विधेयकों पर मंजूरी के लिए समयसीमा तय करने को संविधान में संशोधन जरूरी, SC की बड़ी टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम टिप्पणी करते हुए कहा है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने के लिए समयसीमा तय करने हेतु संविधान में संशोधन करना जरूरी होगा. ये बात चीफ जस्टिस बीआर गवई की अगुआई में एक संविधान पीठ ने कही है, क्योंकि वर्तमान संविधान में ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है.

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सुप्रीम कोर्ट. (Photo: ITG) सुप्रीम कोर्ट. (Photo: ITG)

संजय शर्मा

  • नई दिल्ली,
  • 03 सितंबर 2025,
  • अपडेटेड 12:53 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर मंजूरी के लिए समयसीमा तय करने के लिए संविधान में संशोधन करना जरूरी होगा, क्योंकि वर्तमान संविधान में ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है. ये टिप्पणी चीफ जस्टिस बीआर गवई की अगुआई में पांच जजों की संविधान पीठ ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए संदर्भ (अनुच्छेद 143) पर सुनवाई के छठे दिन की गई है. इस संविधान पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी एस नरसिम्हा और जस्टिस अतुल एस चंदूरकर भी शामिल हैं.

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सीजेआई गवई ने कहा कि अदालत यह जांच करेगी कि क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए निर्णय लेने के लिए एक स्ट्रेटजैकेट फॉर्मूला निर्धारित कर सकते हैं? साथ ही इस पर विचार करेंगे कि प्रथम दृष्टया हमें लगता है कि 'जितनी जल्दी हो सके' ये सबसे अच्छा विकल्प है. लेकिन क्या ये पर्याप्त था, हम इसकी भी जांच कर रहे हैं. 

पीठ ने स्पष्ट किया कि राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों की शक्तियों से संबंधित राष्ट्रपति के संदर्भ पर उसका निर्णय इस बात से प्रभावित नहीं होगा कि कौन-सा राजनीतिक दल वर्तमान में सत्ता में है या पहले सत्ता में था.

इस संदर्भ में अदालत के अप्रैल 2025 के फैसले पर सवाल उठाया गया है. उसमें राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए सदन में पारित विधेयकों को मंजूरी देने पर निर्णय लेने के लिए तीन महीने की समयसीमा निर्धारित की गई है.

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सीजेआई गवई ने कहा कि हम उस मामले पर फैसला नहीं करने जा रहे, जिसके आधार पर राजनीतिक व्यवस्था सत्ता में है या सत्ता में थी. 

तुषार मेहात ने पेश किया उदाहरण

इस दौरान सुनवाई में वकीलों के बीच तीखी बहस हो गई. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने 1947 से लेकर अब तक विधेयकों पर देरी के उदाहरण पेश किए, लेकिन सीजेआई ने टोकते हुए कहा कि 1947 में अनुच्छेद 200 और 201 मौजूद नहीं थे. 

मेहता ने स्पष्ट किया कि उनका मतलब आजादी नहीं, बल्कि देश में संविधान लागू होने के बाद से ही था. जहां संविधान लागू होने की तारीख से, संविधान की अवमानना करते हुए कैसे व्यवहार किया गया था.

'दो गलतियां मिलकर सही नहीं होतीं'

सीनियर एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी ने मेहता की दलीलों का जवाब देते हुए कहा कि शासन की सभी बुराइयां 1947 से जुड़ी हैं, आपको ऐसा कहने की जरूरत नहीं है. दो गलतियां मिलकर सही नहीं होतीं. 

उन्होंने दलील दी कि कोर्ट को समय की जीवंत वास्तविकताओं और महसूस की गई आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखता है.

सिंघवी ने मेहता से अन्य राज्यों में हुई देरी की सूची मांगी, जिस पर मेहता ने कहा मेरे पास एक और चार्ट है, एक बार उन्हें ये चार्ट दिखाने दें. वहां भी हमारे ही प्रस्ताव और दलीलों का समर्थन ही मिलेगा.

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इस पर सीजेआई गवई ने दोनों को रोकते हुए कहा कि हम अदालत के मंच को राजनीतिक अखाड़ा नहीं बनने देना चाहते. वकीलों को कानूनी दलीलों तक ही सीमित रहना चाहिए.

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