UP Nagar Nikay Chunav : पहली बार अनारक्षित हुई यह सीट, क्या बदलेंगे चुनाव परिणाम?

गोरखपुर नगर निगम 1994 में बना था. तब से लगातार यह सीट आरक्षित ही रही है. प्रदेश सरकार के नगर विकास अनुभाग की ओर से मंगलवार को जारी अधिसूचना में नगर निगम गोरखपुर की महापौर की कुर्सी को पहली बार अनारक्षित घोषित किया गया है. देखना है कि तीन बार से भाजपा के कब्जे वाली यह सीट इस बार किसे मिलती है.

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गोरखपुर नगर निगम साल 1994 में बना था. तब से यहां मेयर की सीट आरक्षित ही रही है. गोरखपुर नगर निगम साल 1994 में बना था. तब से यहां मेयर की सीट आरक्षित ही रही है.

aajtak.in

  • गोरखपुर ,
  • 07 दिसंबर 2022,
  • अपडेटेड 4:25 PM IST

प्रदेश में निकाय चुनाव की अधिसूचना कभी भी जारी हो सकती है. मंगलवार देर शाम राज्य सरकार ने निकाय चुनाव के लिए नगर निगम, नगर पालिका और नगर पंचायत के लिए महापौर और अध्यक्ष की सीटों के आरक्षण की अनंतिम सूचना जारी कर दी. साथ ही आरक्षण की अनंतिम अधिसूचना पर सात दिनों में आपत्तियां मांगी गई हैं. 

आपत्तियों का निस्तारण करते हुए अंतिम अधिसूचना जारी की जाएगी. सरकार ने दावा किया है कि ये काम 12 दिसंबर तक पूरा हो जाएगा. प्रदेश सरकार के नगर विकास अनुभाग द्वारा जारी अधिसूचना में नगर निगम गोरखपुर की महापौर की कुर्सी पहली बार अनारक्षित घोषित हुई है.

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वहीं, पिछले तीन बार से यह कुर्सी भाजपा के कब्जे में रही है. इससे यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता का असर गोरखपुर नगर निगम की इस सीट पर प्रत्यक्ष रूप से पड़ता है. पिछले तीन चुनाव के परिणाम इस बात के प्रमाण रहे है. 

अनारक्षित होने से हर पार्टी में बढ़ेगी दावेदारों की संख्या 

यह अलग है भाजपा के खेमें में नगर निगम की सीट पिछले तीन बार से जाती रही हैं, लेकिन भाजपा हर बार मेयर पद के लिए अपना प्रत्याशी बदल देती है. भाजपा ने नगर निगम गोरखपुर के लिए अपने प्रत्याशियों को कभी दोहराया नहीं है. राजनीतिक विशेषज्ञ बताते हैं कि सीट अनारक्षित होने से अब सभी राजनीतिक दलों में दावेदारों की संख्या बढ़ने की उम्मीद है. 

1994 में नगर निगम बनने के बाद से सीट रही है आरक्षित 

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एक इतिहास यह भी है कि गोरखपुर नगर निगम 1994 में बना था. तब से लगातार यह सीट आरक्षित ही रही है. साल 1995 में ओबीसी कोटे से राजेंद्र शर्मा चुनकर आए थे. साल 2000 में ओबीसी महिला से आशा देवी चुनी गईं थी. वह ट्रांसजेंडर थीं और चुनाव जीतकर आईं थीं. साल 2006 में अन्य पिछड़ा वर्ग से डॉ. अंजू चौधरी विजयी हुई थीं. 

साल 2012 में सीट सामान्य महिला की होने की वजह से डॉ. सत्या पांडेय चुनाव जीती थीं. उसके बाद 2017 में ओबीसी वर्ग से सीताराम जयसवाल मेयर बने. मगर, इस बार इसे अनारक्षित होने का मौका मिला है. लिहाजा अब कोई भी इस कुर्सी के लिए मैदान में उतरकर दो-दो हाथ कर सकता है. 

आशा देवी के बाद ट्रांसजेंडर को नहीं मिला मौका 

साल 2000 में गोरखपुर ने एक और इतिहास रचा था. पहली बार ट्रांसजेंडर अमरनाथ यादव उर्फ आशा देवी चुनाव जीतकर मेयर बनी थीं. सूबे के किसी नगर निगम में पहली बार कोई ट्रांसजेंडर मेयर बना था. उस समय यह पद अन्य पिछड़ा वर्ग महिला के लिए आरक्षित था. लिहाजा, यह निर्वाचन अदालत तक भी पहुंचा. मगर, फैसला आशा देवी के हक में आया था. 

गोरखपुर में रहने वाली किन्नर अखाड़ा की महामंडलेश्वर त्र्यंबककेश्वरी नंदगिरी उर्फ किरण बाबा ने आशा देवी के कार्यकाल को याद करते हुए कहा, “उनका कार्यकाल ऐतिहासिक था. मगर, उसके बाद ट्रांसजेंडर के साथ भेद-भाव होने लगा. अब हमें मौका नहीं दिया जाता है और हमें हमारा हक भी नहीं मिलता है. इसलिए एक बार तो अपने क्षेत्र की सड़क को हम किन्नरों ने खुद चंदा इकट्ठा कर बनवाया था.” 
      
सपा भी मजबूती से मैदान में उतरने को तैयार 

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वहीं, सपा के जिलाध्यक्ष अवधेश सिंह यादव कहते हैं कि सीट अनारक्षित होना एक चुनावी प्रक्रिया है. अनारक्षित हिसाब से आवेदन देंगे और लोगों को चुनाव लड़ाएंगे. समाजवादी पार्टी हमेशा से यहां मजबूती से चुनाव लड़ी है, इस बार भी चुनाव लड़ेगी. लोगों को यह याद दिलाएगी कि आप कैसे नावों से अपने घरों से निकले हो. अगर इससे निजात पाना चाहते हो तो सपा पर भरोसा करो और जिताओ. 

नगर में जितने विकास हुए हैं, सब समाजवादी पार्टी की देन हैं. सूरजकुंड का ओवरब्रिज हो, धर्मशाला का ओवरब्रिज हो या नकहा का ओवरब्रिज हो, सब सपा की देन है. तीन बार से मेयर भाजपा के रहे हैं, तो क्या हुआ. जब गोरखपुर की जनता ऊब जाती है, तो किन्नर को भी चुनाव जिता देती है. इसलिए अब जनता ऊब चुकी है. 

(इनपुट- रवि गुप्ता)

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