सेना की वो रेजिमेंट, जिसकी एक टुकड़ी पाकिस्तान में चली गई! अब वहां है उसका ये काम

पाकिस्तान की सीमा पर डटे रहने वाले और किसी भी विषम परिस्थिति में सबसे पहले मोर्चा लेने वाले जवान राजपूताना राइफल्स के होते हैं. इनके नाम के पीछे भी एक कहानी छुपी हुई है. जानते हैं आज राजपूताना राइफल्स के वीर जवानों का किस्सा.

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 सेना दिवस परेड के दौरान राजपूताना राइफल्स रेजिमेंट के भारतीय सैनिक सलामी देते हुए (फोटो - एएफपी) सेना दिवस परेड के दौरान राजपूताना राइफल्स रेजिमेंट के भारतीय सैनिक सलामी देते हुए (फोटो - एएफपी)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 23 जनवरी 2025,
  • अपडेटेड 6:10 PM IST

'राज के वीर हम... राज के वीर, हम काल के भी काल हैं, कूदते हैं युद्ध में तो करते भूमि लाल हैं... - यही गाते हैं राजपूताना राइफल्स के सिपाही. राजपूताना राइफल्स इंडियन आर्मी की सबसे पुरानी राइफल रेजीमेंट है. राजपूताना ब्रिटिश राज में एक पूरा इलाका कहलाता था. इसमें आज के समय के उत्तर, मध्य के राज्य शामिल हैं- जैसे राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, यूपी का पश्चिमी हिस्सा और मध्य प्रदेश का उत्तरी और पश्चिमी हिस्सा. क्योंकि इस इलाके के ज्यादातर जवान गांव से आते हैं और आप जानते हैं कि गांव में इज्जत और इकबाल सबसे बड़ी चीज होती है. लेकिन, बहुत कम लोग जानते होंगे कि ये रेजिमेंट अपना इतिहास के साथ भी साझा करता है. 

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ईस्ट इंडिया कंपनी ने बॉम्बे सपोज के नाम से किया था गठन
राजपूताना की वीर भूमि में रहने वाले इन राजपूतों की बहादुरी को देखते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी ने 18वीं सदी में इनको अपनी एक बटालियन में भर्ती किया. इस बटालियन में फ्रांस के सैनिक भी थे और साथ मिलकर इन्होंने बड़ी जिम्मेदारी से कई मोर्चों को संभाला और फिर राजपूतों की फूर्ति सूझबूझ और साहस को देख इनकी एक अलग राइफल बटालियन खड़ी की और उसे नाम दिया बम्बे सपोज. 

पाकिस्तान से जुड़ी सरहद की सुरक्षा है इनकी जिम्मेदारी
आज राजपूताना राइफल्स ने लाइन ऑफ कंट्रोल पर मोर्चा संभाला हुआ है इनके रहते हुए सीमा पर कोई भी हलचल नहीं हो सकती. ये ना सिर्फ अपनी सरहद की रक्षा कर रहे हैं बल्कि सीमा पर उपजने वाले आतंकवाद पर भी इनकी पैनी नजर है. 

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राजपूताना राइफल्स की एक टुकड़ी चली गई थी पाकिस्तान
एपिक के रेजिमेंट डायरी के मुताबिक राजपूताना राइफल्स का इतिहास पाकिस्तान से भी जुड़ा हुआ है. इसमें एक टुकड़ी मुस्लिमों की थी. जब देश का बंटवारा हो रहा था, उस समय मुस्लिमों की वो कंपनी पाकिस्तान चली गई. वो वहां बलूच रेजीमेंट से जुड़ गए.ऐसे में बलूच रेजीमेंट की वो टुकड़ी जो उधर से पाकिस्तानी सीमा पर तैनात रहती है, उनके सारे चाल-ढाल को राजपूताना राइफल्स जानती है.इसलिए पाकिस्तान बॉर्डर में ज्यादा राजपूतना राइफल्स की बटालियन रहती है. 

ऐसे नाम पड़ा नाम में जुटा राइफल्स शब्द
वहीं बुलेट्स मस्केट और राइफल्स की मारक क्षमता में भी फर्क था, जो यूनिट ऑपरेशन में लड़ाई में अच्छा परफॉर्म कर रही थी. उनमें से चुन-चुन के कुछ यूनिटों को इन्होंने राइफल से इक्विप्ड किया. राइफल्स से इक्विप होने के बाद इन्हें राइफल रेजिमेंट के नाम से जाना जाने लगा.  बम्बे सपोज पहली ऐसी इन्फेंट्री थी, जिसमें केवल राजपूत शामिल थे.

ऐसे सामने आया था राजपूताना राइफल्स का नाम
1921 में फिर ऐसी छह बड़ी बटालियंस को जोड़कर सिक्स्थ राजपूताना राइफल्स का आगाज हुआ और यही राजपूताना रेजीमेंट बनी हिंदुस्तानी सेना की पहली राइफल बटालियन. इसके बाद उन्होंने एक टुकड़ी का गठन किया जो कि मेन लाइन से आगे जाकर के या साइड से जाकर कार्रवाई कर सके. इसमें वह सबसे बढ़िया मार्क्समैन डाले जाते थे, जो छोटी छोटी टुकड़ी में आड़ लेकर उसके हिसाब से कार्रवाई कर सकें और दुश्मनों का ज्यादा नुकसान करें .

