Valentine week... कबीर, तुलसी, रहीम, मीरा, माघ, घाघ, भारवि के अनुसार क्या है प्रेम?

भारत में सनातन परंपरा का सबसे पहला रिटेन डॉक्यूमेंट वेद हैं और इनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन हैं. ऋग्वेद में 'प्रेम' शब्द प्रमुखता से आया है. यहां प्रेम विवाह का भी वर्णन है और प्रेम को निभाने के लिए त्याग जैसी भावना को भी जरूरी बताया गया है. त्याग ही प्रेम की धुरी है. इसके अलावा संत कबीर, रहीम, तुलसीदास, मीरा और संस्कृत में माघ, भारवि जैसे कवियों ने प्रेम की व्याख्या की है.

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वैलेंटाइन वीक से पहले जानिए क्या है प्रेम (Photo_ Meta AI) वैलेंटाइन वीक से पहले जानिए क्या है प्रेम (Photo_ Meta AI)

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 06 फरवरी 2025,
  • अपडेटेड 2:14 PM IST

इधर फरवरी शुरू हो गई है और हिंदी में माघ चल रहा है. भारत में ये दोनों ही महीने ऐसे समय में आते हैं, जब लगता है कि धरती थोड़ी दूर से ही सूरज से आग ताप रही है. मौसम न ठंडा है और न गर्म. हवा भी खुशगवार है और आसमान में भी आसमानी रंग खुल कर खिल रहा है. कुल मिलाकर बात ये है कि प्यार वाला महीना चल रहा है. इजहार, इकरार, वादे-दावे, बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं. 'जी करदा दिला दूं तैनूं बुर्ज खलीफा' से लेकर 'बन जा तू मेरी रानी तैनूं महल दिवां दूंगा' तक के वादों के सिलसिले आम हैं. 

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ठहरो दोस्त... ये प्यार वाला मसला है. इसमें बड़ी-बड़ी बातों से काम नहीं चलेगा. पहले जरूरी है कि आप प्यार को ठीक से समझ लीजिए, ये बला क्या है. जिगर मुरादाबादी कह गए हैं, 
ये इश्क़ नहीं आसां इतना ही समझ लीजे 
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है...

बात सिर्फ इतनी सी नहीं है, प्रेम क्या है? ये सवाल इंसानी जेहन में शायद उस ख्याल से भी पहले आग की तरह जला होगा, जब खुद आग भी नहीं जली होगी. ब्रह्मांड के अस्तित्व में आने के बाद ये सबसे पहली शय है, सबसे पहली भावना और जज्बात हैं जो हाड़-मांस वाले किसी भी जीव ने महसूस किए होंगे. 

ऋग्वेद में प्रेम का वर्णन
भारत में सनातन परंपरा का सबसे पहला रिटेन डॉक्यूमेंट वेद हैं और इनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन हैं. ऋग्वेद में 'प्रेम' शब्द प्रमुखता से आया है. यहां प्रेम विवाह का भी वर्णन है और प्रेम को निभाने के लिए त्याग जैसी भावना को भी जरूरी बताया गया है. त्याग ही प्रेम की धुरी है और यह प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे की परीक्षा न लें कि कौन कितना त्याग कर सकता है, बल्कि एक-दूसरे के लिए अपनी ओर से त्याग के सबसे ऊंचे स्तर से बिल्कुल न चूकें. 

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ऋग्वेद के 10वें मंडल के 85वें सूक्त को विवाह सूक्त कहा गया है. इसमें विवाह का वर्णन है. सूर्य की पुत्री के प्रेम विवाह की कथा है. इसके साथ ही घर-परिवार और समाज के साथ वैवाहिक दंपतियों के व्यवहार का उपदेश भी है. ऋग्वेद के 10वें मंडल का 191वां सूक्त अंतिम सूक्त है, जहां प्रेम और सौहार्द का वर्णन है. इसे ऋग्वेद का सौमनस्य सूक्त कहा गया है.

संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ ।
इळस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर ॥1॥
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ॥2॥
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम् ।
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि ॥3॥
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ॥4॥

ऋग्वेद में स्त्री-पुरुष के बीच पनपने वाले प्रेम संबंध की चर्चा के ही साथ, प्राणियों के बीच भी प्रेम की कामना की गई है और इस कामना की पूर्ति के लिए होता (यज्ञ करने वाले) ने अग्नि में हवि समर्पित की है. यहीं से आगे चलकर प्रेम अपनी परिभाषा को गढ़ता है. इस परिभाषा में शामिल है कि प्रेम में छल की कोई जगह नहीं है, अभिलाषा की कोई जगह नहीं, प्रेम दो होने नहीं बल्कि दो के एक हो जाने का नाम है. बाद के समय में जितने भी कवि-लेखक, विचारक और दार्शनिक हुए हैं वह प्रेम की व्याख्या की इसी लीक पर चलते रहे हैं और इसमें अपना भी अनुभव जोड़ते गए हैं. 

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जब पहली बार आदिकवि वाल्मीकि ने प्रेम को समझा
आदिकवि वाल्मीकि जब अपना सबसे जरूरी ग्रंथ श्रीमद् रामायण लिखने की योजना बना रहे थे तो कई दिन वह बहुत ही ऊहापोह की स्थिति में रहे. वह यह समझ नहीं पा रहे थे कि रामकथा का लेखन कहां से करें. इसी उधेड़बुन में एक दिन वह मनसा नदी में स्नान करने जा रहे थे. मौसम सुहाना था और नदी तट पर एक पेड़ पर क्रौंच पक्षी का जोड़ा कामक्रीड़ा कर रहा था. ऋषि इस दृश्य को देखकर प्रसन्न हुए कि इसी बीच एक सनसनाता हुआ तीर आया और क्रौंच पक्षी को बेध गया. नर पक्षी को मरता देख, मादा पक्षी ने भी सिर पटक-पटक कर अपने प्राण दे दिए. आदिकवि, जो अब तक कविता से रिक्त थे, वह प्रेम और विषाद दोनों भावों से एक साथ भर उठे. 

उन्होंने पूरे क्रोध में दाहिना हाथ ऊपर उठाकर एक श्रापयुक्त श्लोक पढ़ा.

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥' 

हे शिकारी, तूने जिस तरह काम में रत पक्षियों के इस सुंदर जोड़े को अपने तीर से अलग कर दुख दे दिया है, मैं तुझे श्राप देता हूं कि तू कभी जीवन में शांति का अनुभव नहीं कर पाएगा. 

आदि कवि के दुख से उपजे स्वर काव्य में बदल गए और इस तरह रामायण का पहला श्लोक लिखा गया. सवाल है कि तो क्या दुख ही प्रेम की पूंजी है. क्या ये उससे ही उपजता है? इस प्रश्न का उत्तर सृष्टि को उत्पन्न करने वाले ब्रह्मा खुद मनु और शतरूपा को देते हैं.

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भागवत पुराण के अनुसार, ब्रह्नदेव ने अपने हृदय के शुद्ध भाव से चार बाल ऋषियों को उत्पन्न किया. इन्हें सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार कहा जाता है. ब्रह्न देव ने इनसे ज्ञान प्राप्त करने को कहा और आदेश दिया कि जब वे बड़े हो जाएं तो विवाह कर सृष्टि का संचालन करें. अपने समान संतान उत्पन्न करें. चारों कुमार ज्ञान के लिए चले गए, लेकिन कुछ दिनों बाद ब्रह्न देव ने जब उनसे आदेश के दूसरे चरण यानि कि संतान उत्पन्न करने के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया और कहा कि उनकी ज्ञान की प्यास बुझी नहीं है, इसलिए वह विवाह नहीं करना चाहते हैं. तब ब्रह्नाजी ने उन्हें सदैव बालपन में रहने और ज्ञान प्राप्त करते रहने का श्राप दिया. 

