मूछों पर ताव, चारों तरफ समर्थकों का हुजूम और छोटे सरकार जिंदाबाद के नारों की गूंज. बिहार (Bihar) के बाहुबली नेता और मोकामा से पूर्व विधायक अनंत सिंह ने पैरोल पर बाहर निकलते ही ललन सिंह की जीत का दावा किया. उन्होंने कहा कि ललन सिंह 5 लाख वोटों से जीत रहे हैं, अशोक महतो को हम जनबो नहीं करते हैं. हम घर के काम से जेल से बाहर आए हैं लेकिन जनता हमको भगवान मानती है, इसलिए हम जनता से गांव-गांव जाकर भेंट कर रहे हैं.
मीडिया से बात करते हुए समर्थकों के साथ होने के सवाल पर अनंत सिंह ने कहा कि लोग हमारे हैं, तो भीड़ किसकी होगी. चुनाव पर बात करते हुए अनंत ने कहा कि चुनाव कहीं है ही नहीं, ललन सिंह पांच लाख वोटों से जीत रहा है. अशोक मेहतो को हम जानते तक नहीं हैं.
किस आधार पर मिली पैरोल?
राज्य सरकार के गृह मंत्रालय ने अनंत को अपनी पुश्तैनी जमीन-जायदात के बंटवारे के लिए 15 दिनों की पैरोल पर रिहा करने का निर्देश दिया है. मुंगेर लोकसभा सीट पर 13 मई को होने वाली वोटिंग से पहले अनंत सिंह जेल से बाहर आए हैं. ऐसे वक्त में उनका जेल से बाहर आना बेहद अहम माना जा रहा है. अनंत सिंह, मौजूदा वक्त में पटना की बेऊर जेल में सजा काट रहे हैं.
'बाहुबल के सहार सीट जीतना चाह रहे...'
अनंत सिंह को पैरोल मिलने पर राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी ने कहा कि सरकार ने पैरोल दे दिया है लेकिन सरकार में बेचैनी बढ़ गई है. अब सरकार बाहुबल, धनबल का प्रयोग कर रही है और बाहुबल धनबल के भरोसे किसी तरह से कुछ सीट जीतना चाह रही है. लेकिन ये संभव नहीं क्योंकि जनबल तेजस्वी यादव के साथ है. जनता का बल लोकतंत्र में सबसे बड़ी ताकत है. सरकार चाहे किसी को भी पैरोल दे, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. सरकार दूसरों को क्या पैरोल देगी, खुद ही पेरोल पर है.
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NDA के लिए फायदेमंद हैं 'छोट सरकार'?
अनंत सिंह को उनके इलाके में लोग छोटे सरकार के नाम से जानते हैं. कभी नीतीश कुमार के बेहद खास रहे अनंत सिंह बाद में राजनीतिक कारणों से सीएम से दूर होते चले गए और लालू यादव के करीबी हुए. लेकिन अब एक बार फिर अनंत सिंह एनडीए के पाले में हैं. जानकारों का दावा है कि अनंत सिंह भले ही खुले तौर पर चुनाव प्रचार ना भी करें, तब भी वह अपने स्तर से जेडीयू के लोकसभा उम्मीदवार और पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह को फायदा पहुंचा सकते हैं.
कौन हैं बाहुबली अनंत सिंह?
'छोटे सरकार' और 'मोकामा के डॉन' कहे जाने वाले पूर्व विधायक अनंत सिंह का नाम ही बिहार में खौफजदा करने के लिए काफी है. कहते हैं कि मोकामा में अनंत सिंह की समानांतर सरकार चलती है.
कहानी यहां से शुरू होती है...
दिल्ली से हावड़ा के लिए ट्रेन पकड़ेंगे तो पटना से 40 मिनट बाद आएगा बाढ़. यहां दो अगड़ी जातियों राजपूत और भूमिहार की खूनी जंग का इतिहास रहा है. यहीं के लदमा में पैदा हुए अनंत सिंह. चार भाइयों में सबसे छोटे. बताया जाता है कि जिस वक्त अनंत सिंह पहली बार जेल गए, उनकी उम्र महज 9 साल की थी. उसके बाद वे जुर्म की दुनिया में ऐसे बढ़े कि बड़े-बड़े नेता भी उनके रुबाब के आगे घुटने टेकने लगे. अब सवाल उठता है कि जिस गंगा के तट पर बाहुबलियों का कोई अकाल नहीं है, वहां अनंत सिंह का इतना खौफ कैसे है.
