जयंती विशेषः क्यों हर लड़की को पढ़नी चाहिए राहुल सांकृत्यायन की 'वोल्गा से गंगा'

'वोल्गा से गंगा' राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखा हुआ एक कहानी संग्रह है. बीस कहानियों का यह संकलन हमारे सभ्य समाज के शुरुआती युग को मातृसत्तात्मक करार देता है. यह संग्रह स्त्री के वर्चस्व की बेजोड़ रचना है.

Advertisement
वोल्गा से गंगा का कवर [ फोटो सौजन्यः किताब महल ] वोल्गा से गंगा का कवर [ फोटो सौजन्यः किताब महल ]

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 09 अप्रैल 2019,
  • अपडेटेड 2:43 PM IST

'वोल्गा से गंगा' राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखा हुआ एक कहानी संग्रह है, जिसकी कहानियां इतिहास में मानवीय सभ्यता के विकास में घटी घटनाओं के मद्देनजर लिखी गई हैं. 'वोल्गा से गंगा' हमारे सभ्य समाज के शुरुआती युग के मातृसत्तात्मक होने को प्रतिपादित करती है. यह संग्रह स्त्री के वर्चस्व की बेजोड़ रचना है. इस रचना में स्त्रियों के प्रदर्शन और प्रकृति के ऐसे उद्धरण हैं जो यह स्थापित करते हैं कि मातृसत्तात्मक समाज में स्त्री कितनी उन्मुक्त, आत्मनिर्भर और स्वच्छंद थीं. स्त्री किसी की संपत्ति नहीं थी. स्त्रियों के स्व-निर्णय का उस वक्त बड़ा प्राधान्य था और इसे एक स्वाभाविक क्रिया के रुप में देखा जाता था.

Advertisement

इस दृष्टि से ‘वोल्गा से गंगा’ की सबसे पहली कहानी ‘निशा’ विशेष रुप से उल्लेखनीय है. कहानीकार के अनुसार उस वक्त हिन्द, ईरान और यूरोप की सारी जातियाँ एक कबीले के फॉर्म में थीं. शायद यकीन करने में दिक्कत हो लेकिन उस दौरान प्रत्येक साहसिक कार्यों में स्त्रियां पहलकदमी किया करती थीं और ये कोई आश्चर्य नहीं था बल्कि एक स्वाभाविक घटना थी. इस कहानी के अनुसार मातृसत्तात्मक समाज की स्त्रियां पशु-शिकार से लेकर पाषाण-परशु और बाण चलाना, चाकू चलाना, पहाड़ चढ़ना, तैराकी, नृत्य आदि विभिन्न कलाओं में पारंगत होती थीं. बल्कि कहा जाए तो वे पुरुषों की तुलना में ज़्यादा तेज़ और साहसी होती थीं.

'वोल्गा से गंगा' पुस्तक में कुल बीस कहानियां हैं और उनके बीच में कुछ सौ वर्षों का अंतराल दिया गया है. इन कहानियों के मध्य परिवर्तन विश्वसनीय बन रहता है. 8000 वर्षों के समय में लेखक ने पूरे इतिहास का एक निचोड़ प्रस्तुत कर दिया है. इस कहानी संग्रह के विषय में खुद राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं कि- "लेखक की एक-एक कहानी के पीछे उस युग के संबंध की वह भारी सामग्री है, जो दुनिया की कितनी ही भाषाओं, तुलनात्मक भाषाविज्ञान, मिट्टी, पत्थर, ताँबे, पीतल, लोहे पर सांकेतिक व लिखित साहित्य अथवा अलिखित गीतों, कहानियों, रीति-रिवाजों, टोटके-टोनों में पाई जाती है."

Advertisement

शायद यही वजह है कि कहानियों की शैली में पर्याप्त विविधता दिखती है. विवरण, वार्तालाप, आत्मकथा, प्रपंच आदि के माध्यम से लेखक ने लोगों की सोच को व्यक्त किया है और समाज में आते हुये बदलाव पर लोगों की प्रतिक्रियाओं को दिखाया है. पुस्तक के अंत में भदन्त आनंद कौसल्यायन ने कहानियों के स्रोतों के बारे में लिखा. वोल्गा से गंगा पुस्तक में लेखक ने आर्य आक्रमण सिद्धांत को पूरी तरह से मानते हुए उसके चारों ओर कहानियों को लिखा है, उस समय शायद यह सिद्धांत इतना विवादित न रहा हो, हालांकि पुस्तक के अंत में भदन्त आनंद कौसल्यायन ने इस पुस्तक की आलोचना के बारे में लिखा है कि किस तरह से सांकृत्यायन को नग्नवादी, ब्राह्मण विरोधी कहकर इस पुस्तक के उद्देश्य पर सवाल खड़े किये गए थे. कुछ इसी तरह की भावना इस पुस्तक के दूसरे संस्करण की भूमिका में सांकृत्यायन ने स्वयं व्यक्त किए हैं.