ब्रह्मा ने जब बनाए पहले स्त्री-पुरुष युगल
इसके बाद ब्रह्ना ने हर्ष-विषाद, सुख-दुख, राग-द्वेष और ममता-कठोरता और प्रेम की भावना को अलग-अलग हिस्सों में बांटा और फिर अपने शरीर के दाएं भाग से पुरुष यानी मनु और बाएं हिस्से से शतरूपा यानी श्रद्धा को प्रकट किया. इन दोनों के भीतर हमेशा एक होने की भावना विकसित की और फिर मनु से कहा, हे मनु तुम पहले प्रेम का विस्तार करो और फिर शतरूपा के साथ संतति को आगे बढ़ाओ. 

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कवि जयशंकर प्रसाद ने इस बातचीत और मनु-शतरूपा के प्रथम मिलन के भाव को अपनी रचना कामायनी में शब्द दिए हैं. यहां उन्होंने शतरूपा को श्रद्धा कहा है.

युगों की चट्टानों पर सृष्टि
डाल पद-चिह्न चली गंभीर;
देव, गंधर्व, असुर की पंक्ति
अनुसरण करती उसे अधीर।

“एक तुम, यह विस्तृत भू-खंड
प्रकृति वैभव से भरा अमंद;
कर्म का भोग, भोग का कर्म
यही जड़ का चेतन आनंद।

अकेले तुम कैसे असहाय
यजन कर सकते? तुच्छ विचार!
तपस्वी! आकर्षण से हीन
कर सके नहीं आत्म विस्तार।

दया, माया, ममता लो आज,
मधुरिमा लो, अगाध विश्वास;
हमारा हृदय रत्न निधि स्वच्छ
तुम्हारे लिए खुला है पास।

बनो संसृति के मूल रहस्य
तुम्हीं से फैलेगी वह बेल;
विश्व भर सौरभ से भर जाए
सुमन खेलो सुंदर खेल।

कालिदास की रचना में प्रेम
यह प्रेम की पहली शब्दावली है जो मौन भी रही है गूंज से भरी पूरी भी. यहीं से प्रेम अध्यात्म की सीढ़ी भी चढ़ता है, बल्कि यूं कहिए कि अध्यात्म खुद प्रेम की सीढ़ी पर चढ़कर अपने सबसे ऊंचे शिखर पर पहुंचता है. महाकवि कालिदास ने अपनी रचनाओं में इस आध्यात्मिक प्रेम की कई-कई बार व्याख्या की है. उनकी रचना कुमार संभव से शिव-पार्वती के रहस्यमय प्रेम की एक बानगी देखिए.  
कठिन तपस्या के बाद पार्वती के सामने शिव आते हैं तो उनकी क्या भावना है?

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सा किंचिदुन्मीलितलोचनाञ्चलाः
प्रबन्धनिद्राकुलिताशयालवः।
शिवेन सङ्गम्य सखीजनावृताः
स्फुरन्ति कन्दर्पशराभितापिताः।।

(अर्थ: पार्वती ने अपनी आँखें कुछ-कुछ खोलीं, जैसे वे कई जन्मों से खुलना ही भूल गई हैं और वह अब खुल रही हैं कि उनका खोला जाना अब जरूरी हो गया है. सखियों से घिरी पार्वती, शिव के आने की आहट से ही यूं विह्वल और विभोर हैं, जैसे कंदर्प (कामदेव) ने असंख्य तीर मारकर उन्हें घायल किया है. प्रेम की इस उत्तेजना में भी पार्वती अपने उसे नमः शिवाय मंत्र का जाप कर रही हैं और इस के लगातार जाप ने उनके तंत्रिका तंत्र को स्थिर किया.)

स्मितेन भाषाशिशिरेण चाक्षुषा
प्रसादसंनाहवतेन चानया।
निपीतपद्मद्वयया च पाणिना
स्वभावशुद्धेन मनोऽस्य तुष्यति।।

(अर्थ: शिव केवल योगी ही नहीं हैं, वे प्रेम में पूर्ण रूप से पिघलने वाले दिव्य प्रेमी भी हैं. जब वे पार्वती को देखते हैं, तो उनका हृदय भी प्रेम से भर उठता है. पार्वती के मधुर मुस्कान, उनकी शीतल दृष्टि, उनका सौम्य स्वभाव और उनके कोमल हाथों से किया गया स्पर्श,  इन सबने शिव के मन को तृप्त कर दिया.

