देश की टॉप गाइनी क्यों इंजीनियर से बनीं डॉक्टर, परंपरा-सिस्टम या कुछ और...? सोचकर देख‍िए

हाल ही में नीट परीक्षा के आंकड़े सामने आए हैं, जिनसे साफ है कि लड़कियां नीट की तैयारी ज्यादा करती हैं. मतलब लड़कियां डॉक्टर बनने को ज्यादा तवज्जो देती हैं. इस पर भी लड़कियां टॉप करके भी स्त्री व प्रसूति रोग विभाग क्यों चुनती हैं, ऐसे सवालों के जवाब अक्सर कुछ जीवंत कहानियों में मिलते हैं. ऐसी ही कहानी है लेडी हार्ड‍िंंग मेडिकल कॉलेज दिल्ली में स्त्री व प्रसूति रोग विभाग की पूर्व अध्यक्ष डॉ मंजू पुरी की.

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डॉ मंजू पुरी, स्त्री व प्रसूति रोग सर्जन डॉ मंजू पुरी, स्त्री व प्रसूति रोग सर्जन

मानसी मिश्रा

  • नई दिल्ली ,
  • 29 जुलाई 2022,
  • अपडेटेड 10:11 AM IST
  • डॉ मंजू पुरी ने कभी बदला था अपना करियर
  • इसके पीछे की वजहें हैं सामाजिक तानेबाने का हिस्सा

कहते हैं अक्सर कुछ कहानियां, कुछ सच्चाईयां 'बिट‍वीन द लाइंस' छुपी होती हैं. अपने क्षेत्र की बेइंतहा कामयाबी के बावजूद जीवन में 'कुछ' पीछे छूटा हमेशा याद रहता है. लेडी हार्ड‍िंग मेड‍िकल कॉलेज दिल्ली के स्त्री व प्रसूति रोग विभाग की पूर्व हेड ऑफ डिपाटमेंट और वर्तमान में यूनिट हेड डॉ. मंजू पुरी इस वक्त देश की टॉप मोस्ट स्त्री व प्रसूति रोग सर्जन में शुमार होती हैं. पढ़ने में हमेशा अव्वल रहने वाली डॉ मंजू आज जिस ओहदे पर हैं, हजारों-लाखों लोगों का वो सपना होता है. 

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पापा थे आदर्श, उनका पेशा चुनना था मुझे 

लेकिन एक इंजीनियर की प्राउड डॉटर, अपने पिता को आदर्श मानने वाली एक 15 साल की लड़की कभी पिता जैसा ही बनना चाहती थी. डॉ मंजू पुरी aajtak.in से बातचीत में उस दौर का जिक्र करती हैं. वो बताती हैं कि मेरे पिता संतलाल, थापर ग्रुप कंपनी यमुना नगर में इंजीनियर थे. पिता का पेशा उन्हें दिल से भाता था. यही कारण था कि यमुनानगर में बेसिक श‍िक्षा के दौरान उनका विषय भी मैथ था. मैथ यानी इंजीनियरिंग का खास विषय. डॉ मंजू कहती हैं कि हमारे टाइम में यानी साल 1974 में 11वीं करके प्री इंजीनियरिंग होती थी, मैंने उसे पास किया और इंजीनियरिंग में दाख‍िला हो गया. 

मैंने इंजीनियरिंग में दाख‍िला ले तो लिया, लेकिन कहीं न कहीं मुझे डॉक्टर बनने के लिए प्र‍ेरित किया जाता था. मुझे सपने दिखाए जाते थे. मेरे पापा बहुत खुले विचारों के थे, उन्होंने कभी मुझसे करियर में चयन को लेकर दबाव नहीं डाला, लेकिन मम्मी से लेकर केमिस्ट्री के सतीश सर हमेशा कहते थे कि मुझे डॉक्टर बनना चाहिए. डॉ मंजू बताती हैं कि घर में हम चार बहनें थे. मेरी मां होममेकर थीं, लेकिन श‍िक्ष‍ित होने के कारण उनकी बातें हमें प्रेरित करती थीं. मेरी मां का नाम सुशीला था, वो काफी एजुकेटेड फेमिली से थीं, मेरे नाना जज थे, तब के दौर में मेरी मां ने हास्टल में रहकर बीए बीटी किया था. घर में वो हम चारों बहनों को बेहतर ढंग से पाल रही थीं. 

