अक्सर आपने कभी गौर किया होगा कि किसी कुर्सी पर बैठने से उतना सुकून नहीं मिलता जितना सोफे पर या फिर हैंड रेस्ट वाली ऑफिस चेयर पर. लेकिन आपने ये भी महसूस किया होगा कि इन सबसे अधिक आरामदायक लगती है टॉयलेट सीट. जी हां. ये कोई अजीब या शर्मिंदा होने वाली बात नहीं है. दरअसल जब हम पढ़ाई, ऑफिस वर्क, मीटिंग, बातचीत या खाना-पीना कर रहे होते हैं तो हमारा माइंड एक्शन मोड में रहता है लेकिन टॉयलेट सीट पर मामला बिल्कुल उल्टा होता है. वहां आपका मी टाइम होता है, साइलेंस होती है और वहां कोई आपको डिस्टर्ब भी नहीं करता. इसलिए वहां आपको अधिक कंफर्ट महसूस करता है.
दरअसल, इसके पीछे दिमाग और शरीर की एक बेहद दिलचस्प साइकोलॉजी छिपी है इसलिए ही कई बार इंसान टॉयलेट सीट पर बैठते ही दिमाग से सुकून महसूस करता है. तो आइए जानते हैं इसके पीछे ब्रेन और नर्वस सिस्टम की नेचुरल ट्रिक कौन सी है जो आपको इतना कंफर्ट महसूस कराती है.
हर इंसान का एक प्राइवेट स्पेस होता है जिसमें वो कंफर्टेबल महसूस करता है. उदाहरण के लिए इंसान जितना सुकून अपने घर या कमरे में महसूस करता है, उतना किसी और के घर या होटल में नहीं महसूस करता. ऐसा ही होता है टॉयलेट के अंदर.
2015 में University of London के एक बिहेवियरल स्टडी में पाया गया कि इंसान जिन जगहों पर बार-बार जाता है और वहां अकेला होता है, दिमाग उन जगहों को परसीव्ड सेफ स्पेस (Perceived safe space) यानी ऐसी जगह मानने लगता है जहां कोई अपने आपको सुरक्षित महसूस करता है. भले ही असल में वह जगह सुरक्षित हो या ना हो.
दरअसल, जब कोई टॉयलेट में होता है तो वो बिना किसी जजमेंट के अपने सेफ और कंफर्ट जोन में होता है जिसे उसका दिमाग सेफ जोन की तरह फील करता है. उस स्थिति में कोई उसे जज नहीं करता, कोई डिस्टर्ब नहीं करता और न कोई देख रहा होता है. सिर्फ इंसान और उसका कंफर्ट जोन होता है. इस कारण से इंसान का शरीर और दिमाग रिलैक्स मोड में चले जाते हैं. लेकिन वहीं चेयर पर बैठना अक्सर काम या सोशल एक्टिविटी से संबंधित होता है, जैसे ऑफिस, स्कूल, बातचीत करना या खाना खाना. ऐसे में ब्रेन पूरी तरह रिलैक्स नहीं हो सकता.
टॉयलेट सीट पर इंसान स्क्वॉट या हॉफ स्क्वॉट पोजिशन (मलासन या चेयर पोज) में बैठता है और इस स्थिति में बैठने से शरीर का पैरासिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम (PSNS) एक्टिव हो जाता है. पैरासिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम, अपने आप चलने वाला तंत्र का वह हिस्सा है जो शरीर को आराम और पाचन की स्थिति में लाता है. इसलिए कई लोग टॉयलेट पर बैठकर लंबी-लंबी और गहरी सांस लेते हैं, मोबाइल स्क्रॉल करते हैं और सुकून महसूस करते हैं. इसका कारण है कि पैरासिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम एक्टिव होने से उनका शरीर स्ट्रेस फ्री महसूस करने लगता है.
लीडेन यूनिवर्सिटी (नीदरलैंड) की 2010 की एक फिजियोलॉजिकल स्टडी में दिखाया गया कि स्क्वॉट या हॉफ स्क्वॉट पोजिशन में पेल्विक फ्लोर मसल्स रिलैक्स होती हैं और इंसान अधिक कंफर्टेबल महसूस करता है. वहीं यदि कोई कुर्सी पर बैठता है तो उस समय बॉडी अलर्ट या फोकस मोड में रहती है.