आनंद कौसल्यायन ने राहुल सांकृत्यायन की सफाई में ज्यादा कुछ न लिखते हुये सिर्फ इतना लिखा है कि यदि किसी को आलोचना करनी ही थी तो कम से कम राहुल सांकृत्यायन के जितना अध्ययन तो किया होता. सांकृत्यायन को उनके ज्ञान के कारण साहित्यिक उद्धरणों में महापंडित के नाम से भी जाना जाता है. आज के समय भाषा के अलावा और अन्य वैज्ञानिक पद्धतियों से आर्य आक्रमण सिद्धांत के मूल में जाने की कोशिश की गई है.

Advertisement

बहरहाल इस पुस्तक की पहली कहानी वोल्गा तट की है. जिसमें वहां पर आज से 8000 साल पहले किसी जनजाति के पारवारिक ढाँचे, खान-पान, रहन-सहन के बारे में उल्लेख किया गया है. वोल्गा से गंगा की पहली चार कहानियां 6000 ई. पू. से लेकर 2500 ई. पू. तक के समाज का चित्रण करती हैं. निशा, दिवा, अमृताश्व और पूरुहुत, यह चारों कहानियाँ उस काल की हैं, जब मनुष्य अपनी आदम अवस्था में था, कबीलों के रुप में रहता था और शिकार करके अपना पेट भरता था. उस युग के समाज का और हालातों का चित्रण करने में राहुल जी ने भले ही कल्पना का सहारा लिया हो, किंतु इन कहानियों में उस समय को देखा जा सकता है.

कहानियों में प्रामाणिक बातों की अपेक्षा कल्पनाशीलता की भरमार है, लेकिन उसके लिए लेखक को दोष नहीं दिया जा सकता, वस्तुतः भारत के इतिहास की प्रामाणिकता बुद्ध और महावीर के समय के बाद बहुत बढ़ गई थी, जिसके दो कारण थे. पहला, बौद्ध और जैन धर्म के ग्रंथों में देवताओं की अत्यधिक प्रशंसा की जगह उस समय के वास्तविक सामाजिक स्थितियों का चित्रण किया गया है. दूसरा किसी एक ग्रंथ की बातों को किसी दूसरे ग्रंथ से तुलना करके उसकी सच्चाई जानी जा सकती है. सिकंदर के आक्रमण के बाद भारत के राजाओं और शहरों का ज़िक्र यवनी साहित्य में भी मिलता है.

Advertisement

संग्रह की अगली चार कहानियां- पुरुधान, अंगिरा, सुदास और प्रवाहण हैं. इन कहानियों में 2000 ई. पू. से 700 ई. पू. तक के सामाजिक उतार-चढ़ावों और मानव सभ्यता के विकास को प्रकट करती हैं. इन कहानियों में वेद, पुराण, महाभारत, ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों आदि को आधार बनाया गया है. 490 ई. पू. को प्रकट करती कहानी बंधुल मल्ल में बौद्धकालीन जीवन प्रकट हुआ है. इसी कहानी की प्रेरणा से राहुल जी ने ‘सिंह सेनापति’ उपन्यास लिखा था. 335 ई. पू. के काल को प्रकट करती कहानी ‘नागदत्त’ में आचार्य चाणक्य के समय की, यवन यात्रियों के भारत आगमन की यादें झलक उठती हैं.

अन्य कहानियों में वैदिक भारत, उत्तर-वैदिक भारत, बुद्ध के समय की कहानियां लिखी गई हैं. इस पुस्तक में जातिवाद के कारणों में जाने की कोशिश की गई है. 50 ई.पू के समय को प्रकट करती कहानी ‘प्रभा’ में अश्वघोष के बुद्धचरित और सौंदरानंद को महसूस किया जा सकता है। सुपर्ण यौधेय, भारत में गुप्तकाल अर्थात् 420 ई. पू. को, रघुवंश को, अभिज्ञान शाकुंतलम् और पाणिनी के समय को प्रकट करती कहानी है. इसी तरह दुर्मुख कहानी है, जिसमें 630 ई. का समय प्रकट होता है, हर्षचरित, कादम्बरी, ह्वेनसांग और ईत्सिंग के साथ हमें भी ले जाकर जोड़ देती है. चौदहवीं कहानी, जिसका शीर्षक चक्रपाणि है, 1200 ई. के नैषधचरित का तथा उस युग का खाका हमारे सामने खींचकर रख देती है.

