क्यों दिल्ली को इस साल पंजाब में जलने वाली पराली से राहत मिलने के आसार नहीं!

दिल्ली स्थित पूसा इंस्टीट्यूट की ओर से विकसित डीकंपोजर कैप्सूल का इस्तेमाल कर फसलों के अवशेष (पराली) को खाद में बदला जा सकता है. ऐसे चार कैप्सूल्स की कीमत 20 रुपये है. इन्हें गुड और बेसन के साथ घोल बना कर इस्तेमाल किया जाता है. चार कैप्सूल से 25 लीटर घोल तैयार किया जा सकता है जो एक हेक्टेयर जमीन के लिए पर्याप्त होता है.

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दिल्ली को इस साल भी पराली के धुएं से निजात नहीं मिलेगी (सांकेतिक-पीटीआई) दिल्ली को इस साल भी पराली के धुएं से निजात नहीं मिलेगी (सांकेतिक-पीटीआई)

मनजीत सहगल

  • लुधियाना,
  • 08 अक्टूबर 2020,
  • अपडेटेड 8:27 PM IST
  • 10,000 एकड़ पर पूसा डीकम्पजोर कैप्सूल का ट्रायल होगा
  • डीकंपोजर कैप्सूल से पराली को खाद में बदला जा सकेगा
  • पराली की दिल्ली के वायु प्रदूषण में करीब 45 प्रतिशत हिस्सेदारी

पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी (PAU) का कहना है कि पंजाब में ‘पूसा डीकम्पोजर’ का ट्रायल जल्दी शुरू किया जाएगा. खेतों में पराली (फसल के अवशेष) जलाने से हर साल हवा में घुलने वाले ज़हर की समस्या से निपटने के लिए दिल्ली सरकार ने यह कम लागत वाली पहल शुरू की है. हालांकि इस तकनीक को पंजाब में लागू किया जाना अगले साल से ही संभव हो सकेगा.

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पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने मंगलवार को संकेत दिया कि PAU से मंजूरी मिलने के बाद ही पूसा डीकम्पोजर को पंजाब में लागू किया जाएगा. 

आजतक/इंडिया टुडे ने नई पूसा डीकम्पोजर तकनीक के बारे में और जानकारी जुटाने के लिए PAU का दौरा किया. यूनिवर्सिटी के माइक्रोबायोलॉजी विभाग के प्रमुख डॉ. जीएस कोचर ने बताया कि PAU की ओर से पिछले पांच साल से इसी तरह के ट्रायल हो रहे हैं, और अब ये प्रक्रिया फाइनल स्टेज पर है.

PAU में माइक्रोबायोलॉजी विभाग के प्रमुख डॉ. जीएस कोचर

डॉ कोचर ने कहा, “यूनिवर्सिटी की ओर से जल्द ही 10,000 एकड़ भूमि पर पूसा डीकम्पजोर कैप्सूल का ट्रायल शुरू किया जाएगा. इन कैप्सूलों को मंगाने का आदेश दिया गया है और समांतर ट्रायल एक हफ्ते में शुरू हो जाएगा.”

दिल्ली स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI), जिसे पूसा इंस्टीट्यूट के नाम से भी जाना जाता है, की ओर से विकसित डीकंपोजर कैप्सूल का इस्तेमाल कर फसलों के अवशेष (पराली) को खाद में बदला जा सकता है. ऐसे चार कैप्सूल्स की कीमत 20 रुपये है. इन्हें गुड़ और बेसन के साथ घोल बना कर इस्तेमाल किया जाता है. चार कैप्सूल से 25 लीटर घोल तैयार किया जा सकता है जो एक हेक्टेयर जमीन के लिए पर्याप्त होता है. दिल्ली सरकार राजधानी में गैर-बासमती किस्म वाले चावल के खेतों में 11 अक्टूबर से पूसा बायो-डीकम्पोजर घोल का छिड़काव शुरू करेगी.

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पंजाब को किन समस्याओं का सामना?
डॉ कोचर के मुताबिक गेहूं और धान की पराली के बीच अंतर होता है. गेहूं का ठूंठ कुदरती तौर पर जल्दी डीकम्पोज (विघटित) होता है, वहीं धान पराली अपने तीन घटकों (सेल्युलोज, हेमिसेल्युलोज और लिग्नोसेल्यूलोज) की मौजूदगी की वजह से डीकम्पोज होने में अधिक वक्त लेती है.

सीनियर माइक्रोबायोलॉजिस्ट डॉ कोचर ने आगे कहा,“इन तीन घटकों की मौजूदगी धान पराली को कुदरती तौर पर डीकम्पोज होने की प्रतिरोधी बनाती है. इस डीकम्पोजिशन को तेज करने के लिए, हम सूक्ष्मजीवों (माइक्रोऑर्गेनिज्म्स) के रूप में कुछ बायोकैटेलिस्ट्स का इस्तेमाल कर रहे हैं जो डीकम्पोज होने की कुदरती क्षमता को बढ़ाते हैं.

