कार्बन-14 डेटिंग (Carbon-14 dating), जिसे रेडियोकार्बन डेटिंग (radiocarbon dating) भी कहा जाता है, इसका इस्तेमाल लकड़ी, चारकोल, पुरातात्विक खोज, हड्डी, चमड़े, बाल और खून के अवशेष की अनुमानित उम्र या वह कितनी पुरानी है, इस बात का पता लगाने की एक टेक्नोलॉजी है. इस टेक्नोलॉजी का इजाद आज से करीब 73 साल पहले शिकागो में हुआ था. शिकागो यूनिवर्सिटी के साइंटिस्ट विलियर्ड लिबी ने साल 1949 में कार्बन डेटिंग टेक्नोलॉजी की खोज की थी.
कैसे काम करती है कार्बन डेटिंग?
पौधे, जानवर या कोई जीव जब मर जाता है तो वातावरण से इनका कार्बन का आदान-प्रदान बंद हो जाता है. तब उनमें मौजूद कार्बन-12 और कार्बन-14 के अनुपात में बदलाव आने लगता है. इसी बदलाव को मापने के लिए कार्बन डेटिंग का इस्तेमाल किया जाता है, जिससे उस जीव की अनुमानित उम्र का पता लगाया जा सकता है.
कार्बन एक रासायनिक तत्व है. इसमें 3 तरह से मुख्य आइसोटोप्स (isotopes) हैं- C12, C13 और C14. आइसोटोप वह एटम है जिसमें प्रोटॉन की संख्या समान होती है लेकिन न्यूट्रॉन की संख्या अलग-अलग होती है. कार्बन के तीन आइसोटोप्स में से कार्बन 12 और काबर्न 13 स्टेबल होता है जबकि कार्बन 14 रेडियोएक्टिव या अनस्टेबल होता है. स्टेबल होने के कारण कार्बन 12 की मात्रा नहीं घटती जबकि कार्बन 14 की मात्र घटती है. एक रिपोर्ट के मुताबिक लगभग साढ़े 5 हजार साल में कार्बन 14 की मात्रा आधी हो जाती है.
ज्ञानवापी 'शिवलिंग' की कार्बन डेटिंग नहीं हुई, ये हो सकती है वजह
वाराणसी हाई कोर्ट ने शुक्रवार, 14 अक्टूबर को ज्ञानवापी 'शिवलिंग' की कार्बन डेटिंग से साफ इनकार कर दिया है. जिला जज अजय कृष्ण विश्वेश ने शिवलिंग की कार्बन डेटिंग की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया है. कोर्ट ने मांग खारिज करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जहां कथित शिवलिंग पाया गया है उसे सुरक्षित रखा जाए. ऐसे में कार्बन डेटिंग के दौरान कथित शिवलिंग को क्षति हो सकती है और सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लघंन हो सकता है.
वहीं दूसरा कारण टेक्नोलॉजी हो सकती है. क्योंकि पत्थर और धातु की कार्बन डेटिंग से उसकी उम्र का पता लगा पाना लगभग असंभव है. पत्थर या धातु जैसी चीजों की उम्र कार्बन डेटिंग से केवल तभी पता लगाई जा सकती है, जब उसमें कुछ मात्रा में कार्बनिक पदार्थ उपस्थित हो. कार्बन के अभाव में किसी भी वस्तु की कार्बन डेटिंग नहीं की जा सकती.
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