2024 चुनाव के मद्देनजर एक्टिव हुए मुस्लिम संगठन... शिया से लेकर सुन्नी तक दिखा रहे दम

2024 के लोकसभा चुनाव में भले ही अभी एक साल का वक्त बाकी हो, लेकिन मुस्लिम संगठन और उलेमा अपनी-अपनी ताकत दिखाने लगे हैं. मौलाना कल्बे जव्वाद ने लखनऊ में शिया सम्मेलन किया तो उससे पहले दिल्ली में जमीयत उलेमा ए हिंद और जमात ए इस्लामी हिंद ने अधिवेशन कर प्रेशर पॉलिटिक्स का दांव चल दिया.

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शिया मुस्लिम सम्मेलन शिया मुस्लिम सम्मेलन

कुबूल अहमद

  • नई दिल्ली ,
  • 14 मार्च 2023,
  • अपडेटेड 12:07 PM IST

लोकसभा चुनाव होने में एक साल का ही वक्त बाकी है, लेकिन सियासी दलों के साथ-साथ सामाजिक और धार्मिक संगठन अपनी भूमिका और जमीन तैयार करने में सक्रिय हो गए हैं. सियासत के गर्भ में अभी जो  पल रहा है वही आने वाली सरकार तय करेगा. ऐसे में मुस्लिम समुदाय के शिया से लेकर सुन्नी तक के मुस्लिम संगठन और उलेमा अपनी शिकायतें खुला इजहार करने लगे हैं, इसके साथ ही ताकत दिखाकर  अपने हक की लड़ाई का नारा बुलंद कर रहे हैं. 

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लखनऊ में शिया मुस्लिम सम्मलेन 

लखनऊ के ऐतिहासिक बड़े इमामबाड़े में शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जव्वाद ने शिया सम्मेलन के जरिए सियासी दलों को अपनी ताकत से वाकिफ कराने का दांव चला. उन्होंने पिछली सरकार पर शिया समुदाय के विकास के लिए कोई ठोस काम नहीं किए जाने का आरोप लगाया. इस दौरान कल्बे जव्वाद ने मौजूदा सरकार से शिया समुदाय को राजनीतिक और आर्थिक विकास में बराबरी का दर्जा दिए जाने की मांग उठाई. उन्होंने कहा कि हमको महसूस हो रहा है कि शिया समुदाय लगातार पिछड़ रहा हैं. चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या आर्थिक-राजनीतिक क्षेत्र हो. उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि इस सिलसिले में सरकार से भी मदद मिले ताकि शिया समाज के पिछड़ेपन को दूर किया जा सके.

मौलाना कल्बे जव्वाद ने कहा कि शिया समाज के वोटों की संख्या कम नहीं है. लखनऊ में ही तीन विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां उम्मीदवारों की हार-जीत शिया मुसलमानों के वोट से ही तय होती है. शिया समुदाय तय करता है कि लखनऊ में कौन चुनाव जीतेगा, फिर भी हमें नजरअंदाज किया जा रहा है. हमारे वोटों को छुपाया जाता है ताकि हमें अपने अधिकारों से वंचित किया जा सके. मौलाना जव्वाद ने कहा कि शिया समुदाय का संसद में कोई प्रतिनिधि नहीं है. हमारी सरकार से मांग है कि वह पारसी समुदाय की तरह शिया समुदाय के लिए भी संसद में आरक्षण उपलब्ध कराए. उन्होंने कहा कि पीएम मोदी से मिलकर अपनी मांगों को रखेंगे ताकि शिया समाज के विकास की राह में आने वाली बाधाओं को दूर किया जा सके. 

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जमात उलेमा-ए-हिंद ने दिल्ली में दिखाई ताकत 

शिया समुदाय ने लखनऊ में अपनी ताकत दिखाई तो जमात उलेमा-ए-हिंद के चीफ मौलाना महमूद मदनी ने पिछले महीने राजधानी दिल्ली में लाखों की भीड़ जुटाकर अपनी ताकत दिखाई थी. पसमांदा मुस्लिम, मदरसा और यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर प्रस्ताव भी पेश किए गए. इस दौरान पसमांदा मुस्लिम को लेकर पास किए प्रस्ताव में जमात ने कहा था 'यह अच्छी बात है कि सरकार पसमांदा मुसलमानों के बारे में सोच रही है. हम उसका स्वागत करते हैं, लेकिन धारा 341 को अब खत्म करना चाहिए, ताकि पसमांदा मुसलमानों को रिजर्वेशन का लाभ मिल सके. साथ ही कहा था कि मदरसों को टारगेट करना बंद करना होगा. समान नागरिक संहिता के जरिए सरकार मुस्लिम पर्सनल लॉ को खत्म करना चाहती है, जिसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. 