महाकवि भारवि के काव्य में प्रेम
इसी तरह महाकवि भारवि से प्रेम की व्याख्या सुनिए तो आपकी बाजुएं फड़कने लगेंगी. भारवि प्राचीन संस्कृत काव्य में वीर रस के प्रधान कवि हैं, लेकिन बिना प्रेम और शृंगार के वीर की वीरता कहां जगह पाती है, लिहाजा किरातार्जुनीयम् में अर्जुन के तेज और उसके तप का प्रभाव बताने के लिए वह कामदेव को भी मैदान में खींच लाते हैं. इसकी बानगी देखिए.

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'स्फुरदधरपल्लवकान्तिवशादनङ्गलक्ष्मीश्चकितेव बभूव।'

इसका अर्थ है कि अर्जुन के तप से स्फूर्त कांति वाले शरीर को देखकर और उसकी कठिन तपस्या के संकल्प को जानकर प्रेम के देवता कामदेव भी लजा गए और वह इंद्र का मनोरथ पूरा न कर पाने के कारण शर्म से ऐसे कुम्हला गए, जैसे लक्ष्मी से शोभा पाने वाला कमल पुष्प भी रात होने पर कुम्हला जाता है.

महाकवि माघ ने प्रेम को कैसे समझाया है?
भारवि के इसी प्रेम को महाकवि माघ तो और आगे ले गए हैं. अपनी रचना शिशुपाल वध में वह प्रेम को बड़े ही दार्शनिक अंदाज में सामने रखते हैं, जहां प्रेम वह भाव बन जाता है, जिसके बाद इच्छा और कामना की कोई जगह नहीं है. यह प्रेम अश्लील नहीं है, बल्कि निश्छल है और पवित्र है. माघ प्रेम को भक्ति का मार्ग भी बताते हैं. 

"न हि प्रेमावगच्छन्ति न तेषां विदिता स्पृहा।
मत्तद्विपदरीदंष्ट्रः स्रवन्ति मदगन्धिनः॥"

(अर्थ: प्रेम की वास्तविक अनुभूति उन्हीं को होती है, जो उसमें पूर्णतः डूबे होते हैं. जो केवल बाहरी आकर्षण में फंसे रहते हैं, वे प्रेम की सच्ची अनुभूति नहीं कर सकते. यही ईश्वरीय मार्ग भी है.)

मीरा का प्रेम तो अतुलनीय है...
प्रेम की इसी ताकत को दुनिया के सामने रखती हुए मीरा कहती हैं कि मैं तो प्रेम में ही घुंघरूं बांध कर जम कर नाच रही हूं. विष का प्याला भी हंसकर पी जा रही हूं. दुनिया के लोक-लाज को भूल रही हूं और याद है तो मुझे सिर्फ एक गोविंद, जो मेरे लिए पति, स्वामी, सखा, ईश्वर सबकुछ है. 

विष का प्याला राणा भेज्यो, पीवत मीरा हांसी रे, 
लोक कहे मीरा भई बावरी, सास कहे कुलनासी रे

तुलसी के राम और उनका प्रेम
प्रेम क्या है, इसे तुलसी के राम से भी समझिए तो इसकी अलग ही व्याख्या मिलती है. पुष्प वाटिका में वह सीता को पहली बार देखते हैं और जड़वत खड़े रह जाते हैं, सीता भी उन्हें निहारती रह जाती हैं. तुलसी ने इस पूरे प्रसंग को देखिए, किस खूबसूरती से पिरोया है. 

