माइनस 30 डिग्री की हड्डियां जमाने वाली ठंड के बीच कई दिनों से भूखे कुछ लोग, उखड़ती सांसों के साथ अपनी मौत का इंतजार कर रहे थे. साउथ अमेरिका के एंडीज़ पर्वत की किसी अनजान जगह पर फंसे उन लोगों के पास उनके क्रैश हुए प्लेन का मलबा और अपने साथियों की लाशों के अलावा कुछ नहीं था. तापमान खून जमा देने पर उतारू था तो पेट की भूख आंतों को जलाए दे रही थी. आखिरकार, उन्होंने सभ्यता और इंसानियत का भारी लिबास उतार कर अलग रख दिया और अपने मर चुके साथियों के बदन से मांस नोंचकर खाने लगे. जिंदगी और मौत के बीच की लकीर पर 72 दिन बिताने वाले इन लोगों की कहानी रोंगटे खड़े कर देने वाली है.
रग्बी मैच खेलने निकली थी टीम
बात वर्ष 1972 की है. ओल्ड क्रिश्चियन क्लब ने मोंटेवीडियो, उरुग्वे से अपनी रग्बी टीम को सैंटियागो, चिली ले जाने के लिए उरुग्वे एयरफोर्स का एक चार्टर्ड प्लेन बुक किया. इसका नाम था Uruguayan Air Force Flight 571 या Fairchild.
12 अक्टूबर को ट्विन इंजन वाले फेयरचाइल्ड टर्बोप्रॉप ने कैरास्को अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से उड़ान भरी जिसमें 5 चालक दल के सदस्य और 40 यात्री थे. क्लब के सदस्यों के अलावा, दोस्तों, परिवार और अन्य लोगों को भी विमान में जगह दी गई थी ताकि प्लेन बुकिंग की लागत निकाली जा सके.
खराब मौसम के चलते, उन्हें मेंडोज़ा, अर्जेंटीना में रुकना पड़ा. अब नये रूट से चिली पहुंचने के लिए एंडीज़ पहाड़ी को पार करना था. फेयरचाइल्ड को लगभग 22,500 फीट (6,900 मीटर) तक की ऊंचाई तक उड़ान भरने के लिए ही बनाया गया था, इसलिए पायलट्स ने प्लांचोन के पास के दक्षिण में एक कोर्स तैयार किया, जहां से विमान सुरक्षित रूप से एंडीज पर्वतश्रृंखला को पार कर सके.
पायलट से हुई बड़ी चूक
टेकऑफ़ के लगभग एक घंटे बाद, पायलट ने एयर कंट्रोल को सूचित किया कि वह दर्रे के ऊपर से उड़ान भर रहा है, और उसके तुरंत बाद उसने रेडियो से कहा कि वह सैंटियागो से लगभग 110 मील (178 किमी) दक्षिण में क्यूरिको, चिली पहुंच गया है. असल में, पायलट ने अपने विमान की स्थिति का गलत अंदाजा लगाया था और ये एक गलती जल्द ही पूरे क्रू को बहुत भारी पड़ने वाली थी.
विमान अभी भी एंडीज में ही था. पायलट की गलती से अनजान, एयर कंट्रोल ने उन्हें लैंडिंग के लिए अपनी ऊंचाई घटाने के लिए कहा. इसके बाद, चिली एयर कंट्रोल का संपर्क विमान से टूट गया. फेयरचाइल्ड, अपने 45 यात्रियों के साथ एंडीज़ में खो चुका था.
उधर ऊंचाई कम करते ही विमान पहाड़ियों की हद में आ गया. पहले विमान का दांया पर पहाड़ी से टकराया, और क्रैश होने से पहले बांया पर भी टूट गया. ये क्रैश इतना जबरदस्त था कि 12 लोगों की मौके पर ही मौत हो गई. जिंदा बचे 33 लोग अब 11,500 फिट की ऊंचाई पर, -30 डिग्री सेल्सियस की ठंड में फंस चुके थे.
दूसरी ओर, एयर कंट्रोल ने विमान की तलाश शुरू की, मगर वो जल्दी ही समझ गए कि प्लेन की लास्ट लोकेशन गलत थी. रेस्क्यू ऑपरेशन एंडीज़ की तरफ मोड़ दिए गए, मगर बर्फ से ढके दर्रों में सफेद प्लेन को देख पाना बहुत मुश्किल था. इसके अलावा, रेस्क्यू टीम ने भी जल्द ये मान लिया कि ऐसी परिस्थितियों में कोई जिंदा नहीं बचा होगा. 8 दिनों के सर्च ऑपरेशन के बाद, रेस्क्यू टीम वापस लौट गई.