वैज्ञानिकों के मुताबिक, अगली फसल, जो गेहूं, सरसों या आलू हो सकती है, को बोने के लिए खेत को तैयार करने में कम से कम तीन हफ्ते लगते हैं. PAU का उद्देश्य एक फॉर्मूला विकसित करना है, जो किसानों की ओर से धान की फसल की कटाई से तीन हफ्ते में पराली को डीकम्पोज कर दे. डॉ कोचर के मुताबिक कृषि वैज्ञानिकों ने पहले से ही एक माइक्रोबियल (सूक्ष्मजीवी) दखल विकसित किया है, लेकिन वे अभी भी तेज नतीजे हासिल करने के लिए जूझ रहे हैं.

IARI और PAU, दोनों के वैज्ञानिकों ने बायोकैटेलिस्ट्स विकसित किए हैं जो पराली के डीकम्पोजिशन की रफ्तार बढ़ाते हैं. उन्होंने कहा, “माइक्रोबियल दखल पराली को डीकम्पोज करने में कामयाब है लेकिन असली चुनौती इसमें लगने वाले समय को कम करने में है, यानि 15 दिनों में. यही वजह है कि मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के मार्गदर्शन में PAU ने पूसा के समानांतर और आगे ट्रायल करने का फैसला किया है.

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PAU और IARI, दोनों के वैज्ञानिकों ने धान के डंठल को सड़ने के लिए माइक्रोऑर्गेनिज्म (सूक्ष्मजीवों) का इस्तेमाल किया है, लेकिन लुधियाना स्थित यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों का दावा है कि उनका फॉर्मूला अलग है. डॉ कोचर ने कहा, "पूसा की ओर से विकसित माइक्रोबियल दखल PAU से अलग है. ट्रायल खत्म हो जाने के बाद हम इसकी सिफारिश करेंगे." 

एक नया कॉम्बिनेशन ला सकता है बड़ा बदलाव
PAU के वैज्ञानिकों ने कहा कि वे जीवाणुओं (बैक्टीरिया) और फंफूद (फंजाई) के कॉम्बिनेशन का इस्तेमाल कर रहे हैं ताकि पराली को डीकम्पोज किया जा सके.  

PAU  की माइक्रोबायोलॉजिस्ट डॉक्टर प्रिया कत्याल ने बताया कि यूनिवर्सिटी पराली की चुनौती से निपटने के लिए अलग-अलग तरीके आजमा रही थी. इनमें यांत्रिक और माइक्रोबियल दखल, दोनों शामिल हैं.

डॉ कत्याल ने कहा "हमारा मुख्य ध्यान माइक्रोबियल दखल पर है. हम पिछले पांच साल से उन तरीकों पर काम कर रहे हैं कि कैसे बिना किसी यांत्रिक विधि का उपयोग किए ही धान के ठूंठ को खेत में ही नष्ट किया जा सकता है. हमने माइक्रोबियल दखल का इस्तेमाल किया है. यह बैक्टीरिया और फंजाई का मिश्रण है जो कुदरती तौर पर सेल्यूलोज को डिकम्पोज करने वाले हैं. ये पुआल पर काम कर इसे नरम और मुलायम बनाते हैं,  फिर खेत में अतिरिक्त पोषक तत्वों को छोड़ते हैं. यह विधि जीरो ड्रिल या पारंपरिक खेती के तरीकों का उपयोग करना संभव बनाती है.”

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पराली से छुटकारा पाने के लिए PAU  के माइक्रोबियल दखलों के ट्रायल्स ने भी आशाजनक परिणाम दिखाए हैं. हालांकि किसानों को इन तरीकों की सिफारिश ट्रायल खत्म होने के बाद ही की जाएगी.

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान और पंजाब कृषि विश्वविद्यालय पिछले कुछ समय से माइक्रोबियल दखलों के ट्रायल कर रहे हैं.  

इंसान बनाम मशीन
ग्यारह यूनिट्स पंजाब के अलग अलग हिस्सों में स्थित हैं, जो हर साल अकेले राज्य की ओर से हर साल पैदा होने वाली 20 लाख टन पराली के सिर्फ सात प्रतिशत हिस्से को डील करती हैं.

बाकी 93 प्रतिशत पराली या तो आग की लपटों के हवाले कर दी जाता है या अवैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल कर मैनेज की जाती है, किया जाता है, जिससे जीवन और पर्यावरण को भारी नुकसान होता है. 

राज्य के अधिकारियों ने धान के ठूंठ को प्रबंधित करने के लिए रियायती दरों पर हजारों मशीनें वितरित करने का दावा किया. हालांकि, किसानों की एक बड़ी संख्या ने कहा कि राज्य सरकारों द्वारा सुझाई जा रही मशीनें व्यावहारिक नहीं हैं. किसानों ने कहा कि इससे न केवल खेती की लागत 2,000 रुपये प्रति एकड़ बढ़ी है बल्कि इससे प्रति एकड़ उपज में भी दो से तीन गुना की कमी आई है.

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बठिंडा के मंडी कलां गांव के किसान बलराज सिंह ने कहा, 'जब तक मुआवजा नहीं दिया जाता है, तब तक हम पराली जलाते रहेंगे.’’ कुछ किसानों ने कहा कि खेतों में धान की पराली छोड़ने से पैदावार भी कम हुई है. पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और अन्य राज्यों में जलने वाली पराली की दिल्ली के वायु प्रदूषण में लगभग 45 प्रतिशत हिस्सेदारी रहती है.

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