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥2॥
 देखि सीय शोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥3

श्रीराम और सीता ने पु्ष्पवाटिका में जैसे ही एक-दूसरे को देखा तो उनकी पलकें गिरना भूल गईं यानी वो एक-दूसरे को देखते रहे. ऐसा लगा कि जैसे महाराजा निमि (जो कि सीता जी के पूर्वज हैं और सबकी पलकों में रहते हैं) ने पलकों में रहना ही छोड़ दिया क्योंकि यह उनकी बिटिया-दामांद के मिलन का वक्त था. रघुवंशी, जो सपने में भी पराई स्त्री को आंख उठाकर नहीं देखते हैं, लेकिन यहां श्रीराम और सीता जो एक-दूसरे के लिए ही बने हैं और ब्रह्मा के आदेश से ही ऐसा कह रहे हैं. तुलसी दास ने 600 साल पहले लव एट फर्स्ट साइट का बहुत खूबसूरत वर्णन किया था.

प्रेम सिर्फ शरीर का आकर्षण नहीं
कुल मिलाकर बात ये है कि प्रेम सिर्फ शरीर का आकर्षण नहीं है, ये सिर्फ मन में उपजी हुई एक भावना का नाम नहीं है, बल्कि ये वो शाश्वत मंत्र है जो मनुष्य के न रहने पर भी रहता है. प्रेम आत्मा का ही पर्यायवाची है, ऐसा कई व्याख्या में कहा गया है, लेकिन प्रेम के बारे में सबसे सरलता से कबीर, रहीम और निर्गुण धारा के विभिन्न कवि भी बताते हैं. 

जब रहीम ने बताया प्रेम का असली मर्म
ये कवि सदियों पहले प्रेम की भाषा अपने दोहों में समझा चुके हैं तो इस राह पर जानने से पहले उनसे भी कुछ टिप्स ले लेते हैं. कबीर एक बात हर बार कहते हैं कि, प्रेम निश्चल एवं निस्वार्थ होता है. वहीं रहीम भी कहते हैं कि स्वार्थ की भावना आते ही प्रेम खत्म हो जाता है. वह कहते हैं कि, प्रेम का मार्ग बहुत ही फिसलन भरा है. इस पर चलना बहुत कठिन है

धनि रहीम गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय.
जियत कंज तजि अनत वसि, कहां भौरे का भाय..

रहीम इसे ऐसे कहते हैं कि, प्रेम ना तो पुराना होता है, और ना ही बदलता है. यही प्रेम का सत्य स्वरूप है. प्रेम के इसी स्वरूप को समझाने के लिए रहीम ने उदाहरण में कहा है कि, मछली का प्रेम धन्य है, जो जल से बिछड़ते ही अपने प्राण त्याग देती है.

यही रहीम प्रेम के एक और रूप को सराहते हैं, जहां दो लोगों के बीच का अंतर ही खत्म हो जाता है. जहां दो मिलकर एक हो जाते हैं. इस प्रेम की तुलना उन्होंने हल्दी एवं चूने से करते हुए कहा है कि जिस प्रकार हल्दी एवं चूना एक साथ मिला दिए जाने पर अपने व्यक्तिगत रंग को छोड़कर एक नया रंग बना लेते हैं, उसी प्रकार प्रेम में दो आत्माएं अपने-अपने अलग अस्तित्व को छोड़ क एक दूसरे से एकाकार हो जाती हैं.
रहिमन प्रीति सराहिये, मिले होत रंग दून.
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून.

रहिमन खोजे ईंख में, जहां रसनि की खानि.
जहां गांठ तहँ रस नहीं, यही प्रीत में हानि.

जिस तरह गन्ने में गांठ की स्थान पर रस नहीं होता, उसी तरह प्रेम में गांठ पड़ जाने पर प्रेम भाव नष्ट हो जाता है. यहां रहीम गांठ को छल, कपट अविश्वास के रूप में बता रहे हैं. 

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय .
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ बन जाए .

रहीम ने प्रेम की तुलना धागे से की है और कहा है कि धागे की भांति प्रेम संबंध भी अत्यंत कोमल एवं नाजुक होते हैं. इसे झटके से तोड़ देना अच्छा नहीं है. जिस प्रकार धागा टूट जाने पर जुड़ नहीं पाता और यदि जुड़ भी जाए तो उसमें गांठ बन जाती है. ठीक इसी प्रकार प्रेम संबंध भी टूटने पर जुड़ते नहीं और यदि जुड़ भी जाए तो व्यक्तियों के मन में गांठ बनी रह जाती है.

