बांग्लादेश की अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना का राजनीतिक कार्यकाल एक हॉरर रॉलर कॉस्टर जैसा रहा है. बांग्लादेश की उम्र भी 50 पार हो चली है और इस पूरे दौर में शेख हसीना अपने परिवार का बहता खून देख चुकी हैं, उन्हें कई दफा विपरीत परिस्थितियों में देश छोड़कर भागना पड़ा है.
बीते साल भी उन्हें अचानक ही अपना भाषण बीच में छोड़कर देश छोड़ना पड़ा था. अब विडंबना ये है कि जिस मुल्क को उनके पिता बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान ने नाम और पहचान दिलाया था, आज उसी मु्ल्क से शेख हसीना के लिए सजा-ए-मौत का फरमान आया है.
पहले भी ले चुकी हैं भारत में शरण
फिलवक्त शेख हसीना भारत में हैं और पड़ोसी मुल्क ने प्रत्यर्पण संधि के हवाले से उन्हें लौटाने की मांग की है. यह पहली बार नहीं है कि शेख हसीना को मुश्किल वक्त में भारत से शरण मिली है. भारत, बल्कि दिल्ली पहले भी शेख हसीना के लिए शरण स्थली रह चुका है. ये वक्त था 1975 के दौर का इस दौरान उनका पता था कोठी नंबर-M 56, लाजपत नगर, नई दिल्ली.
वो कोठी जहां रही थीं शेख हसीना
वरिष्ठ पत्रकार विवेक शुक्ल, इस कोठी के इतिहास के बारे में बहुत तफसील से बताते हैं. वह कहते हैं कि 'आज लाजपत नगर काफी कमर्शियल और भीड़ भरा इलाका है. पॉश तो ये अभी भी है, लेकिन एक समय पर ये खास इलाका होने के साथ-साथ डिप्लोमेसी का भी केंद्र रहा.
इसी लाजपत नगर-3 में एक कोठी हुआ करती थी M
शेख हसीना अपने पति वाजिद मियां के साथ यहां पर रही थीं. उन्हें पहले तो रिंग रोड की इस कोठी में ही रहने को जगह दी गई और फिर पंडारा पार्क में शिफ्ट किया गया था.
दिल्ली के लाजपत नगर-3 में 56 नंबर की कोठी अब भी है मौजूद है, लेकिन अब उसकी पहचान कुछ और है. आज यहां होटल डिप्लोमैट रिजेंसी चल रहा है, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इसी जगह बेहद कम समय के लिए ईराक की एंबेंसी भी रही थी.
विवेक शुक्ला बताते हैं कि इस कोठी का स्वामित्व दिल्ली के ही कोहली परिवार के पास है. साउथ दिल्ली के रियल एस्टेट कंसल्टेंट अनिल मखिजानी के मुताबिक ये परिवार आजकल न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी में रहता है.
परिवार के नरसंहार की भयावह रात
15 अगस्त 1975 को, बांग्लादेश के संस्थापक पिता बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान की निर्मम हत्या कर दी गई थी. यह घटना तब घटी जब मुजीब रहमान देश के राष्ट्रपति बने हुए लगभग चार वर्ष ही बीते थे. इस नरसंहार में हसीना के परिवार के 18 सदस्यों की जान चली गई थी. इस घटना ने पूरे बांग्लादेश में सदमा पहुंचा दिया, जिससे देश राजनीतिक अस्थिरता और सैन्य शासन की चपेट में आ गया.
हसीना उस समय अपने पति वाजिद मियां के साथ जर्मनी में थीं. उनके पास कोई चारा नहीं बचा था सिवाय भारत में शरण लेने के. भारत ने 1971 के मुक्ति संग्राम में पाकिस्तान के खिलाफ बांग्लादेश की आजादी में निर्णायक भूमिका निभाई थी, इसलिए भारत आना उनके लिए सुरक्षित विकल्प था.
साल 2022 में इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में शेख हसीना ने खुद इस बाबत बताया था. उन्होंने उन दर्द भरे पलों को याद करते हुए कहा- "इंदिरा गांधी (तत्कालीन पीएम) की ओर से सुरक्षा और आश्रय की सूचना मिलने के बाद हमने यहां (दिल्ली) वापस आने का फैसला किया क्योंकि हमारे मन में था कि अगर हम दिल्ली गए, तो दिल्ली से हम अपने देश वापस जा सकेंगे, और तब हम जान पाएंगे कि परिवार के कितने सदस्य अभी भी जीवित हैं."
जर्मनी छोड़ने के बाद, हसीना को उनके परिवार, जिसमें उनके दो छोटे बच्चे भी शामिल थे, के साथ शुरू में दिल्ली में एक सुरक्षित घर में रखा गया था, जहां वे अपनी जान को खतरा होने के कारण कड़ी सुरक्षा के बीच रह रहे थे. उन्होंने 2022 के साक्षात्कार में बताया कि वह दिल्ली की गुप्त निवासी थीं.
भारत में रहना उनके लिए फायदेमंद साबित हुआ
भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत ने हसीना को तत्काल सुरक्षा और आश्रय दिया. हसीना का भारत में छह वर्षों का निर्वासन उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण और बदलाव भरा समय साबित हुआ. इस दौरान उन्होंने न केवल अपनी सुरक्षा सुनिश्चित की, बल्कि बांग्लादेश की राजनीति और अपनी विरासत को समझने का उन्हें मौका भी मिला.
पहले लाजपत नगर और फिर पांडारा पार्क पर जीवन बिताते हुए, हसीना ने परिवार की त्रासदी से उबरने और भविष्य की नींव रखने का प्रयास किया, जिसमें वह सफल भी रहीं और बांग्लादेश की पीएम भी बनीं. भारत की मेजबानी ने हसीना को नई ताकत दी, जो बाद में बांग्लादेश की राजनीति में उनकी वापसी का आधार बनी थी. लेकिन नियति...
विकास पोरवाल