुसलमान?' लगता था जैसे इस सवाल का जवाब मिलते ही, कोई खतरनाक हमला जरूर होगा। कूड़ेदान में खून बहने लगेगा.... लेकिन कोई किसी से यह पूछने की हिम्मत जुटा नहीं पाया। दोनों अपनी जान के डर से, वहाँ से कहीं भाग भी नहीं सकते थे। पता नहीं, कौन कहाँ से हाथ में कटार लेकर टूट पड़े।काफी देर तक इसी शक और पसोपेश में दोनों उसी कूड़ेदान में अलग अलग तरफ सटे रहे और एक दूसरे को शक से देखते रहे... जैसे कब कौन किस पर हमला कर दे.... पर जैसे जैसे वक्त गुज़रा दोनों का सब्र टूट रहा था। आखिर में एक ने पूछ ही लिया, 

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हिन्दू हो कि मुसलमान?
"पहले तुम बताओ"  दूसरे ने जवाब न देकर पहले का सवाल लौटा दिया।
वो खामोश रहा.... अपनी असल धार्मिक पहचान बताने के लिए दोनों में से कोई तैयार न था। शक के झूले में दोनों का मन झूल रहा था। कुछ देर बाद, पहला सवाल दब गया और एक दूसरा साल उभरा। 

"घर कहाँ है तुम्हारा?" एक ने पूछा,
"बूढी गंगा के इस पार.. सुबइडा में तुम्हारा?"
"चाशड़ा में... नारायण गंज के पास...  करते क्या हो?"
"मेरी एक नाव है... माझी हूँ मैं... और तुम?"

"मैं तो... नारायण गंज के सूती मिल में काम करता हूँ। मज़दूर हूं"
इस सवाल जवाब के बाद फिर वही चुप्पी हाथ को हाथ न सूझने वाले अंधेरे में दोनों की आँखे एक-दूसरे का चेहरा टोह-टटोल रही थीं। साथ ही, यह भी देखने की कोशिश कि दोनों ने कैसे कपड़े पहन रखे हैं। क्योंकि कपड़ों से भी तो पहचान हो जाती है। अंधेरा तो था ही, कूड़ेदान की आढ़ की वजह से भी देख पाने में मुश्किल हो रही थी। अचानक एक शोर सा गूंजा.... दोनों चौंक गए.... 
दोनों ही तरफ की आवाज़ें थी... लोग चीख रहे थे। उनकी गुस्से से भरी नफरत भरी आवाज़ें कूड़ेदान में छुपे - सूत कारखाने का मजदूर और नाव का माझी- दोनों ही सुनकर कांप रहे थे। 
मिल मजदूर के गले से भर्रायी- सी आवाज़ निकली, 'लगता है सड़क के किनारे पर ही मारकाट मची है।"
"हाँ... मुझे लगता है यहां से निकला चाहिए... क्या कहते हो... यहाँ से कहीं और चलें" माझी की आवाज भी बुझी हुई थी।
कपड़ा मजदूर ने रोका, "ऐ,... रुको रुको... अरे उठना नहीं.. अपनी जान देनी है क्या?"
माझी उसकी बात सुनकर रुक तो गया लेकिन मन में फिर एक शक पैदा हुआ... कहीं ये आदमी... किसी बुरी नीयत से तो मुझे नहीं रोक रहा... कहीं इसका कोई इरादा तो नहीं है जिसके लिए ये मुझे यहां रोके रखना चाहता है” माझी ने मज़दूर की आंखे पढ़ने की कोशिश की.... पर वो कुछ कह नहीं सका ... "बैठे रहो। जैसे पड़े हो वैसे ही!"

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माझी का दिल मज़दूर की बात सुनकर बैठ गया। उसकी आँखों में अब भी शक था। उसने कुछ सोचा और फिर घबराते हुए कहा, "क्यों?" क्यों भला क्यों... क्यों रुकना है... मिल मजदूर बोला, "अरे क्यों का क्या मतलब है.... मरना चाहते हो क्या... बाहर निकल के दस कदम भी न जा पाओगे... गोली पड़ जाएगी...?"
वो उसकी आंखों में सच पहचानने की कोशिश करते हुए बोला "जाऊँगा नहीं तो क्या यहीं इसी अन्धी गली के अन्दर पड़ा रहूँगा?"
अब मज़दूर के मन में माझी के लिए शक पैदा हुआ.... कहीं ये यहां से जाकर मेरी मुखबरी तो नहीं करना चाहता है। हो सकता है इसके साथी बाहर या गली के नुक्कड़ पर हों। वो घबराया... "मतलब क्या है तुम्हारा... मुझे तो तुम्हारे ऊपर शक हो रहा है... तुमने यह भी नहीं बताया कि तुम जात क्या है...... ऐ सच सच बताओ... कौन हो... ऐसा तो नहीं कि बाद में अपने लोगों को बुला बटोर कर मुझ पर ही टूट पड़ो
कूड़ेदान में सर और झुकाकर उसने कहा, "ये क्या बकवास कर रहे हो तुम" माझी जगह और वक्त की नज़ाकत को अनदेखा करते हुए लगभग चीखकर बोला। दोनों ने फिर एक दूसरे को देखा... 