यह न रहीम सराहिये, लेन देन की प्रीति.
प्राणन बाजी राखिए, हार होय कै जीति.

कविवर रहीम जी ने कहा है कि जिस प्रेम में लेनदेन, अर्थात देने के बदले में लेने की भावना निहित हो, रहीम ऐसे प्रेम की सराहना नहीं करते. असली प्रेम तो वह है, जिसमें प्राणों की बाजी तक लगा दी जाती है. यह सोचें बिना, कि हार होगी या जीत, व्यक्ति प्रेम के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है.

रहिमन पैंडा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल.
बिछलत पाँव पीपीलिका, लोग लदावत बैल.

रहीम कहते हैं कि प्रेम की राह, प्रेम का मार्ग बहुत ही फिसलन भरा है. इस पर चलना बहुत कठिन है. एक चींटी, जिसका वजन ना के बराबर है वह भी इस मार्ग पर फिसल जाती है. और हम मनुष्यों को देखिए, जो अपने साथ बैल पर लादकर इस मार्ग पर चलना चाहते हैं. यह संभव नहीं है.

लोककवि घाघ को शब्दों में प्रेम
इसी तरह एक कवि हुए हैं घाघ, उन्होंने लोक और लोकोत्तियों का महाकवि कहा जाता है. कवि घाघ ने कई दोहों में प्रेम और विवाह को लेकर व्यावहारिक चेतावनियां भी दी हैं और प्रेम का अर्थ भी समझाया है. वे प्रेम में भावनाओं के साथ समझदारी और दूरदर्शिता को भी  महत्त्व देते हुए बताए जाते हैं..

उनकी बानगी देखिए...
"जेठ दुपहरी बयार ठंडी, नारी के मन मेल।
घाघ कहै समझाय के, मूरख का नहिं बेल॥"

(अर्थ: जिस तरह जेठ महीने की दुपहरी में ठंडी हवा मिलना मुश्किल है, उसी तरह कुछ स्त्रियों के मन में सच्चाई और प्रेम पाना कठिन हो सकता है. प्रेम में पड़े मूर्ख आदमी को प्रेम में समझाना व्यर्थ ही है.)

लेकिन, जब बात कबीर की आती है तो वह इसी मूर्खता को तो निश्छल बताते हैं. उनके अनुसार प्रेम में बुद्धि का प्रयोग नहीं किया जा सकता है. उनकी माने तो यह खालिस तौर पर दिल का मामला है और दिल के ही सच्चे लोग प्रेम भी पा सकते हैं और ईश्वर भी. वह अपनी साखी में प्रेमी को उस मनुष्य या आत्मा के रूप में परिभाषित करते हैं जो प्रियतम यानी ईश्वर के खोज में है और फिर उन्होंने प्रेम की बड़ी ही सरल व्याख्या की है. ये व्याख्या प्रेम के जरिए अध्यात्म को पाने की सीढ़ी भी है. 

प्रीति पुरान न होत है, जो उत्तम से लाग.
सौ बरसा जल मैं रहे, पत्थर न छोड़े आग. 

कबीर कहते हैं कि सच्चा प्रेम वह है, जहां एक बार किसी से मन लग गया तो अंतिम सांस तक मन उसी की कामना करता है. समय के साथ प्रेम भाव कम होने लगे तो वह सच्चा प्रेम नहीं है क्योंकि प्रेम कभी पुराना नहीं होता. जैसे सौ वर्षों तक भी पानी में रहने पर पत्थर से आग अलग नहीं होती.

कबीर यह भी कहते हैं कि, संसार में बहुत तरह के प्रेम होते हैं. विभिन्न व्यक्तियों को विभिन्न वस्तुओं या प्राणियों से प्रेम होता है. कबीर के अनुसार उत्तम प्रेम वही है जो राम के नाम से हो, अर्थात ईश्वर से हो. कहने का भाव यह है कि ईश्वर से किया गया प्रेम ही संसार में प्रेम का सर्वोच्च स्वरूप है. संसार में प्रेम का सर्वोच्च स्वरूप वह है जो परमात्मा परम ब्रह्म परमेश्वर से किया जाता है. 
प्रीति बहुत संसार में, नाना बिधि की सोय.
उत्तम प्रीति सो जानिय, राम नाम से होय.