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...लेकिन बदलना पड़ा

दिमाग उस वक्त एक अलग तरह की कंडीशनिंग की ओर बढ़ने लगा, उसमें मेरी बहन का भी कहीं न कहीं रोल था. मेरी बड़ी बहन स्वर्गीय डॉ अंजू नारंग उस वक्त एमबीबीएस की पढ़ाई कर रही थीं. वो भी लड़कियों के डॉक्टर होने के फायदे गिनाती थीं. मम्मी कहतीं कि कितना अच्छा होगा जब तुम दोनों बहने एक ही फील्ड में चली जाओगी. 

अब धीरे धीरे मेरा मन बदलने लगा था. अब मेरे सामने समस्या ये थी कि मैंने बायोलॉजी तो पढ़ी ही नहीं थी. सो मैंने एक साल बायोलॉजी लेकर पढ़ाई की. अब इसी समय एग्जाम डिक्लेयर हो गया, तो मैंने सारे सब्जेक्ट देकर मेडिकल प्रवेश परीक्षा पास किया. अब साल 1977 में मैंने रोहतक के मेडिकल कॉलेज में दाख‍िला लिया. यहां से पांच साल एमबीबीएस करके मौलाना आजाद दिल्ली से एमडी किया. यहां दो साल सीनियर रेजिडेंट रही फिर रोहतक लौट गई. फिर साल 1996 में लेडी हार्ड‍िंंग दिल्ली में असिस्टेंट प्रोफेसर बन कर आई. यहां स्त्री व प्रसूति रोग विभाग की हेड ऑफ डिपाटमेंट रही, वर्तमान में यूनिट हेड हूं. 

एक बार फिर चली दूसरों की इच्छा 

डॉ मंजू पुरी दोहराती हैं, देख‍िए मैं फिर कहूंगी कि मुझे कभी किसी ने ऐसा दबाव नहीं दिया कि मुझे मजबूर किया हो, लेकिन माहौल और आसपास के लोग प्रभावित कर ही देते हैं. लड़कियां इनफ्लूएंस हो ही जाती हैं. मेरे साथ ऐसा एक बार फिर हुआ जब  मैंने एमडी किया था, उस वक्त मेरा ऑर्थो यानी हड्डी रोग में खास इंटरेस्ट था या यूं कहें कि मेरी फर्स्ट च्वाइस ऑर्थो थी. मेरिट में मैं टॉप 5 में थी तो मुझे कोई भी ब्रांच मिल जाती. लेकिन एक बार फिर आर्थो के लिए सबने मना किया कि फीमले को आर्थो में नहीं जाना चाहिए.और देखि‍ए, मैं फिर इनफ्लूएंस हुई. 

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लड़कियों के मन में बैठी है ये बात 

देख‍िए एक स्त्री के तौर पर लड़कियों के मन में ये बात बैठाई जाती है कि आप डॉक्टर के तौर पर ज्यादा सक्सेस होंगे. डॉक्टर बनकर बाकी परेशानियां आपको कम प्रभावित करती है, इसमें एक ईज ऑफ वर्क होता है. इंजीनियरिंग से डॉक्टर का रोल अलग है, अगर आप डॉक्टर हैं तो डॉक्टर के तौर पर बहुत सम्मानजनक लाइफ लीड करते हुए अच्छी तरह से सर्वाइव कर सकते हैं. इसमें पोजिशन और पॉवर के साथ लोगों के लिए कुछ बेहतर करने का अवसर है. हालांकि जब मैं इस प्रोफेशन में आई तो मुझे डॉक्टर होने से बेहद प्यार हो गया. आज मुझे कोई पछतावा भी नहीं है. 

लेकिन, मैंने कभी किसी को ऐसा नहीं समझाया 

डॉ मंजू कहती हैं कि मैंने अपनी जिंदगी से सिर्फ एक सीख ली है, वो ये कि मैं अपनी किसी स्टूडेंट यहां तक कि अपनी बेटी को भी कभी सलाह नहीं देती. उसकी च्वाइस को लेकर आगे बढ़ने को कहती हूं. मेरी बेटी माधवी आज साइक्रेटिस्ट हैं, उसने अपने पिता डॉ दिलीप पुरी की फील्ड में जाना पसंद किया, उसके पिता साइक्रेट‍िस्ट हैं तो वो साइकेट्र‍िस्ट बनी. इसमें पिता से प्रभावित होने वाली बात नहीं है, इसमें बात है च्वाइस की. उसे मनो चिकित्सा का विषय बहुत ही इंट्रेस्ट‍िंग लगा, वो कहती है कि मां आपका फील्ड भी बहुत चैलेंजिंग है, लेकिन साइकेट्री का इंट्रेस्ट मुझे बहुत ज्यादा है.

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