भारतीय संस्कृति में अगर अध्यात्म का सिरा पकड़ कर चलें तो इसका एक छोर हमें ललित कलाओं की ओर ले जाता है. ललित कलाएं, चाहे वह मूर्ति शिल्प हो, चित्रकारी हो, गायन-वादन हो या फिर नृत्य. प्राचीन काल से ही ललित कलाएं साधना का अंग रही हैं और इनके साधकों ने इसके माध्यम से अपने-अपने आराध्य की आराधना ही की है.
क्या कहते हैं मीरा, तुलसी और सूरदास जैसे भक्त कवि
मीरा सुरीले स्वर में भजन गाते हुए कहती हैं, 'पायो जी मैं तो राम रतन धन पायो...' तो वहीं संत तुलसीदास लिखते हैं, 'सिया राम मैं सब जग जानी, करऊं प्रनाम जोरि जुग पानी'. संत कवि सूरदास की साधना के रंग में तो ऐसा प्रेम समाया है कि वह जब-जब अपने कन्हैया का ध्यान करते हैं तो उनके प्रति वात्सल्य से भर जाते हैं, फिर इसी भाव में वह गाते हैं, 'मैया मोरी मैं नहीं माखन खाय़ो...'
यह जो भी पद, गीत, काव्य या छंद हैं, सभी में एक ही भाव है और भाव को और भी गहराई से समझें तो इनमें जो रस है वह भक्ति का रस है और इस भक्ति रस का पक्ष है शृंगार. अपने-अपने तरीके से सभी कवियों और भक्ति पदावली लिखने वाले रचनाकारों ने शृंगार के ही अलग-अलग भावों और पक्षों को खूबसूरती से रखा है.
मानव अनुभव की गहराई को सामने रखता है शृंगार
शृंगार के इसी पक्ष पर असावरी (सोसाइटी) के सहयोग से 10वें वार्षिक महोत्सव विविध मत: परिपेक्ष्य में गहन बातचीत हुई. यहां कहा गया कि शृंगार, सुंदरता, प्रेम और मानव अनुभव की गहराई को सामने रखता है. सोमवार की शाम (6 जनवरी 2025) राजधानी दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटेट सेंटर, इस खूबसूरत बातचीत का गवाह बना.
कार्यक्रम की शुरुआत प्रख्यात शास्त्रीय नृत्यांगना पद्मश्री शोवना नारायण और डॉ. सुरेश गोयल (पूर्व महानिदेशक ICCR) द्वारा शुरू हुई चर्चा से हुई. इसके साथ ही विशिष्ट अतिथियों के तौर पर जतिन दास (प्रसिद्ध चित्रकार और मूर्तिकार), सुदीप सेन, (कवि और लेखक), और सोहैला कपूर,(अभिनेत्री और निर्देशक) ने भी अपने विचार साझा किए.
चित्रकार जतिन दास ने अपने विचार साझा करते हुए कहा “शृंगार केवल एक सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि यह जीवन की धड़कन का प्रतिबिंब है. यह रूप और भावना के बीच का नाजुक संतुलन है, वह तरीका जिसमें कला आत्मा को छूती है और अदृश्य को भी जीवंत बना देती है. इसके जरिए आप और हम यह देख पाते हैं कि कैसे सुंदरता सीमाओं को पार करती है, हमारे सांस्कृतिक धरोहर और मानव अनुभव के धागों को जोड़ती है.”
साथ ही कवि सुदीप सेन ने इस पर प्रकाश डालते हुए कहा, “शृंगार इंद्रियों की कविता है, एक ऐसी सुंदरता का उत्सव जो शब्दों से परे एक भाषा में दिल से बात करती है. यह वह स्थान है जहां कला, प्रेम और जीवन मिलते हैं, और हमें मानव आत्मा के गहरे पहलुओं का परिचय कराते हैं. ”
सोहैला कपूर ने कहा कि, “शृंगार जीवन की सुंदरता को अभिव्यक्ति के माध्यम से पकड़ने की कला है. यह भावना का सार है, जो गति और प्रदर्शन के माध्यम से जीवंत हो उठता है.”