अक्सर टॉयलेट में काफी अधिक शांति होती है. वहां तक शोरगुल नहीं पहुंचता और आपने कई बार देखा होगा कि लोग टॉयलेट में जाकर अपने आपसे बात करते हैं और कई महत्वपूर्ण फैसले भी ले लेते हैं. दरअसल, टॉयलेट में साइलेंस और प्राइवेसी के कारण इंसान का दिमा डे-ड्रीमिंग या सेल्फ टॉक मोड में चला जाता है जो एक तरह का माइक्रो-मेडिटेशन होता है.
2021 में फ्रंटियर्स इन साइकोलॉजी में पब्लिश हुई रिसर्च में बताया गया था कि छोटी और प्राइवेट जगहों पर लिया गया ब्रेक स्ट्रेस को कम करता है जो दिमाग को आराम पहुंचाता है. बहुत से लोग टॉयलेट को मी-टाइम जोन की तरह इस्तेमाल करते हैं. वहीं चेयर पर बैठते समय आसपास लोग होते हैं, शोरगुल होता है या कोई ना कोई एक्टिविटी की ओर आपका ध्यान चला जाता है. ऐसे में इंसानी दिमाग फुली रिलैक्स नहीं हो पाता.
अधिकतर लोग टॉयलेट को एक मिनी पर्सनल स्पेस की तरह इस्तेमाल करते हैं. आजकल आपने सुना भी होगा कि रोने के लिए इंसान कमरे से अधिक टॉयलेट या बॉथरूम को अधिक कंफर्ट जोन मानता है. कई लोग टॉयलेट के अंदर घंटों बिता देते हैं. इसका कारण है कि वे वहां पर मोबाइल स्क्रॉल करना, कुछ सोचना, किसी बात से थोड़ा ब्रेक लेना जैसी एक्टिविटीज कर लेते गहैं.
Pew Research Center की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, 90% स्मार्टफोन यूजर्स बाथरूम में मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं. मोबाइल स्क्रॉलिंग हल्का डोपामिन रिलीज करती है जिससे मूड बेहतर होता है और दिमाग को कंफर्ट महसूस होता है.
इस स्थिति में इंसान का दिमाग टॉयलेट सीट को एक आराम और आजादी की जगह मानने लगता है. वहीं चेयर पर अधिकतर लोग इतना बेहतर महसूस नहीं करते क्योंकि चेयर पर बैठना किसी ना किसी एक्शन या इंटरैक्शन से जुड़ा होता है.
टॉयलेट में इंसान को लगता है कि वो अपने कंट्रोल में है. दरवाजा बंद है, कोई नहीं आएगा, कुछ भी छीनने या रोकने वाला नहीं है. वो जो चाहे कर सकता है. बस यही सिचुएशन उसे थोड़ा अच्छा महसूस कराती है और दिमाग को सुकून मिलता है.
2013 में ड्यूक यूनिवर्सिटी की एक स्टडी में पाया गया कि सिर्फ 2 मिनट की साइलेंट प्राइवेसी भी ब्रेन में नई सेल ग्रोथ (Hippocampus में) को ट्रिगर कर सकती है और रिलैक्सेशन बढ़ा सकती है.
हम कह सकते हैं कि वैज्ञानिक रूप से भी ये बात सही साबित होती है कि टॉयलेट सीट पर बैठना अधिक रिलैक्सिंग और सुकून देने वाला अनुभव होता है. हालांकि ये कोई अजीब आदत नहीं है बल्कि ब्रेन और बॉडी की नेचुरल साइकोलॉजिकल-फिजियोलॉजिकल प्रोसेस है. लेकिन ध्यान रखें कि कई रिसर्च ये भी बताती हैं कि टॉयलेट में अधिक देर तक बैठने से कई साइड इफेक्ट बी हो सकते हैं जो आपकी हेल्थ को नेगेटिव तरीके से प्रभावित करते हैं.
मृदुल राजपूत