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'वीर भोग्य वसुंधरा' है आदर्श वाक्य
राजपूताना राइफल्स का भव्य रेजिमेंट सेंटर भारत की राजधानी दिल्ली में है. मातृभूमि के लिए मर मिटना यह राजपूताना राइफल्स के लिए सिर्फ एक कहावत नहीं ये उनका पेशा है. इसी जज्बे को दर्शाता भगवत पुराण का एक वाक्य इस रेजिमेंट का सिद्धांत है- वीर भोग्य वसुंधरा. ये संस्कृत शब्द है. इसका मतलब है कि द विक्टोरियस टेक्स द कंट्रोल यानी जमीन उन्हीं की है जो वीर हैं. वहीं इसका युद्धघोष राजा राम चंद्र की जय है. 

 

वो 12 घंटे... जब राजपूताना राइफल्स ने पलट दी थी बाजी
जब 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान भारतीय सेना को मैनाम रिज से वापस आने का आदेश दिया गया, तो वहां मोर्चा पर डटे सिपाहियों ने ऐसा करने से मना कर दिया. वापस लौटने के आदेश को अनदेखा करने का फैसला किया 12 घंटे यह सिपाही अपनी जान की फिक्र ना करते हुए दुश्मन की बेहद मजबूत सेना पर वार करते रहे.

12 घंटे तक फायरिंग चलती रही. इसके बाद पाकिस्तानी सेना की हिम्मत टूट गई उन्होंने अपनी पोस्ट छोड़ दी और हट गए. एक बार फिर साबित हुआ कि जीत हिम्मत वालों की ही होती है. जिन साहसी वीरों ने विजय का बिगुल बजाया और मेनाम रिज पर भारत का झंडा फहराया वे थे राजपूताना राइफल्स के सिपाही.

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पहले सिर्फ मस्केट से मार करती थी राजपूताना राइफल्स
पहले सिर्फ मस्केट हुआ करती थी और यही बम्बे सपोज के भी पास थी. इसके बाद जब मस्केट्स को अपग्रेड किया गया तो आई राइफल्स. मस्कट सबसे पुरानी बंदूक है. मस्कट और राइफल्स में कारतूस की लोडिंग और अनलोडिंग में फर्क था. मस्कट में मजल के जरिए कारतूस डाली जाती थी जो समय लेता था. वहीं जब राइफल्स आई तो यह काम आसान हुआ राइफल्स में कारतूस पाउडर डाला जाता था. 

एक सोल्जर्स के लिए उसकी बटालियन और उसकी रेजीमेंट एक जिंदगी का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा होती है. क्योंकि 365 दिन में से व 275 280 दिन अपनी रेजीमेंट और बटालियन के साथ रहता है तो यह उसकी एक्चुअली में पहली फैमिली मानी जाती है, तो फैमिली का इंपोर्टेंस अपनी लाइफ में बहुत बड़ा होता है. 

ऐसी होती है बेसिक ट्रेनिंग
बेसिक बट ट्रेनिंग 19 सप्ताह चलती है. इसमें आफ्टर 8 वीक्स सोल्जर  5.5 राइफल से प्रैक्टिस करते हैं. इसके लिए एक प्रैक्टिस में 31 राउंड मिलते हैं जो कि अलग अलग रेंज से 50 मीटर, 100 मीटर, 200 मीटर और  300 मीटर तक फायर करते हैं और डिफरेंट पोजिशन होता है.  एक समय ऐसा था जब मस्कट यानी सबसे पहली राइफल्स की मारक क्षमता 50 मीटर की रेंज पर एक मिनट में तीन राउंड फायरिंग की जाती थी. समय और आधुनिक तकनीक में रोज हो रहे नए सुधारों के चलते आज राइफल्स 300 से 800 मीटर दूर एक मिनट में 600 से 900 राउंड फायर कर सकती है और ऐसी ही राइफल्स आज हमारे सैनिकों के हाथों में है.

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युद्ध से ज्यादा कठिन होती है इनकी ट्रेनिंग
ट्रेनिंग जंग से कहीं ज्यादा कठिन है और चुनौतियों से भरी होती है. एक ऐसे फौलाद को तैयार किया जाता है जो अपने पसीने से अपनी खून की कीमत बढ़ाता है और खासकर राजपूताना राइफल के लिए तो यह कहीं ज्यादा कठिन है क्योंकि ये एक इन्फेंट्री रेजिमेंट है और इन्हें कई कठिन शारीरिक परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है.

करगिल युद्ध में भी लिया था पहले लोहा
आजादी से पहले आजादी के बाद और आज की तारीख में राज रिफ अपनी वफादारी हिंदुस्तान के आवाम के नाम लिखती है. साल 1999 में भी करगिल वॉर के दौरान सबसे पहले मोर्चा लेने वाले सैनिकों में राजपूताना राइफल्स के जवान ही शामिल थे, जिन्होंने 9000 फीट की ऊंचाई पर जाकर दुश्मनों से लोहा लिया. 

इनके नाम हैं कई सम्मान
राजपूताना राइफल्स के नाम तो कई बैटल ऑनर्स और थिएटर ऑनर्स हैं. 1948 में ही लेदी गली जम्मू कश्मीर, 1965 में चारवा सियालकोट सेक्टर, 1965 में ही असल 1971 में मेनाम बांग्लादेश और 1971 में ही बसंतर शकरगढ़ के युद्ध सम्मान रेजीमेंट के नाम हैं. इन्होंने  भी अपनी जान की बलि दी वो राजपूताना राइफल्स के लिए इंपोर्टेंट है.
 

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