कबीर की साधना में ज्ञान, योग और प्रेम तीनों ही भाव दिखाई देते हैं, लेकिन सभी खास प्रेम ही है. उनका ज्ञान भी प्रेम से भरा हुआ है, और उनका योग भी. उपनिषद् में व्याख्या की गई है कि,  ‘आत्मानमेव प्रियम उपासीत् ’ यानी ईश्वर को प्रिय समझकर उपासना करो. कबीर की प्रेम-साधना हमारी प्रेम सीमा से पर है. उनका प्रिय अविनाशी है पर उसे पाने के लिए भीतर का मोह मिटाना होगा, सहज बनना होगा .

इसके लिए कबीर आसान भाषा में कहते हैं कि
प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाटि बिकाय ।
राजा-परजा जिस रुचै, सिर देइ ले जाय ।।

कबीर का मानना था कि वासत्विक प्रेम में निरंतरता होती है. वह न घटता है, न बढ़ता है –

छिनहि चढ़े, छिन उतरे, सो तौ प्रेम न होय.
अघट प्रेम पिंजर बसै, प्रेम कहावै सोय ।।

कबीर एक बार फिर कहते हैं कि, प्रेम में समर्पण का भाव न हो तो वह प्रेम नहीं, दिखावा भर है. बल्कि कबीर में तो प्रेम की ऐसी उत्कंठा है कि वह खुद को उसकी बहुरिया भी कह देते हैं. मिलन की चाहत और तड़प उनकी साखी में की जगहों पर मिलती है. “उठत-बैठत बिसरत ना कबहूं ऐसी तारी लागि .” 

कबीर ने प्रिय अर्थात् परमात्मा से मिलन के लिए आध्यात्मिक विवाह का रूपक भी सामने रखा है. वह कहते हैं कि आत्मा से परमात्मा का जो मिलन होता है उसका मूल कारण प्रेम है. प्रेम की पूर्णता पति-पत्नी के संबंध में विशेष है . उन्होंने एक जगह कहा है कि, 

“कियो सिंगार मिलन के ताई, हरि न मिलै जग जीब गुसांई.
हरि मेरा प्रिय मैं हरि की बहुरिया, राम बड़े मैं तनक लहुरिया.

 
और जब प्रेम में एकाकार की बात आती है तो कबीर सबसे बड़े रहस्य को खोलते हैं. यही रहस्य हर प्रेम की कसौटी है. वह कहते हैं-
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाही,
प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समाहि

मैं यानी अहंकार है तो फिर आप प्रेम नहीं कर सकते. यह कोई ईश्वरीय बात नहीं है, बल्कि इसे साधारण शब्दों में देखें तो जो आज टॉक्सिक रिलेशिनशिप की बात सामने आती है, उसकी वजह अहंकार ही है. 

इस अहंकार का वर्णन अमीर खुसरो भी अपनी रचना में करते हैं. 
ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैनां बनाए बतियां
कि ताब-ए-हिज्रां नदारम ऐ जां न लेहू काहे लगाए छतियां
शबान-ए-हिज्रां दराज़ चूं ज़ुल्फ़ ओ रोज़-ए-वसलत चूं उम्र-ए-कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटू अँधेरी रतियां.

यहां अमीर खुसरो का सखी उनके औलिया हैं. वह परमात्मा को भी सखी पिया बता रहे हैं और बीते 700 सालों से दिल्ली के दिल में जहां हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह है, वहां इसी कव्वाली के साथ उन्हें याद किया जा रहा है. यह प्रेम की ताकत ही है, प्रेम का ही अर्थ है और प्रेम की व्याख्या ही है. ये दुनिया जब नहीं भी रहेगी तो भी प्रेम जिंदा रहेगा कि फिर से बन सकेगी कोई नई दुनिया.
 

---- समाप्त ----

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