Animal Movie Opinion: अल्फा मेल से नहीं, पोएट्री करने वालों से ही जिंदा है ये दुनिया

अगर ये दुनिया सिर्फ अल्फा मेल के ही भरोसे होती तो आज ये दुनिया होती ही नहीं, सच्चाई तो ये है कि जब-जब अल्फा मेल को अपनी ताकत का झूठा गुमान हुआ है, उसे सच से रूबरू कराने एक पोएट्री करने वाला ही सामने आया है. वह हर युग, हर काल और हर परिस्थिति में रहा है.

Advertisement
एनिमल के 'अल्फा मेल' वाले संवाद पर बहस जारी है एनिमल के 'अल्फा मेल' वाले संवाद पर बहस जारी है

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 14 दिसंबर 2023,
  • अपडेटेड 3:19 PM IST

साल था 1959. पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के हाल आज भी कुछ ठीक नहीं हैं, उस वक्त तो आवाम और भी खस्ताहाल थी. जनरल अय्यूब खान ने मार्शल लॉ लगा रखा था और हुकूमत का दूसरा नाम तानाशाही था. ऐसे ही माहौल में पाकिस्तान ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के रावलपिंडी स्टूडियो में मुशायरा हो रहा था. ये प्रोग्राम लाइव चल रहा था और एक-एक शायर आकर अपनी-अपनी नज्म-गजल पेश कर रहे थे. फिर बारी आई हबीब जालिब की. उन्होंने पढ़ा...

Advertisement

“कहीं गैस का धुआं है, कहीं गोलियों की बारिश
शब-ए-अहद-ए-कमनिगाही तुझे किस तरह सुनाएं”

शेर पूरा ही हुआ था कि तहलका मच गया. प्रोग्राम कराने वाले दंग रह गए, हुकूमत डर गई और आवाम को ताकत सी आती मिली. तुरंत ही प्रोग्राम का लाइव प्रसारण रोक दिया गया और अगले ही पल इस शायर हबीब जालिब की गिरफ्तारी का फरमान आ गया. जालिब साहब की यह पहली गिरफ्तारी थी. जाहिर है, कि जिस मिजाज के आदमी हबीब जालिब थे, अपनी कलम की धार से वो जिंदगी भर हुकूमत से टकराते रहे. हुकूमतें उनसे डरती रहीं और उन्हें जेल भेजती रहीं. 

शायर हबीब जालिब

बीती सदी के इतिहास का ये किस्सा बयान करने का मकसद सिर्फ इस बात की ओर ध्यान दिलाना था कि आम आवाम को ये अंदाजा लग जाए कि एक पोएट्री करने वाले में कितना दमखम होता है. वह अपनी पोएट्री सिर्फ माशूका के लिए नहीं करता, न ही उससे चांद-सितारे तोड़ लाने के वादे में शेरों-शायरी के हर्फ खर्च करता है. एक पोएट्री करने वाला कई बार जब एक नुक्ता भी लगाता है, तो तानाशाही हुकूमतों के तख्त पर ये नुक्ते बम के गोलों की तरह विस्फोट करते गिरते हैं. 

Advertisement

लेकिन कितनी आसानी से एक फिल्म अपनी एक लाइन में पोएट्री करने वालों के लिए कह देती है कि 'वो जलन के मारे हैं. अल्फा मेल तो बन नहीं सके, इसलिए पोएट्री करने लगे और चांद-तारे लाने का झूठ बोलने लगे.' दो हफ्ते हो चुके हैं. रणबीर कपूर की फिल्म एनिमल का फीवर अब भी सिर चढ़कर बोल रहा है, लेकिन असली मर्द और पोएट्री करने वालों के बीच लकीर खींचता ये संवाद अजीब सी झुंझलाहट पैदा करता है.

इसकी एक वजह ये भी है, ये बात उसी सिनेमा के जरिए कही गई है, जिसका जन्म ही कविताओं के गर्भ से हुआ है. काव्य की विस्तृत पहुंच को जब आंखों से देखने की लालसा हुई तो सिनेमा का जन्म हुआ, वो भी तुरंत नहीं, बल्कि कई अलग-अलग विधाओं से होते हुए ये कला सिनेमा बनकर सामने आई. ये संवाद ऐसा है, जैसे कोई अपना, अपने को ही नकार दे और गाली देने लगे.  

अगर ये दुनिया सिर्फ अल्फा मेल के ही भरोसे होती तो आज ये दुनिया होती ही नहीं, सच्चाई तो ये है कि जब-जब अल्फा मेल को अपनी ताकत का झूठा गुमान हुआ है, उसे सच से रूबरू कराने एक पोएट्री करने वाला ही सामने आया है. वह हर युग, हर काल और हर परिस्थिति में रहा है. सच्चे वीरों में कविता और कला का एक गुण हमेशा मौजूद रहा है. कविता सिर्फ शांतिकाल में दिल को सुकून पहुंचाने की दवा नहीं रही है, बल्कि वो युद्धकाल में पुरुष के भीतर पौरुष का संचार करने का जरिया भी बनी है. उसने जब किसी राजा-शासक, वीर या क्षत्रिय (अल्फा मेल) को अपने पथ से भटकते देखा तो तुरंत उसे आगाह किया. 

