Nirmal Pathak Ki Ghar Wapsi Review: 'छोड़ के गईल आसान होला, रुक के बदले मुस्किल'... ये बात एक बेबस मां अपने उस बेटे से कहती है, जो 24 साल बाद दिल्ली जैसे बड़े शहर से घर लौटा है और किसी बात को लेकर झोला उठाकर घर से चल देता है. घर वाले उसे रोकने की तमाम कोशिश करते हैं, आखिर में बेटे निर्मल का सामना मां संतोषी से होता है और वह इन 9 शब्दों के जरिए उसे हालातों का पूरा बिंब समझाने की कोशिश करती हैं. ये सीन है वेब सीरीज 'निर्मल पाठक की घर वापसी' का. जो कि हाल ही में ओटीटी प्लेटफॉर्म सोनी लिव पर रिलीज हुई है. इसकी कहानी गांव के इर्द-गिर्द घूमती है. जिसमें परिवार, राजनीति, समाज की बुराइयां, समर्पण, इंतजार, खट्टी मीठी नोक झोक सभी का मिश्रण है.
क्या है वेब सीरीज की कहानी
हाल ही में हमने एक वेब सीरीज देखी थी 'पंचायत'. जो कि दर्शकों के दिमाग पर गहरी पैठ छोड़ गई. इसके ठीक बाद 'निर्मल पाठक की घर वापसी' में भी गांव का समाज और खेत खलिहान दिखाए गए हैं. लेकिन इसका मर्म अलग है. वेब सीरीज शुरू होने के साथ ही दिखती है एक ट्रेन, जिसमें निर्मल पाठक (वैभव तत्ववादी) 24 साल बाद दिल्ली से बक्सर लौट रहे हैं. रास्ते में बैग चोरी हो जाता है. उन्हें रिसीव करने आते हैं उनके छोटे भाई आतिश पाठक (आकाश मखीजा). बड़े भाई का गैंगस्टर स्टाइल में स्वागत होता है. दरअसल, निर्मल अपने छोटे भाई की शादी में शामिल होने और अपने पिता की अस्थियां गंगा में प्रवाहित करने बक्सर आता है. कई बरस पहले निर्मल के पिता जो कि लेखक थे, घर छोड़कर चले जाते हैं और अपने देहांत से पहले बताते हैं कि निर्मल की असली मां बक्सर में हैं. जब वह गांव आता है, तो पहली बार जन्म देने वाली संतोषी मां (अलका अमीन) से मिलता है. जिसे इस बात का बेसब्री से इंतजार है कि जिस तरह उसका बेटा लौटकर आया है, उसी तरह एक रोज उसके पति भी लौटेंगे.
वेब सीरीज की कहानी रिश्तों की डोर को कसने और ढीली पड़ जाने का वांग्मय है. जहां छोटा भाई आतिश बड़े भाई को भगवान राम की तरह सम्मान देता है. उसके मन में बड़े भाई के लिए ऐसी अगाध आस्था है कि पांव जमीन पर पड़ने से पहले ही भाई को चप्पल पहना देता है. 'जो भैया बोलेंगे वो हम करेंगे' वाली थ्योरी पर ही चलता है. घर में दादा हैं, जो निर्मल के आने पर पेड़ लगाने की कहानी सुनाते हैं, लेकिन हर बार ये बताने से कतराते हैं कि कई बरस पहले उसके पिता घर छोड़कर क्यों चले गए थे. चचेरी बहन है निभा. जो दिनभर एक पांव पर नाचती है, घर के तमाम काम करती है और बड़की माई यानी संतोषी मां की लाड़ली है. चाचा यानी पंकज झा जिसके मन में आज भी 24 साल पहले की घटना की टीस है. कहानी में संपुट के तौर पर छोटे भाई के चार दोस्त भी हैं, इनमें से एक है लबलभिया (कुमार सौरभ). जिसे आतिश के घर में टूटे कप में चाय दी जाती है.