शुरू हुई जिंदा रहने की जद्दोजहद
कहानी का दर्दनाक हिस्सा तो बीत चुका था, मगर खौफनाक हिस्सा अब शुरू होने जा रहा था. जिंदा बचे 33 लोगों में से अधिकांश घायल थे. उन्हें भयानक ठंड, भूख और प्यास का सामना करना था. प्लेन में खाने के लिए जो कैंडी और वाइन थे, वे भी जल्द खत्म हो गए. एक सप्ताह बीतने के बाद भूख और प्यास बेइंतहाशा सताने लगे. ऐसे में उनके सामने बस एक ही रास्ता बचा था. सामाजिक ताने-बाने के तर्क जिंदा रहने की भूख के आगे दुबक कर बैठ गए. आखिरकार, उन्होंने अपने मर चुके साथियों की लाशें खाने का फैसला किया.
भयानक हालातों में जिंदा रहने की जिद ने उन्हें नरभक्षी बना दिया. अपना पेट भरने के लिए वे उन्हीं साथियों की लाशें नोचकर खाने लगे जो कुछ दिन पहले तक उनके दोस्त या सगे संबंधी थे. इस सब के बाद भी उनकी परेशानियां कम होने के बजाय अभी और बढ़ने वाली थीं. अगले एक सप्ताह में 6 और लोगों की मौत हुई और जिसके बाद एक रात पहाड़ी पर टूटा एवलांच.
और बिगड़ते गए हालात
खुद को ठंड से बचाने के लिए सभी ने प्लेन को मलबे से ही अपना ठिकाना बनाया हुआ था. एवलांच ने प्लेन के मलबे को बर्फ से ढक दिया. जो भाग नहीं सके, वे मारे गए. एवलांच में 8 और लोगों की जान चली गई. 12 दिसंबर तक, केवल 16 लोग जिंदा बचे थे. वे समझ गए थे कि उन्हें अब कोई बचाने आने वाला नहीं है. ऐसे में उन्होंने पहाड़ी से निकलने की ठानी. 3 लोग बाहर निकलने का रास्ता ढूंढते हुए अलग-अलग दिशाओं में निकल गए. आखिरकार, उनमें से एक को चिली के लॉस मैटेनेस गांव का रास्ता मिल गया.
बचे हुए सर्वाइवर्स उस रास्ते तक पहुंचे. गांव तक पहुंचने के लिए एक नदी पार करनी थी. ये एक बड़ा खतरा था. वे सब के सब नदी में बह सकते थे. ऐसे में उन्होंने नदी किनारे ही रुककर किसी के आने का इंतजार करने का फैसला किया.
आखिरकार हुई जिंदगी की जीत
किस्मत ने आखिर उनका साथ दिया और अगले ही दिन नदी के दूसरी ओर गांव के लोग दिखाई दिए. नदी के शोर के बीच बातचीत करना मुमकिन नहीं था इसलिए उन्होंने एक कागज पर संदेश लिखकर उसे पत्थर पर लपेटा और दूसरी ओर फेंका. गांव के लोगों ने उनकी बात समझी और 22 दिसंबर को 2 रेस्क्यू हेलिकॉप्टर उनकी मदद से लिए पहुंच गए.
खराब मौसम के चलते पहले दिन केवल 6 लोगों को ही रेस्क्यू किया जा सका और बाकी 8 लोगों को एक दिन और इंतजार करना पड़ा.
पूरी दुनिया का खींचा ध्यान
72 दिनों तक जिंदा बचे लोगों की कहानी ने पूरी दूनिया का ध्यान खींचा. घर लौटने के बाद उन लोगों ने बताया कि उन्हें जिंदा रहने के लिए नरभक्षी बनने पर मजबूर होना पड़ा. उनकी कहानी पर कई किताबें लिखी गईं और फिल्में भी बनीं. पियर्स पॉल रीड की Alive (1974) बेस्ट सेलिंग नॉवेल बनी जिसपर 1993 में फिल्म भी बनी.
रविराज वर्मा