Advertisement

बहुत दूर नहीं जाते हैं. पाकिस्तान की बात तो शुरू में हो गई, हिंदुस्तान की बात भी जान लीजिए. लालकिले पर एक कवि सम्मेलन हो रहा था. इसकी अध्यक्षता कविवर रामधारी सिंह दिनकर कर रहे थे और प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू मुख्य अतिथि थे.

मंच की सीढ़ियां चढ़ते हुए पं. नेहरू कुछ लड़खड़ा गए तो दिनकर ने उन्हें संभाल लिया. पंडित नेहरू ने उन्हें धन्यवाद कहा तो दिनकर ने जवाब दिया, इसमें धन्यवाद कैसा. सत्ता जब लड़खड़ाती है तो कविता उसे ऐसे ही संभालती है.

ये वही दिनकर हैं, जिन्होंने अपनी कविता 'हुंकार' लिखी और आपातकाल के विरोध में जब जनता लोकनायक जय प्रकाश नारायण के साथ सत्ता के विरोध में जुड़ती चली गई तो ये उनकी सशक्त आवाज बन गई. भारत के हर गांव-गली, चौराहे-चौबारे से 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' का सुरसोता बहने लगा. अंजाम ये हुआ कि इंदिरा गांधी की तबकी सरकार को सत्ता से वंचित होना ही पड़ा. ये कविता का ही प्रभाव था. 

कविवर रामधारी सिंह दिनकर

ये कहीं और की नहीं, इसी भारत की दास्तान है. गोरखपुर की जेल में जब क्रांतिकारी बिस्मिल को फांसी दी जा रही थी, तो वह जोर-शोर से उसी 'वंदे मातरम' गीत का नारा बुलंद कर रहे थे, जिसे एक पोएट्री करने वाले बंकिम चंद्र चटर्जी ने लिखा था. सिर्फ बिस्मिल ही क्यों, पहले क्रांतिकारी मंगल पांडे, वासुदेव बलवंत फड़के, तरकुलहा में फांसी पाए शहीद बंधू सिंह और उनके 21 साथी, अल्फ्रेड पार्क में अपनी ही गोली से शहीद होने वाले आजाद, लाहौर जेल में फांसी पाए भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु, सबके होठों से मरते दम तक यही मतवाला गीत आरती बनकर फूट रहा था. 

Advertisement

आप भारत के किसी पेड़ की टहनी-शाखों को छू लीजिए. हर शाख किसी गुमनाम क्रांतिकारी का नाम लेगी और उसकी याद में पत्ते जब सरसराएंगे तो वंदे मातरम की धुन बजाएंगे. ये गीत किसी अल्फा मेल से जलन रखकर किसी माशूका के लिए नहीं लिखा गया. बल्कि ये गीत तो लिखा गया उन बांकुरों के लिए जो इस मिट्टी में अपनी मां को देखते थे और उसी से प्यार में जान लुटाए जा रहे थे. 

चलिए कई सदी पीछे घूम आते हैं. साल 1192. इसी साल मुहम्मद गोरी ने तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को हराया और उन्हें बंदी बना लिया. कई जु्ल्म किए, आंखें निकाल लीं. मरने की घड़ी पास आ गई. तभी आते हैं कवि चंदबरदायी. एक सैनिक, लेकिन दिल से पोएट्री करने वाला. वह पोएट गोरी से कहता है, कि इन्हें मार तो रहे हो, लेकिन इसकी एक कला तो देख लो. आंखे नहीं हैं, लेकिन फिर भी ये सटीक निशाना लगाता है. गोरी को भरोसा नहीं हुआ. कहा-प्रमाण दिखाओ. चंद बोला- अभी देख लो. तुरंत ही रंगभूमि सजाई गई. मंच पर ऊंचे सुल्तान बैठा. एक ओर सात घंटे लगाए गए. चौहान को लाया गया और धनुष बाण दिए गए. घंटे बजे और ठीक तभी चंद ने छंद पढ़ा... 
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूकियो चौहान....
एक तीर सनसनाता हुआ आया और गोरी का सीना भेद गया. कविता करने वाले ने देश के अपमान का बदला लिया और झूठे अल्फा मेल को धूल चटा दी.

