हिंदी सिनेमा फैन्स के दिलों में बसने वालीं रेखा, पहली बार 'उमराव जान' (1981) में नहीं दिखी थीं. बल्कि तब तक तो उन्हें हिंदी फिल्मों में एक दशक से ज्यादा हो चुका था. न ही पहली बार उन्होंने 'उमराव जान' में तवायफ का किरदार निभाया था. बल्कि इससे पहले कम से कम दो बार 'सजा' और 'मुकद्दर का सिकंदर' में वो ऐसा किरदार कर चुकी थीं. और न ही 'उमराव जान' हिंदी की पहली पीरियड फिल्म थी, बल्कि इससे पहले भी कई क्लासिक पीरियड फिल्में बन चुकी थीं.
एक के बाद एक कई हिट फिल्में देने वालीं रेखा तो जनता की नजरों में पहले से थीं. मगर 'उमराव जान' में शायद जनता ने पहली बार रेखा की एक दूसरी साइड को डिस्कवर किया. 'उमराव जान' में स्क्रीन पर दिख रहीं रेखा, एक रहस्य जैसी थीं. खूबसूरती ऐसी कि देखने वाला पलकें झपकाना भूल जाए. अदाएं ऐसी धड़कनों की रफ्तार कम पड़ जाए. मगर फिर भी उनके किरदार में कुछ ऐसा था जिसे आदमी महसूस तो कर सकता था, बयां नहीं कर सकता था.
'उमराव जान' के बाद के सालों में यही रहस्यमयी ऑरा, रेखा की पहचान के साथ जुड़ता चला गया. यानी 'उमराव जान' को रेखा के कल्ट की पहली फिल्म कहा जा सकता है. और इसी फिल्म ने रेखा को पहली बार 'बेस्ट एक्ट्रेस' का नेशनल अवॉर्ड दिलवाया.
रेखा, अमीरन और उमराव जान
1840 में सेट कहानी में रेखा ने अमीरन का किरदार निभाया, जिसे लखनऊ के एक कोठे पर बेच दिया जाता है. कोठे पर उसे शायरी, डांस और दूसरी कलाएं सिखाई जाती हैं. यहीं अमीरन को एक नया नाम मिलता है- उमराव जान. मर्दों के दिल को छलनी कर देने वाली तमाम अदाओं से लैस अमीरन के रोल में, रेखा के ठहराव भरे मूवमेंट, आंखों के अद्भुत खेल और आवाज खूबसूरती की एक अद्भुत तस्वीर तैयार करते थे.
'उमराव जान' के डायरेक्टर मुजफ्फर अली ने, 'रेखा: द अनटोल्ड स्टोरी' किताब के लिए बात करते हुए कहा था, '(फिल्म में) रेखा की सबसे स्पष्ट खूबी वो थी, जो उन्हें उनके अपने पास्ट से मिली थी. उनकी आंखों में टूट जाने और फिर खुद को समेटने का अनुभव झलकता था... जिंदगी लोगों को झिंझोड़ देती है, और अगर उनके अंदर एक आर्टिस्ट होता है, तो वो इस प्रक्रिया में और चमक उठता है.'
रेखा के 'उमराव जान' बनने के बैकग्राउंड में कहीं पर अमिताभ बच्चन के साथ उनकी अधूरी लव स्टोरी भी थी. उसी किताब में अली के हवाले से ये बयान भी दर्ज है कि 'वो एक जिंदा लाश बन चुकी थीं. गलती पूरी तरह से अमिताभ की थी. वो उमराव जान के दिल्ली शूट के दौरान हमारे सेट पर आते थे और बैठे रहते थे.'
'उमराव जान' की खूबसूरती और ऑथेंटिसिटी
मुजफ्फर अली ने जिस करीने से 'उमराव जान' बनाई, उसे लोग आज भी फिल्म या इसके गानों में खूब सराहते हैं. 'इन आंखों की मस्ती' गाने में रेखा ने सिर्फ आंखों से जो जादू किया है, उसके लिए लोग आज भी ये गाना यूट्यूब पर खोजकर देखते हैं. और देखने के बाद अक्सर ही ख्याल आता है कि एक-एक फ्रेम किसी पेंटिंग जैसा है. डायरेक्टर मुजफ्फर अली ने बाद के एक इंटरव्यू में अपने फिल्ममेकिंग प्रोसेस के बारे में बताया था कि वो सबकुछ पेंट किया करते हैं.