मजदूर की बातों में ऐसा कुछ तो था कि माझी को थोड़ा भरोसा हो आया।

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बोला, "तुम चले गये तो मैं यहाँ अकेला थोड़े ही बैठा रहूँगा?"

शोरगुल कहीं दूर जाकर थम गया। अँधेरी रात एक बार फिर मौत की तरह ख़ामोश और ठंडी हो गयी। 

कुछ वक्त के बाद मौत का इंतज़ार करते ही बीते जैसे अँधेरी गली के बीचों-बीच और कूड़ेदान में छुपे दो अजनबी अपनी-अपनी मुसीबतों, घर के लोगों, माँ-बीवी और बच्चों के बारे में सोच रहे थे। उनकी आंखों में सवाल थे... क्या अब वो अपने लोगों से दोबारा मिल पाएंगे। और इसकी भी क्या गारण्टी है कि वो सब-के सब जिन्दा मिलेंगे! न कोई बात...न ख्याल, न सर न पाँव...पता नहीं कहाँ से यह हुआ दंगा। किसने किसका क्या बिगाड़ा... इन दो अजनबियों को कुछ नहीं पता था। फिर इन्हें क्यों कूड़ेदान मं छुपना पड़ा। काश किसी के पास इसका जवाब होता। वो दोनों कूड़ेदान में महकते कूड़े में अपना सर धंसाए अभी तो घर वालों को याद कर रहे थे... घर की दीवारें, आंगन, बच्चे, उनकी हँसी-खुशी, गप-बाजी और कहकहे... उनकी गीली आंखों में सब याद बनकर झिलमिला रहे थे। पल एक पल में याद आ रहे थे मारकाट और एक-दूसरे की जान लेने को तैयार लोग, और खून की गंगा बहाने को उतारू थे। इंसान इतना बेदिल इतना बेरहम कैसे हो जाता है? कैसी सनक है ये । 

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सूत फैक्ट्री में कानम करने वाले मजदूर ने एक ठंडी सांस भरी। उसकी देखादेखी माझी ने भी लम्बी आह भरी। कुछ देर की खामोशी के बाद मज़ूदूर ने कहा, 'सिगरेट पिओगे', कहते हुए उसने जेब से सिगरेट निकाली और माझी तरफ बढ़ा दी। माझी ने सिगरेट को हाथ में लेकर, अपनी आदत के मुताबिक एक बार दबाया और फिर होंठों के बीच ठूंस लिया। मिल मजदूर अब भी माचिस की तीली जलाने की कोशिश में लगा था। उसने पहले यह ध्यान ही नहीं दिया था कि उसका कुरता कब का भीग चुका है और कुरते की जेब में रखी माचिस बुरी तरह सील चुकी है। कई-कई बार तीली घिसने की खस-खस आवाज़ के साथ एकाध नीली चिनगारी कौंधी । आखिर में उसने मसाले से खाली तीली को झुंझालाकर फेंक दिया।

"साली माचिस की तीली भी गीली हो गयी है।" अब उसने एक दूसरी तीली बाहर निकाली।

माझी अब तक अपना सब्र खो चुका था। वह मजदूर के पास खिसक आया। "अरे जलेगी... जलेगी...लाओ मुझे दो...दो मुझे..." कहता हुए माझी ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और मिल-मज़दूर से माचिस छीन ली। फिर दो-एक बार खस... खस... की आवाज होने लगी। माझी तीली घिसे जा रहा था... घिसे जा रहा था कि तभी तीली जल गयी। और जलते ही माजी के मुंह से निकला... 
"सुभान अल्लाह... हो... सुलगाओ... जल्दी... हाँ!"

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मिल मजदूर का मुंह और आंखे खुली की खुली थी। ऐसे जैसे उसने भूत देख लिया हो। होंठों के बीच फँसी सिगरेट नीचे गिर पड़ी। 

 

(पूरी कहानी सुनने के लिए ऊपर दिए गए लिंक पर क्लिक करें या फिर SPOTIFY, APPLE PODCAST, GOOGLE PODCAST, JIO-SAAVN, WYNK MUSIC में से जो भी आप के फोन में हो, उसमें सर्च करें STORYBOX WITH JAMSHED )

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