नृत्यांगना शोवना नारायण ने शृंगार के गहरे अर्थ पर अपने विचार साझा करते हुए कहा, “शृंगार, मेरे लिए, केवल एक कलात्मक रूप नहीं है यह जीवन की धड़कन है, एक ऐसी भाषा है जो सीधे दिल से बात करती है.' उन्होंने कहा कि, शृंगार एक ऐसा भाव है, जो वहां भी मौजूद है, जहां कुछ नहीं है. यह विलोपन, यह वियोग भी शृंगार का ही एक पक्ष है. उन्होंने कहा कि, इसके कैनवस को प्रेम, संयोग-वियोग, राग-द्वेष के बजाय और बड़ा व विस्तृत करके देखने की जरूरत है.
भावपूर्ण रही बैठकी भाव की प्रस्तुति
चर्चा के दौरान मुख्य आकर्षण का केंद्र रही नृत्यांगना मधुरा फाटक द्वारा बैठकी भाव पर आधारित शृंगार रस को परिभाषित करती प्रस्तुति. उन्होंने कथक परंपरा के तहत गुरु वंदना कर गुरु प्रणाम किया और फिर उन्होंने शृंगार के उन पक्षों को सामने रखा, जो नृत्य में समाए हुए हैं. वह कहती हैं कि शृंगार के कई पक्ष हो सकते हैं. जब भक्त का भगवान से रिश्ता गहरा हो जाता है तो वह उनसे आशीष लेता ही नहीं, बल्कि उन्हें भी आशीर्वाद दे देता है. इसकी एक बानगी सूरदास के पद में देखिए.
'रानी तेरो चिरजीयो गोपाल.
बेगिबडो बढि होय विरध लट, महरि मनोहर बाल.
उपजि पर्यो यह कूंखि भाग्य बल, समुद्र सीप जैसे लाल,
सब गोकुल के प्राण जीवन धन, बैरिन के उरसाल.'
मधुरा ने इस पद को गाकर सुनाया और नृत्य के भाव में इस पद की प्रस्तुति देती हुई हर शब्द को अपनी अंगुलियों, आंखों के इशारों, हाथेलियों की मुद्राओं से स्पष्ट करते हुए बैठकी भाव को जीवंत कर दिया. उन्होंने कहा कि शृंगार का अर्थ मेकअप से मत लगाइए, न ही ये ग्लैमर है. ये सिर्फ स्त्री और पुरुष के बीच के प्रेम का भी नाम नहीं है, ये सारी बातें शृंगार के पक्ष को, इसके तथ्य को सीमित कर देते हैं.
असल में शृंगार, मन का भाव है. अब ये आप पर है कि आप अपने भाव को कितने सुंदर तरीके से सजा पाते हैं. वह कहती हैं कि, जैसे किसी में अगर जलन की भावना भी है, तो इसके पीछे भी शृंगार रस ही है. इसके उदाहरण में वह श्रीकृष्ण और गोपियों के बीच की एक और बातचीत के प्रसंग को सामने रखती हैं.
प्रसंग है कि गोपियां कृष्ण को उलाहना दे रही हैं कि आप तो दिनभर बंसी ही बजाते हो. फिर वह अपनी ईर्ष्या की वजह बंसी को बताती हैं कहती हैं कि 'हे बंसी, तुमने कौन सा तप किया है. कृष्ण तुम्हें सदैव ही अपने हाथों में रखते हैं और तुम्हें होठों से भी लगाते हैं.'
'री बंसी, कौन तप ते कियो
रहत गिरधर मुख ही लागत
अधरन को रस पियो...'
उन्होंने अपने पारंपरिक प्रदर्शन से दर्शकों को एक गीत, नृत्य, काव्य और रस के गहरे भाव पूर्ण अनुभव से परिचित कराया. उन्होंने यह दिखाया कि कैसे शृंगार शास्त्रीय नृत्य में गहरे भावनात्मक संबंधों को पैदा करता है और कैसे इसके भाव मन को सुकून पहुंचाते हैं.
विकास पोरवाल