दरअसल अनंत सिंह के बड़े भाई दिलीप सिंह बिहार के बाहुबली नेता थे. पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के प्रमुख लालू प्रसाद यादव की सरकार में मंत्री भी रहे. इसका मतलब राजनीति में शुरुआती पंजे मारना अनंत को भाई दिलीप ने सिखाया. 80 के दशक में कांग्रेस विधायक रहे श्याम सुंदर धीरज के लिए बूथ कब्जाने का काम करने वाले दिलीप उन्हीं को मात देकर जनता दल के टिकट पर विधायक (1990-2000) बने थे. सफेदपोश हो चुके थे और उन्हें दबदबा कायम रखने के लिए एक भरोसेमंद की जरूरत थी. ऐसे में लंबी-चौड़ी कद काठी और रौबदार रवैये वाले भाई से बेहतर साथी कौन हो सकता था, जो दो हत्याएं करके रंगदारी की राह पर आगे निकल चुका था.
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वैराग्य भी ले चुके थे अनंत
कहा ये भी जाता है कि कम उम्र में अनंत सिंह वैराग्य ले चुके थे. साधु बनने के लिए अयोध्या और हरिद्वार में घूम रहे थे. लेकिन साधुओं के जिस दल में थे, वहां झगड़ा हो गया. मन वैराग्य के संसार से उचटने ही लगा था कि सबसे बड़े भाई बिरंची सिंह की हत्या हो गई. फिर क्या था अनंत पर बदला लेने का भूत सवार हो गया. वे दिन-रात भाई के हत्यारे को खोजते रहे. एक दिन पता चला कि हत्यारा किसी नदी के पास बैठा है तो उसे मारने के लिए तैरकर नदी पार की और ईंट-पत्थरों से कुचलकर मार डाला.
नीतीश ने थामा था हाथ
लेकिन अनंत सिंह की कहानी एक शेपक की तरह आती है, उस कहानी के बीच, जो बिहार की राजनीति के दो सबसे ताकतवर ध्रुवों ने लिखी- नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव. बिहार में पिछले 30 वर्षों में इन्हीं दो नेताओं का शासन रहा है. एक जमाने में बिहार में जनता दल के दो बड़े नेता लालू और नीतीश साथ थे. लालू यादव सीएम बनें इसके लिए पूरा जोर लगाया नीतीश कुमार ने.
बात 1994 की है. लालू यादव को सीएम बने 4 साल हो चुके थे और नीतीश कुमार और उनके समर्थकों को साइड लाइन कर चुके थे. साल 1996 का लोकसभा चुनाव आया तो नीतीश को टेंशन होने लगी कि बिना लालू के समर्थन के नैया पार कैसे लगेगी क्योंकि बाढ़ के जातिगत समीकरण उनका गणित बिगाड़ रहे थे. तब उनकी नजर पड़ी रौबदार व्यक्तित्व वाले नेता अनंत सिंह पर. बाढ़ इलाके के जानकार अकसर बताते हैं कि साल 1996, 1998 और 1999 लोकसभा चुनावों में नीतीश कुमार के लिए अनंत का साथ कितना जरूरी था.
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अनंत से 'छोटे सरकार' का सफर
राजपूत और भूमिहार की खूनी इतिहास का गवाह रहे बाढ़ में लोग रात में घरों से निकलने से भी डरते थे. लेकिन अनंत सिंह अपने भूमिहार समुदाय के रक्षक के रूप में उभरे. सितारे तब चमके जब नीतीश कुमार ने साल 2005 में जनता दल यूनाइटेड के टिकट पर उन्हें मोकामा विधानसभा से उतारा. इसे लेकर मीडिया में काफी बातें भी उछलीं कि नीतीश कुमार, जिन्होंने बिहार की राजनीति से अपराधिकरण को खत्म करने की कसम खाई थी, वे ऐसे शख्स को टिकट दे रहे हैं, जिसके खिलाफ संगीन मामले दर्ज थे. लेकिन बावजूद इसके अनंत सिंह मोकामा विधानसभा सीट से जीतने में कामयाब रहे. अजगर पालने के शौकीन अनंत सिंह साल 2005 से मोकामा विधानसभा सीट से विधायक हैं.
छठ पर धोती बांटना, रोजगार के लिए गरीबों को तांगे देकर मदद करना और रमजान के दिनों में इफ्तार करना. ये कुछ ऐसी बातें हैं, जिनके जरिए अनंत गरीबों के मसीहा और छोटे सरकार बन गए. उनके सामने नीतीश कुमार की हाथ जोड़ते हुए फोटो भी वायरल हो चुकी हैं. हालांकि साल 2015 में जब लालू और नीतीश साथ आए तो अनंत सिंह ने जेडीयू से इस्तीफा दे दिया. साल 2015 का विधानसभा चुनाव तो उन्होंने जेल से लड़ा था. एक दिन भी प्रचार नहीं किया. लेकिन बावजूद इसके वो 18 हजार से ज्यादा वोटों से जीत गए थे.
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अनंत सिंह से जुड़े मामले
अनिकेत कुमार