Advertisement

अल्फा मेल के दंभ को झुठलाती पोएट्री करने वालों की कई कहानियां मौजूद हैं. कितनी कहानियां सुनेंगे आप? चलिए एक वाकया और... रामायण जो हमारे जीवन का आधार है, उसके लेखक महर्षि वाल्मीकि, कवि थे, लेकिन उनकी पहली कविता क्या थी पता है? उनकी पहली कविता करुणा से फूटा हुआ एक श्राप था. जब उन्होंने एक बहेलियो को दो निर्दोष पक्षियों के प्राण हरते देखा तो उनके कंठ से कविता फूट पड़ी. 
मा निषाद प्रतिष्ठा त्वमगमः शाश्वती समाः
यत्क्रौंचमिथुनादेकम्, अवधीः काममोहितम्

वह बहेलिये को पूरे क्रोध में धिक्कारते हुए कहते हैं कि जिस तरह तुमने काम में मोहित क्रौंच के इस जोड़े को मार डाला है, मेरा श्राप है कि तू भी कभी शांति का अनुभव नहीं कर पाएगा. भारत की कवि परंपरा में कालिदास, शूद्रक, महाकवि भास, भाट, भवभूति जैसे न जाने कितने कवि हुए हैं, जिन्होंने सिर्फ प्रेम नहीं लिखा, बल्कि उसे समाज की सबसे बड़ी जरूरत बताया. उन्होंने उस काल में भी राजाओं की आलोचनाएं की और उन्हें खूब लताड़ा भी. शूद्रक ने तो मृच्छकटिकम् नाटक लिखकर उसमें राजा और राजदंड की आलोचना उस जमाने में की, जब दूसरी दुनिया में प्रजा के अधिकारों का सूरज अभी उगा भी नहीं था. 

राजा को देवताओं सरीखा जरूर बताया गया, लेकिन इसलिए नहीं कि वह खुद को देवता समझकर निरंकुश हो जाएं, बल्कि इसलिए ताकि वह इस संज्ञा को पाकर वैसा आचरण न करें जो उसे मानव से दानव बना दे, लेकिन इतिहास गवाह है जब-जब राजाओं ने ऐसा किया है, तो कवियों ने उन्हें दानव कहने में देर नहीं लगाई है. 

Advertisement

गीत-कविताओं, गजलों और बंदिशों में अगर गुल, गुलशन, गुलफाम होते हैं तो इनमें वक्त-जरूरत के मुताबिक गदर का जोश और तानाशाही को नकारने वाली बुलंद आवाज भी होती है. हम-आप माखन लाल चतुर्वेदी को कैसे भूल सकते हैं, जिन्होंने फूलों से बात कर उनकी भी अभिलाषा पूछ ली और लिखा, 
'मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक
मातृभूमि पर शीष चढ़ाने, जिस पथ जाएं वीर अनेक'

हम सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी सरस्वती पुत्री को कैसे नकार सकते हैं, जिनकी एक कविता ने पूरे भारत में शक्ति का संचार कर दिया था. 1857 की नायिका रानी लक्ष्मीबाई को लेकर दिया गया उनका संदर्भ आज भी रोंगटे खड़े कर देता है. 
'चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी
बुंदेले हर बोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी.'

कविवर मैथिली शरण गु्प्त की वो पंक्तियां चांद-सितारे वाले प्यार के लिए नहीं थीं, बल्कि वह स्वदेश से प्यार के लिए प्रेरित करती हैं. इनमें वह कहते हैं, 'जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं, वह हृदय नहीं वह पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं...

राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त

पाकिस्तान के एक और मशहूर शायर-नज्म बाज हुए हैं फैज अहमद फैज. उन्होंने एक दफा लिखा, 'गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले, चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले'.ये भी कहा कि 'मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग', लेकिन, जब उन्होंने हुकूमत की तानाशाही और कथित अल्फा मेल की शैतानियां देखीं तो ये कहने से भी नहीं चूके कि, 'हम देखेंगे, लाजिम है हम भी देखेंगे, हम देखेंगे.... सब ताज गिराए जाएंगे, सब तख्त उखाड़े जाएंगे.' हुकूमत उनसे डर गई. उसकी मर्दानगी को जितनी टक्कर बराबर के मर्दों से नहीं मिली, उसे कहीं अधिक जोर का झटका इस नज्म के फैलने से मिला. 

Advertisement

सिनेमा की ही बात करें तो इसी सिनेमा में देश प्रेम से भरे हुए ऐसे-ऐसे गीत लिखे गए हैं, जो दिल की धड़कन तो बढ़ा ही देते हैं और साथ ही हमें गर्व का अनुभव भी कराते हैं. कवि प्रदीप को कोई कैसे भूल सकता है, जिन्होंने 'ए मेरे वतन के लोगों' जैसा मशहूर गीत लिखा. कहते हैं कि इसे सुनकर पीएम रहे नेहरू भी सुबक उठे थे.  "चल चल रे नौजवान, दूर हटो ऐ दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है", आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ, ऊपर गगन विशाल", "हम लाये हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के", ऐसे न जाने कितने ही देश के प्राणप्रिय गीत सिनेमा के गुलदस्ते में उन्होंने सजाए हैं. उनका ये उपहार 'अल्फा मेल' वाली बहस से बहुत बड़ा है.

इसी एनिमल फिल्म का सबसे मशहूर गाना, 'अर्जुन वैली' भी एक बहादुर की बहादुरी का गीत है. उसे भी पोएट्री करने वाले ने लिखा है और गाया है. फिल्म के कहे पर मत जाइए, न ही उसके बताने से पोएट्री करने वालों की शान पर बट्टा लग रहा है. पोएट्री का परचम बुलंद था, है और हमेशा रहेगा. 
 

---- समाप्त ----

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement