आकृति (बदला हुआ नाम) को त्योहार मनाना बिल्कुल पसंद नहीं है. पिछली दिवाली के दिन उसने फेसबुक पर लिखा कि मैं तुम सबके इन त्योहारों में एकदम इंट्रेस्टेड नहीं हूं. मैं ये समय लाइफ में कुछ अच्छा करने में लगाना ज्यादा पसंद करती हूं. मुझे लगता है ये पकवान बनाना, रंगोली सजाना, शॉपिंग करना, लोगों से बिना मन मिलने-जुलने जाना, ये सब वक्त की बर्बादी है. ईमानदारी से कहूं तो मुझे ये सब शोरगुल मचाते लोग बहुत चिढ़ पैदा करते हैं.
आकृति इस कतार में अकेली नहीं हैं. हमारे आसपास ऐसे बहुत से लोग हैं जो किसी त्योहार या बड़े आयोजन को सेलिब्रेट करना एकदम पसंद नहीं करते. ऐसे मौकों पर वो कमरा बंद करके अकेला रहना पसंद करते हैं. कई लोग तो उत्सवों पर बहुत डिप्रेस भी फील करते हैं. ऐसे लोग एक अलग तरह की मानसिकता से पोषित लोग हैं जो न खुद उत्सवधर्मी होते हैं और न ही उन्हें उत्सवधर्मिता ही पसंद है. मनोविज्ञान में इसके पीछे कई कारण बताए जाते हैं.
कहीं ये Anhedonia तो नहीं?
एम्स दिल्ली के साइकेट्रिस्ट डॉ अनिल शेखावत ने कहा कि ये भाव मानवीय प्रवृत्तियों और व्यक्तिगत परिस्थितियों पर निर्भर करता है. कई बार इंसान के आसपास का सोशल स्ट्रक्चर, उसकी परवरिश और जैविक आधार सब मिलकर उसकी पर्सनैलिटी को ऐसा बनाते हैं कि उसे एक समय के बाद एक ही तरह के उत्सवों से खुशी मिलना कम हो जाती है. ये उसे एक जैसे आयोजन मानने लगता है जिसमें कोई प्रयोगधर्मिता नहीं है. कुछ लोग इसमें लॉजिक का प्रश्न भी लाते हैं कि क्यों हम पुरानी धारणाओं पर इस तरह का दिखावा लगातार करते जा रहे हैं, इससे उन्हें खुशी मिलना कम हो जाती है.
डॉ शेखावत कहते हैं कि इसे मानसिक चिकित्सा की भाषा में anhedonia कहा जाता है. ये एक ऐसी मानसिक स्थिति होती है जिसमें व्यक्ति उन कार्यों में रुचि खो देते हैं जिनका पहले वो आनंद लिया करते थे. ये एक तरह से आनंद अनुभूति की क्षमता में कमी होती है. इसे डिप्रेशन का एक लक्षण माना जाता है, हालांकि ये एक सामान्य मानसिक विकार भी हो सकता है. कई लोगों को एन्हेडोनिया की शिकायत है मगर वो कोई बड़ी समस्या नहीं है. इसे इस तरह से समझना चाहिए कि अगर ये सिर्फ त्योहारों पर ही महसूस होता है तो इतना चिंताजनक नहीं है, लेकिन ये जीवन के सभी आयामों जैसे म्यूजिक, सेक्स, फूड या किसी सोशल गैदरिंग में भी होने लगे, जब किसी की हर पहलू पर आनंद की अनुभूति कम होती जाए तो ये डिप्रेशन के लक्षण हैं. मनोचिकित्सा में इसे डिस्टीमिया भी कहा जा सकता है जिसमें उदासी, अनिद्रा, थकान, लो स्टीम, निराशा की भावना लगातार बनी रहती है. ये एक तरह का मूड विकार है जिसमें इंसान उत्सवधर्मिता से भी दूरी बना लेता है.
फेस्टिव एंजाइटी भी है वजह
सर गंगाराम हॉस्पि टल दिल्ली के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ राजीव मेहता कहते हैं कि इसे दो पहलू से देखना होगा. पहला पहलू सीधे-सीधे ये कहता है कि जिन लोगों में ऐसे त्योहारों को लेकर अधोमस्ति ष्क में किसी तरह का ट्रॉमा पहले से जगह बनाए होता है. मसलन त्योहार के आसपास किसी की डेथ हो गई, ब्रेक अप पेन से गुजरे या बचपन में कोई बुरी घटना देख ली या बचपन में त्योहारों पर परिवार में कलह और पैसों की कमी के कारण हीनभावना से गुजरे.
ऐसे लोग त्योहारों के मौके पर बहुत डाउन, अवसादग्रस्त या बेचैनी महसूस करते हैं. ये लोग त्योहार की रंगीनियां एकदम पसंद नहीं करते. वहीं दूसरे वो लोग होते हैं जो अवसादग्रस्त हैं. वो अपनी रेगुलर रूटीन तो फॉलो कर लेते हैं लेकिन रूटीन से हटकर किसी आयोजन के वक्त वो हाथ खड़े कर देते हैं. उन्हें अपने भीतर ऊर्जा का स्तर कम महसूस होता है. साथ ही उनकी एंजाइटी इस बात से ट्रिगर करती है कि उन्हें अब लोगों से मिलना-जुलना होगा. ये लक्षण मनोचिकित्सा में फेस्टिव एंजाइटी के अंतर्गत ट्रीट किए जाते हैं.
उनका दिमाग रूटीन से हटकर दूसरे कामों में सहभागिता के लिए तैयार नहीं हो पाता. ऐसे लोग अपने अवसाद को मानसिक कमजोरी मानते हैं और इस कमजोरी को छुपाने के लिए वो त्योहारों को न मनाने के लिए अलग तरह के बहाने देते हैं. वो इसे समय की बर्बादी बताते हैं और त्योहारों के मकसद पर भी सवाल खड़े करते हैं. उनकी चेतना उत्सवधर्मिता को स्वीकार करना चाहती है, लेकिन फिर भी उनकी मानसिक स्थिति उन्हें इसमें शामिल नहीं होने देती.
सोशल स्ट्रक्चर में बदलाव भी वजह
IHBAS दिल्ली के वरिष्ठ मनोरोग विशेषज्ञ डॉ ओमप्रकाश कहते हैं कि ये धारणा व्यक्तिगत मानसिकता से कहीं ज्यादा एक सोशल स्ट्रक्चर चेंज पर आधारित है, जिस पर अब तक किसी का ध्यान नहीं गया था. त्योहार इंसान की रूटीन लाइफ की परेशानियों को भुलाने के लिए मनाए जाते हैं. इस दौरान आपको अपनी उबाऊ और नीरस गतिविधियों से बाहर आने का मौका मिलता है. विशेष खाना और नए परिधान रोमांचक और दिलचस्प होते हैं. लेकिन आज जब कार्पोरेट कल्चर में वर्किंखग ऑवर्स ज्यादा हैं, साथ ही लोग फ्लैट कल्चर में रहते हैं. समाज की विस्थापन दर बढ़ी है, वो समाज में रहकर भी अपने आसपास के बहुत कम लोगों से परिचित हो पाते हैं.
इसके अलावा कल्चर बदला है, अब लोग त्योहारों पर रिलीज फिल्में देखते हैं, बाहर खाना खाते हैं और एकल परिवार में साथ रहकर समय बिताते हैं. ऐसे में देश में त्योहार मनाने की हमारी विरासत, संस्कृति और रीति-रिवाजों के साथ निकटता घटी है. अब केवल व्यक्ति ही नहीं बल्कि पूरे समाज में इस उत्सवधर्मिता की भावना की कमी है. लोग बहुत व्यस्त रहते हैं, हालांकि साल और त्योहारों के लिए दी गई छुट्टियां उनके लिए शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से आराम करने के लिए पर्याप्त होती हैं तो वो त्योहार पर आराम करने को ही तरजीह देते हैं. वे ऐसी किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं होना चाहते जो कि उन्हें क्लब कल्चर से कमतर लगती हो.
वहीं अगर खानपान और व्यंजन की बात करें तो पहले केवल उत्सवों पर ये व्यंजन बनते थे, अब सभी 365 दिन उपलब्ध हैं. कपड़े खरीदने का कल्चर भी बदला है, अब लोग जब चाहें अपने लिए आउटफिट्स खरीद सकते हैं. इस तरह के सोशल स्ट्रक्चर ने लोगों में स्ट्रेस, एंजाइटी और डिप्रेशन को बढ़ाया है. ये मानसिक समस्याएं भी लोगों को अकेले रहने को मजबूर करती हैं.
अगर आपको भी नहीं पसंद त्योहार मनाना तो क्या करें
मानसी मिश्रा