याद रह जाएगा संतोषी मां का किरदार
कहानी में एक किरदार जो आपको याद रह जाएगा. वो है संतोषी मां. वह पिछले 24 साल से अपने पति का इंतजार कर रही हैं. घर के सारे काम करती हैं, अपनी पीड़ा को मन में दबाए रखती हैं. कहानी का केंद्र संतोषी को जब यह पता चलता है कि उसके पति नहीं रहे, तो उनकी प्रतिक्रिया देखने लायक है. वह मन को समझा चुकी है कि उसके पति एक दिन जरूर लौटेंगे. मसलन, वह निर्लिप्त भाव से आतिश की शादी की तैयारियां करती है. वह यह मानने को ही तैयार नहीं है कि ऐसा भी हो सकता है. वह तो अपने पति की बांट जोह रही है, अब वह किसका इंतजार करेगी.
परिवारों की परिमेय समझाने की कोशिश
कहानी का बैकग्राउंड बक्सर है. लिहाजा निर्मल की मां संतोषी और बुआ गेंदा (गरिमा विक्रांत सिंह) ठेठ भोजपुरी में बोलती हुई मन को लुभाती हैं. एक सीन है, जहां घर की छत पर लिट्टी चोखा बनाया जाता है, ये आपको उन दिनों की यादों में ले जाकर खड़ा कर देगा, जब कभी आपने ऐसे लम्हे जीए होंगे. घरों में लोग खाते वक्त अपना पानी लेकर नहीं बैठते तो सबसे पहले क्या याद आता है. 'अरे हमको 2 लिट्टी ही दो भई, इतना नहीं खा पाएंगे हम' जैसे संवाद सीन को रोचक बनाते हैं. वहीं गांव के कुछ लोग हैं जिनके नाम विधायक, दरोगा, वकील और इंजीनियर हैं. ये भी उसी तरह है जैसे गांव में कोई जो नहीं बन पाता, कालांतर में वही उसका नाम रख दिया जाता है.
समाज और राजनीति का तानाबाना
कहानी में राजनीति का पुट भी डाला गया है. निर्मल का छोटा भाई आतिश विधायक बनने के सपने देखता है. इसके लिए वह इलाके के वर्तमान विधायक विनीत कुमार जो कि सांसद बनने जा रहे हैं, उनकी बेटी से ब्याह करने को राजी हो जाता है. शादी की रस्मों के दौरान नेताजी की मुलाकात निर्मल से होती है. वह कहते हैं 'चालीस की उमर से पहले जो कम्युनिस्ट न हुआ उसके पास दिल नहीं होता और चालीस के बाद भी जो कम्युनिस्ट रह गए, उनके पास दिमाग नहीं होता'. ये संवाद आपके मानस पर असर जरूर डालेगा. नेताजी की लड़की रीना इस शादी से कतई खुश नहीं है. वह सिर्फ अपने पिता के फैसलों और पसंदों का बोझ ढो रही है. पिता की पसंद के कपड़े पहनना उसका शगल नहीं, मजबूरी है. वेब सीरीज देखने के दौरान आपके दिमाग में ओमप्रकाश वाल्मीकि की किताब जूठन भी चलेगी. समाज में फैली अस्पृश्यता की कुरीति ने कितना विपरीत असर डाला है, ये भी बताने की कोशिश की गई है. एक सीन में लभलभिया कहता है 'भैया ऊ का है ना कि बड़का लोगन के घर में हमको पहली बार चाय मिला तो हम उसी में खुस हो गए, कप चीनी मिट्टी का है इस पर कभी ध्यान ही नहीं गया.' ये संवाद आपको ठिठकने पर मजबूर कर देगा.
मन को सुकून देने वाला है संगीत
कहानी के डायलॉग सधे हुए हैं. कुछेक सीन नहीं भी होते तो कमी नहीं खलती. समय-समय पर बजने वाला बैकग्राउंड म्यूजिक आनंद देने वाला है. गांव की आवाज, चिड़िया की चहचहाहट मन हल्का कर देती है. वेब सीरीज का निर्देशन राहुल पांडे और सतीश नायर ने किया है. जबकि निर्माता नरेन कुमार और महेश कोराडे हैं. राहुल पांडे ने ही कहानी में लोकल डायलेक्ट का शानदार समावेश किया है.
हेमंत पाठक