किसी पेंटिंग जैसी खूबसूरत 'उमराव जान' में रेखा के किरदार को 1840 के हिसाब से लुक देने के लिए अली ने ऐसी ड्रेस और गहने इस्तेमाल किए थे, जो उस दौर के शाही लोगों की एकदम याद दिलाते थे. इन गहनों के पीछे भी एक अलग कहानी है.
शाही घरानों ने की थी मदद
लखनऊ से कुछ ही दूर कोटवार नाम की एक जगह है. अवध की रियासत (जिसकी राजधानी बाद में लखनऊ हुई) में कोटवार एक रियासत हुआ करती थी. 'उमराव जान' के डायरेक्टर मुजफ्फर अली, इसी कोटवार के राजा सईद साजिद हुसैन अली के बेटे हैं. अपने पिता से उन्हें भी विरासत में 'राजा' का टाइटल मिला है. ब्रिटिश राज के बाद, लखनऊ की नवाबी शान-ओ-शौकत के बचे रह गए हिस्सों को देखकर बड़े हुए अली ने 'उमराव जान' की मेकिंग के समय एक इंटरव्यू में कहा था, 'आर्किटेक्चर,स्पेस और म्यूजिक में मैंने जो कुछ अनुभव किया है, वो सब फिल्म में लगने वाला है.'
अली, लखनऊ के लिए अपने थे और जब उन्होंने फिल्म बनानी शुरू की तो वहां के शाही परिवारों ने उनकी पूरी मदद की थी. इन परिवारों से अली को ड्रेसेज और गहनों के अलावा कई और ऐसी चीजें जो सौ साल से भी ज्यादा पुरानी थीं. फिल्म के सेट पर एक बातचीत में अली ने कहा था, 'वे मुझे ऐसी भी चीजें दे रहे हैं जिसके लिए उन्होंने सत्यजित रे को भी मना कर दिया था.' इंडियन सिनेमा के लेजेंड डायरेक्टर सत्यजित रे ने, अवध के बैकग्राउंड पर 1977 में 'शतरंज के खिलाड़ी' बनाई थी.
जब रेखा ने पहनी अपनी ज्वैलरी
मुजफ्फर अली की पहली फिल्म 'गमन' को तारीफ तो बहुत मिली, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर फिल्म नाकाम रही. अली के दूसरे प्रोजेक्ट 'उमराव जान' का विजन और स्केल जिस तरह का था, उसके हिसाब से फिल्म का बजट अच्छा खासा होने वाला था. ऐसे में फ्लॉप फिल्म देकर आए डायरेक्टर के लिए, 'उमराव जान' जैसी फिल्म के लिए प्रोड्यूसर खोजना यकीनन मुश्किल रहा होगा.
रिपोर्ट्स बताती हैं कि बजट की दिक्कत के चलते एक समय 'उमराव जान' को ठंडे बस्ते में डाला जाने वाला था. लेकिन फाइनली बात बनी और फिल्म पर काम शुरू हो गया. हालांकि, बजट को कंट्रोल में रखते हुए फिल्म बनाने का तरीका यही था जो अली ने अपनाया- लोगों से जितनी मदद संभव हो, ली जाए. कहा जाता है कि रेखा ने जो ज्वैलरी पहनी थी, उसमें शाही परिवारों और दूसरी जगहों से आए गहनों के अलावा, उनकी अपनी ज्वैलरी भी थी.
इतना काबू करने के बाद 'उमराव जान' का बजट लगभग 50 लाख रुपये बताया जाता है. 80s के हिसाब से ये अच्छा खासा बड़ा बजट था. लखनऊ के नवाबी दौर के आखिरी हिस्से को बड़ी खूबसूरत से पर्दे पर उतारने वाली 'उमराव जान' के बनने में, खुद लखनऊ के लोगों का भी बड़ा हाथ रहा. 2 जनवरी 1981 को थिएटर्स में रिलीज हुई 'उमराव जान' न सिर्फ हिट रही, बल्कि इसे जमकर तारीफ भी मिली. फिल्म के लिए रेखा के अलावा खय्याम (बेस्ट म्यूजिक डायरेक्शन), आशा भोंसले (बेस्ट फीमेल प्लेबैक सिंगर) और मंजूर (बेस्ट आर्ट डायरेक्शन) को भी नेशनल अवॉर्ड मिला.
सुबोध मिश्रा