मदनी ने आरएसएस से दोस्ती का हाथ बढ़ाया 

मौलाना महमूद मदनी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कहा था कि बीजेपी और आरएसएस से कोई मजहबी दुश्मनी नहीं, सिर्फ़ गलतफहमियां बढ़ाने वाले मामलों को लेकर मतभेद है. उन्होंने कहा था हम संघ के सामने दोस्ती का हाथ बढाते हैं. आइए आगे बढ़िए और गले मिलिए. हमें सनातन धर्म के बढ़ने से कोई परेशानी नहीं, लेकिन किसी को इस्लाम के बढ़ने से भी दिक्कत नहीं होनी चाहिए. अधिवेशन के दौरान मौलान अरशद मदनी के अल्लाह और ओम को एक बताए जाने पर जरूर विवाद हो गया था, लेकिन जमियत ने तीन दिवसीय अधिवेशन में लाखों की भीड़ जुटाकर चुनाव से पहले प्रेशर पालिटिक्स का दांव जरूर चला. 

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75 साल पर जमात ए इस्लामी हिंद का कार्यक्रम

जमात-ए-इस्लामी हिंद अपने गठन के 75वें साल पर दिल्ली में एक बड़ा कार्यक्रम रखा. इस मौके पर जमात-ए-इस्लामी के  प्रमुख सैयद सदातुल्लाह हुसैनी ने अपने 75 साल के काम को गिनाते हुए देश की मौजूदा राजनीति पर अपनी चिंता जाहिर की. उन्होंने पीएम मोदी के पसमांदा मुस्लिम के जोड़ने की मुहिम को राजनीति से प्रेरित बताया था. जमात-ए-इस्लामी हिंद ने कहा कि हम किसी भी खास वर्ग, समुदाय और धर्म के आधार पर गठित राजनीतिक दल का समर्थन नहीं करते हैं. उन्होंने कहा कि देश में मुसलमानों के खिलाफ नफरत की राजनीति पैदा की जा रही है. एक खास मकसद और राजनीतिक लाभ के लिए कुछ सियासी पार्टियां हवा दे रही हैं. आरएएस के साथ बातचीत करने के जमात-ए-इस्लामी को अब कोई गुरेज नहीं है. 

बता दें कि मुस्लिम संगठनों ने काफी अर्से के बाद बड़े-बड़े सम्मलेन करने शुरू किए हैं. यह मुस्लिम सम्मलेन ऐसे समय हो रहे हैं जब 2024 लोकसभा चुनाव में महज एक साल का ही वक्त बाकी है और देश में चुनावी सरगर्मिया बढ़ गई हैं. बीजेपी से लेकर सभी दल सक्रिय हैं तो मुस्लिम संगठन भी अपनी ताकत दिखाकर सरकार से लेकर राजनीतिक दलों पर दबाव की सियासत तेज कर दी है.  इतना ही नहीं मुस्लिम उलेमा आपसी मतभेदों को भुलाकर एक साथ बैठक कर 2024 के चुनाव के लिए मंथन कर रहे हैं. 

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2014 के बाद बदल गई देश की सियासत

दरअसल, नरेंद्र मोदी सरकार के केंद्र की सत्ता पर विराजमान होने के बाद से देश की मुस्लिम सियासत पूरी तरह से बदल गई है. मुस्लिम समाज खुद को हाशिए पर खड़ा पा रहा है. ऐसे में वह सेक्युलर ताकतों के साथ बीजेपी को कठघरे में खड़ा करने के लिए साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर घेरते है तो इससे बीजेपी को ही सियासी फायदा मिलता है. ऐसे में राजनीतिक दलों के साथ-साथ मुस्लिम संगठनों ने बीजेपी को घेरने के लिए अपनी रणनीति में बदलाव किया है. राजनीतिक दल मुस्लिम मुद्दों पर मुस्लिम के पक्ष में मुखर होने के बजाय साइलेंट मोड पर हैं तो मुस्लिम संगठन बीजेपी और संघ के प्रति नरम रुख अपना रहे हैं. 

देश में मुस्लिम आबादी भले ही 14 फीसदी के करीब है, लेकिन देश की करीब 60 से 70 लोकसभा सीटों को मुस्लिम प्रभावित करते हैं. मुस्लिम वोटों की सियासी ताकत को देखते हुए पीएम मोदी पसमांदा मुस्लिमों को जोड़ने की अपील कर चुके हैं तो कांग्रेस से लेकर सपा और आरजेडी जैसी पार्टियां अपनी रणनीति पर काम कर रही हैं. ऐसे में मुस्लिम संगठन और उलेमा भी अपने सियासी तेवर दिखाने लगे हैं. देखना है कि 2024 के चुनाव में मुस्लिमों के दिल में कौन जगह बना पाता है? 

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