दुनिया में हर किसी के पास कहने के लिए अपनी एक कहानी है, मगर कोई कहता है और कोई चाहकर भी नहीं कह पाता है. लेकिन इस सब में सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि आखिर किसकी कहानी लोग सबसे ज्यादा पसंद करते हैं? इसका एक सीधा सा नियम चलता आया है, कहानी वही पसंद की जाती है जो कहीं न कहीं हर पढ़ने-देखने वाले शख्स को यकीन दिलाए कि ये आपकी ही कहानी हैं. कुछ ऐसा ही कमाल किया है ऑस्कर विनिंग साउथ कोरियन फिल्म पैरासाइट के डायरेक्टर बोंग जून-हो ने. उन्होंने कोरिया की कहानी को पैरासाइट में ऐसे प्रजेंट किया है कि वो पूरी दुनिया को अपनी कहानी लगने लगी.
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ये फिल्म अब सिनेमाघरों से होते हुए भारतीय बाजार में डिजिटल प्लेटफॉर्म प्राइम वीडियो के जरिए आपके सामने है. ये रिव्यू आपकी मदद करेगा कि आप ये फिल्म क्यों देखें और देखने ना देखने के आधार क्या हैं?
यहां देखें ट्रेलर...
कहानी
कहानी की बात सबसे पहले कर लेते हैं क्योंकि फिल्म की जान वही है. पैरासाइट की कहानी अन्य किसी फिल्मों की तरह ही शुरू होती है. एक गरीब परिवार अपना पेट पालने के लिए हर कोशिश कर रहा है. वे गरीब हैं, पर उनमें जीने का हौसला है. वे गरीबी भी मिलकर काटते हैं और यहीं से उनका आगे बढ़ने कासंघर्ष शुरू होता है. एक सिंपल सी दिखने वाली कहानी कब आपकी धड़कनें बढ़ा देगी ये सोच आप खुद भी हैरत में पड़ जाएंगे.
खैर, कहानी की बात करें तो उस गरीब परिवार के एक लड़के को मौका मिल जाता है किसी बड़े घर की बच्ची को ट्यूशन पढ़ाने का और फिर वह कैसे अपने परिवार की जिंदगी उस बड़े परिवार से जोड़ देता है, यही इस फिल्म की मुख्य कड़ी है. गौर करने वाली बात ये है कि फिल्म की कहानी आपके दिमाग में हमेशा गरीब और अमीर के दो बक्से बनाते हुए चलती है, और बिना कोई विवशता या लाचारी दिखाए हुए आपको इसके सेंटर में चलना होगा. यानी कहीं आपको ये नहीं लगेगा कि आपको उनकी गरीबी पर तरस आना चाहिए या दूसरे परिवार की अमीरी से जलन हो. असली दुनिया की तरह फिल्म में भी सभी अपने कैरेक्टर को आगे बढ़ाते हैं वो भी संघर्ष के साथ.
पर परजीवी (पैरासाइट) या मुफ़्तखोरी की जिंदगी कितने दिन? क्लास डिस्क्रमिनेशन-लालच के हालात में भी परजीवी कहां हैं? और उसका अंत कैसे होता है? यही दो परिवारों की कहानी का मूल जुड़ाव है.
इससे सबसे ज्यादा जुड़ाव उस मिडिल क्लास को महसूस होगा जो दुनिया के सभी देशों में एक जैसा ही है.
फिल्म का डायरेक्शन कमाल
फिल्म की कहानी जितनी तगड़ी है उतनी मेहनत डारेक्टर और उनकी यूनिट की है. फिल्म की शुरुआत के 10 मिनट आपको बेहद सिंपल लगेंगे लेकिन जैसे ही फिल्म दस मिनट पार करती है तेजी से अपने चरम पर पहुंचती है. किसी कहानी या फिल्म में सबसे मुश्किल काम होता है मध्य के वक्त यानी वो कीमती 40-50 मिनट दर्शकों को बांधे रखना. स्टोरीटेलर के तौर पर भी मशहूर बोंग जून-हो फिल्म की कहानी को बांधकर रखते हैं. बीच में फिल्म का चरम इतने स्तर पर पहुंच जाता है कि आपका दिमाग तुरंत ही रिजल्ट पर पहुंचना चाहता है. फिल्म के हर सीन के साथ सांसें भी थम जाती हैं और जब निर्देशक अपने दर्शक को अपने हर सीन से बांध पाए ये किसी भी फिल्म निर्देशक के लिए कामयाबी ही है.
सिनोमेटोग्राफी, शूटिंग और लोकेशन
सिनोमेटोग्राफी ने मजबूती से निर्देशक के मन की बात को फिल्म में उतारा है. कैमरा वर्क बहुत ही अच्छा है. चुनौती थी एक तरफ अमीर पार्क्स की वैभवता-विलासिता दिखाने की तो दूसरी तरफ किम्स की फैमिली की गरीबी को भी उसी बखूबी से सामने लाना था. खासकर वेस्टर्न वर्ल्ड के लिए साउथ कोरिया से निकली कहानी में गरीबी को महसूस करना कठिन ही होता है. इसलिए कैमरा टीम ने इसका पूरा ख्याल रखा है और इसमें वे कामयाब भी हैं.
आप डायरेक्टर और कैमरा यूनिट की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि यह कहानी ना सिर्फ दो परिवारों के अंतर की है बल्कि दो बेसमेंट की है. और बेसमेंट में सीन शूट करना कितना कठिन होता है ये सबको पता है. फिल्म की एडिंग तो इतनी अनएक्सपेक्टेड है कि आप कुछ देर तक ये ही सोचते रहेंगे कि हुआ क्या. डायरेक्टर-राइटर ने फिल्म के एंड से अपनी कहानी के साथ न्याय किया है. हालांकि, हो सकता है कि कुछ लोगों को एंड थोड़ा अजीब लगे, लेकिन इसकी गारंटी है कि फिल्म पंसद जरूर आएगी.
खैर, फिल्म को पहले ही इस साल के चार ऑस्कर अवॉर्ड्स मिल चुके हैं. इस साउथ कोरियन फिल्म ने वेस्ट वर्ल्ड में धमाल मचाया, तारीफ भी बटोरी और पैसे भी कमाए. देखते हैं ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर यह कितनी पसंद की जाती है.
मोनिका गुप्ता