Advertisement

संकलन की पंद्रहवीं कहानी बाबा नूरदीन से लेकर अंतिम कहानी सुमेर तक के बीच में लगभग 650 वर्षों का अंतराल है. मध्य युग से वर्तमान युग तक की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को अपने माध्यम से व्यक्त करती यह छह कहानियाँ-  बाबा नूरदीन, सुरैया, रेखा भगत, मंगल सिंह, सफ़दर और सुमेर अतीत से उतारकर हमें वर्तमान तक इस तरह ला देती हैं कि हमें एक सफर के पूरे हो जाने का अहसास होने लगता है. इन कहानियों में भी कथा-रस के साथ ही ऐतिहासिक प्रामाणिकता इस हद तक शामिल है कि कथा और इतिहास में अंतर कर पाना असंभव हो जाता है.

राहुल सांकृत्यायन के अनुसार पहले आर्य जातियों में कार्य का विभाजन नहीं था. हर एक मनुष्य हर एक कार्य कर सकता था. जब आर्य जातियां भारतीय उपमहाद्वीप में आईं, तो उन्होंने व्यापार प्रधान समुदायों को देखा जहां एक मुखिया के पास अत्यधिक शक्ति केंद्रित रहती थी. आर्यों में सत्ता लोभी लोगों ने इस व्यवस्था को अपना लिया था. धीरे धीरे यह व्यवस्था अपनी जड़ मजबूत करती गयी और इसको बदलना लगभग असम्भव हो गया. आर्यों और गैर-आर्यों के बीच के युद्धों को लेखक ने अपने शब्दों में व्यक्त किया है, जिसके कुछ कुछ उल्लेख महाग्रंथों में मिलते हैं. मध्यकाल तक पिछड़ी जातियों में उच्च जातियों के प्रति इतना क्षोभ आ गया था कि उन्होंने विदेशी शासन को भी अच्छा माना है.

Advertisement

पुस्तक की आखिरी कहानियों में लेखक ने साम्यवाद को भारत की बुराइयों के हल के रूप में प्रस्तुत किया है. उस समय सोवियत संघ की कहानियों को सुनकर एक बार लग सकता है कि सामन्तवादी व्यवस्था का अन्त हो गया था और शासन का एकमात्र उद्द्येश्य लोगों का कल्याण था. जातिवाद और आय में घोर असमानता जैसी समस्याओं का हल साम्यवाद कहा गया है. इतने वर्ष बीत जाने के बाद पीछे मुड़कर देखा जाए तो सोवियत के साम्यवाद को पूरी तरह सफल नहीं कहा जा सकता. निरंकुशता किसी भी तरह की हो उसे सराहनीय नहीं कहा जा सकता है. यह भी हो सकता है कि सोवियत संघ में साम्यवाद को अच्छे से लागू न किया गया हो. लेकिन इसके माध्यम से सांकृत्यायन ने दबे कुचले वर्ग की समस्याओं को एक आवाज दी है.

इस पुस्तक को लेकर एक खास बात यह भी है कि राहुल सांकृत्यायन ने 'वोल्गा से गंगा' जेल की काली कोठरी में सृजित किया था. जेल था हजारीबाग केंद्रीय कारागार. जेल रिकार्ड के अनुसार वे यहां स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण अलग-अलग समय में लगभग 5 वर्षो तक कैद रहे. इस अवधि को उन्होंने अपने सृजन के माध्यम से अमिट बना दिया. इसके अलावा- सिंह सेनापति और दर्शन दिग्दर्शन की रचना भी यहीं हुई थी.

Advertisement

अपने जीवन में कुल 155 कृतियों के रचनाकार राहुल सांकृत्यायन एक अप्रैल 1923 को पहली बार हजारीबाग सेंट्रल जेल के बंदी बने. इसके बाद से लगातार उनका यहां आने-जाने का सिलसिला जारी रहा. 27 मार्च 1940 को दूसरी बार तथा 30 दिसंबर 1941 को तीसरी बार यहां बंदी रहे. राहुल के सृजन का मूक गवाह हजारीबाग का सेंट्रल जेल है जिसके परिसर में इस महाभिक्षुक ने अपनी विचारधारा को लिपिबद्ध किया था. एक अजीब संयोग है कि उनका जन्म और महाप्रयाण का महीना अप्रैल ही रहा है. विचारों को मूर्त रूप देकर उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि आदमी जंगल में रहे या पहाड़ पर, नदी में या घाटी में, अपने हर क्षण का सदुपयोग कर सकता है. सेंट्रल जेल के राहुल स्मृति कक्ष में उनकी स्मृतियां आज भी सुरक्षित हैं, शायद इसीलिए बिहार उन्हें भूला नहीं है.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement