सूर-तुलसी की कविताएं और कोड लैंग्वेज... साहित्य के वो पन्ने जिनमें जासूसी का गुप्त ज्ञान भी छिपा हुआ है

काव्य कृति की बात होती है तो केवल कवि सूरदास के प्रेम-श्रृंगार और भक्ति रस में डूबे काव्यों का वर्णन होता है. लेकिन सूरदास इससे कहीं अधिक सिद्ध हस्त थे. उन्होंने काव्य शैली में गुप्त सूचना और संकेतों में बात कहने की शैली की भी शुरुआत की थी. जिन्हें कूटपद (कोडवर्ड) कहते हैं.

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सूरदास और तुलसीदास की कविताएं साहित्य की अनमोल निधियां हैं सूरदास और तुलसीदास की कविताएं साहित्य की अनमोल निधियां हैं

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 30 अप्रैल 2025,
  • अपडेटेड 7:32 AM IST

हिंदी साहित्य के कवियों के नाम आते हैं तो श्रेष्ठता का एक प्रश्न भी उठ खड़ा होता है. इस श्रेष्ठता के प्रश्न को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने एक दोहे से दूर करने की कोशिश की थी.

सूर सूर तुलसी शशि, उडगन केशवदास,
अब के कवि खद्योत सम. जंह-तंह करत प्रकाश.

सूर्य और चंद्रमा की तरह चमकते हैं सूरदास-तुलसीदास

यानी कि साहित्य रूपी नभ में सूरदास सूर्य की तरह चमकते हैं तो तुलसीदास चंद्रमा की तरह प्रकाशमान हैं. कवि केशवदास तारागण की तरह हैं. इसके अलावा अब जो भी कवि हैं वह जुगनुओं की भांति ही कहीं भी थोड़ा बहुत उड़ते चमकते दिखते हैं. सूरदास को साहित्य का सूर्य कहना इसलिए भी ठीक है, क्योंकि जिस भाव, प्रभाव, मनोभाव और मन की दशा का वर्णन उनके काव्य में मिलता है, विद्वान यह मानते ही नहीं कि जन्म से अंध कोई व्यक्ति अपनी लेखनी में इतने सुंदर सरल, सहज मानवीय वर्णन कर सकता है, या फिर उसे विषय बना सकता है. कवि सूरदास ने श्रीकृष्ण की बाल लीला को अपनी कविता का विषय बनाया और भक्ति के साथ उनका गान करते हुए अमर हो गए.

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ब्रजसाहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं सूरदास

सगुण भक्ति शाखा में कृष्ण भक्त संत सूरदास का जन्म वैशाख महीने के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को हुआ था. सूरदास भगवान श्रीकृष्ण के उपासक और ब्रजभाषा के महत्वपूर्ण कवि हैं. इनके जन्म स्थान को लेकर विद्वान मतभेद मानते हैं. फिर भी अधिक मत है कि उनका जन्म 1478 ईस्वी में रुनकता गांव में हुआ था. आज यह गांव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है. ऐतिहासिक नजरिए से देखें तो भक्ति आंदोलन हमारे देश के सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण का काल है.

भक्ति काव्यधारा के महान कवियों में सूरदास का नाम सर्वोपरि है. कृष्णभक्ति काव्यधारा के कवि और कृष्ण के सगुण रूप के उपासक सूरदास ने आततायी काल में भक्ति का प्रसार अपने भजनों के जरिए किया. सूरदास वल्लभाचार्य के भक्त थे और श्रीमद्भागवत में वर्णित कृष्ण की लीलाओं के आधार पर उन्होंने अपने काव्यग्रंथ सूरसागर में श्रीकृष्ण के अद्भुत पावन रूप और उनकी लीलाओं का गुणगान किया.

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अष्टछाप के कवियों मे एक हैं सूरदास

महाप्रभु वल्लभाचार्य का जब मथुरा आगमन हुआ, तब उन्हें यमुना तट पर सूरदास का गायन सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.  सूरदास को उन्होंने अपने मत में भी दीक्षित कर लिया. हिंदू धर्म के वैष्णव चिंतन में वल्लभाचार्य के द्वारा प्रतिपादित मत को पुष्टि मार्ग के नाम से जाना चाहता है.सूरदास अष्टछाप के कवियों में सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं. हिंदी में अष्टछाप के कवियों में आठ कृष्णभक्त कवियों का नाम शामिल है.

अष्टछाप के आठ कवि हैं: सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास, कृष्णदास, नंददास, छीतस्वामी, गोविंदस्वामी और चतुर्भुजदास.

भक्ति, प्रेम-शृंगार से अलग भी छटा रखते है सूरदास के पद

काव्य कृति की बात होती है तो केवल कवि सूरदास के प्रेम-श्रृंगार और भक्ति रस में डूबे काव्यों का वर्णन होता है. लेकिन सूरदास इससे कहीं अधिक सिद्ध हस्त थे. उन्होंने काव्य शैली में गुप्त सूचना और संकेतों में बात कहने की शैली की भी शुरुआत की थी. जिन्हें कूटपद (कोडवर्ड) कहते हैं. उनकी एक रचना इसके उदाहरण में बड़ी आसानी से मिल जाती है, जिसमें लिखा तो कुछ और ही है, लेकिन वास्तव में कुछ और ही कहा जा रहा है. यह पद उद्धव-गोपी प्रसंग का है.

आप उनका यह पद देखिए...

कहत कत परदेसी की बात।
मंदिर अरध अवधि बदि हमसौ, हरि अहार चलि जात।।

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ससिरिपु बरष, सूररिपु जुग बर, हररिपु कीन्हौ घात।
मघपंचक लै गयौ सांवरौ, तातै अति अकुलात।।

नखत, वेद, ग्रह, जोरि अर्ध करि, सोइ बनत अब खात।
'सूरदास' बस भईं विरह के, कर मीजैं पछितात

सूरदास का कूट पद, जिसमें छिपा हैं गोपनीय बातें

यह सूरदास का कूट पद है. इसमें गोपियां कहती हैं, उद्धव जी, किस परदेसी की बात करते हो. मंदिरअरध ( 15 दिन) अवधि (समय) यानी 15 दिन की बात कहकर गया था और आज हरि (शेर) अहार(भोजन) यानी मांस या मास, महीनों बीत गए. ससिरिपु बरष (दिन वर्ष लगते हैं), सूररिपु जुग (रात युगों से लंबी है)  और हररिपु (कामदेव -शिव का शत्रु) हम पर प्रहार करते हैं. मघपंचक, चित्रा नक्षत्र, यानी हृदय, कृष्ण ले गया है. नखत(27 नक्षत्र), वेद (4 वेद), ग्रह (नौ ग्रह), जोड़ कर (यानी 40) आधा करें यानी बीस (विष) खाने का मन करता है. इस तरह सूरदास ने इस पद में लिखा तो कुछ और है, लेकिन इसका अर्थ कुछ और ही निकलता है. सूरदास जैसे कवि भारतीय संस्कति की शोभा हैं.  

मंदिर अरध अवधि बदि हमसौं

ये पद कूटपद कैसे है, ओर इसमें गुप्त संकेतों में बात कैसे कही जा रही है, ये जानकारी इस पद की पूरी व्याख्या से मिलेगी. उन्होंने पद की शुरुआत की है मंदिरअरध शब्द से. मंदिर का अर्थ हुआ घर, मंदिर, छप्पर वाली झोपड़ी. अरध का अर्थ हुआ आधा.  इस तरह इस शब्द का अर्थ हुआ मंदिर का आधा भाग या झोपड़ी का आधा भाग. असल में पहले जब झोपड़ियों पर छप्पर डाले जाते थे तो इस तरह झोपड़ी दो भाग में बनती थी. पहले हिस्से में झोपड़ी का निचला हिस्सा बनता था, यानी चारों ओर का घेरा और फिर छप्पर को अलग से बनाकर ऊपर चढ़ाया जाता था.

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छप्पर के इस आधे भाग को पाख कहा जाता है. पाख शब्द का तत्सम और सही शब्द है पक्ष. हिंदी महीनों में 15 दिनों का एक पक्ष (शुक्ल या कृष्ण पक्ष)  होता है. तो यहां मंदिरअरध शब्द का अर्थ हुआ 15 दिन.

इस तरह पद के इस भाग का अर्थ है, 'हमसे 15 दिन की कहकर...'

अब आगे देखिए, लिखा है 'हरि अहार चलि जात'. हरि शब्द का एक अर्थ होता है शेर. अहार का अर्थ है भोजन. हरि अहार यानी शेर का भोजन- यानी मांस. मांस यानी मास मतलब महीना और कई महीने.

तो पूरी लाइन का स्पष्ट अर्थ गोपियों की उलाहना है, जिसमें वह कह रही हैं कि 'हमसे 15 दिन में ही आने की कहकर गए थे और महीनों बीत गए हैं.  

अगली लाइन देखिए,

ससिरिपु बरष, सूररिपु जुग बर, हररिपु कीन्हौ घात।

ससिरिपु यानी चंद्रमा का शत्रु (इसका अर्थ है दिन) बरष यानी वर्ष.  चंद्रमा का शत्रु यानि दिन वर्षों के समान बीत रहे हैं और सूररिपु (सूर्य का शत्रु यानी रात) जुग का अर्थ रात, यानी रात युगों जैसी बीत रही है. हररिपु, हर का अर्थ हुआ शिव, यानी शिव का शत्रु यानी कामदेव (एक बार कामदेव ने शिव की तपस्या भंग की तो शिव ने उन्हें भस्म कर दिया था, इसलिए वह शिव शत्रु भी कहलाते हैं)

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कीन्हों घातः चोट पहुंचाते हैं.

मघपंचक लै गयौ सांवरौ, तातै अति अकुलात।।

मघपंचक - 27वें नक्षत्र में एक नक्षत्र है मघा, जो माघ के महीने में आता है, इसके बाद पांचवां नक्षत्र है चित्रा, यानी मघा नक्षत्र से पांचवां नक्षत्र यानी चित्रा, चित्रा नक्षत्र मन का प्रतीक है और मन को कहते हैं चित्त.

यानी हमारा हृदय तो सांवरो (कृष्ण) ले गया, जिसे हम बहुत व्याकुल हैं.

नखत, वेद, ग्रह, जोरि अर्ध करि, सोइ बनत अब खात।

27 नक्षत्र, चार वेद और नौ ग्रह इन सभी को जोड़ो  (27+4+9=40) यानी चालीस और आधा कर दो यानी बीस यानी विष... यानी जहर खाने को जी चाहता है.

'सूरदास' बस भईं विरह के, कर मीजैं पछितात

अब इस तरह पूरे पद का अर्थ हुआ.

कहत कत परदेसी की बात.

उद्धव! तुम किस परदेसी की बात कर रहे हो. जो 15 दिन में लौट आने का वादा करके गया और महीनों बीतने के बाद भी अब तक नहीं आया. उसके इंतजार में दिन वर्षों के समान लगते हैं, रातें युगों के जैसी बीतती हैं और कामदेव से पीड़ित ये मन बहुत कचोटता है. हमारा हृदय तो वह कृष्ण ले गया है, जिससे हम बहुत व्याकुल हैं. अब तो मन करता है कि जहर खाकर जान दे दें. सूरदास कहते हैं कि गोपियां बता रही हैं, वह विरह वेदना के वशीभूत होकर बहुत पछता रही हैं.

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राजा-महाराजा भी कवियों से लिखवाते थे गुप्त जानकारियों वाली कविताएं
आज से लगभग 600 साल पहले सूरदास अपने भक्ति के पद में इतनी गूढ़ और जासूसी की भाषा लिख रहे थे, जिसका आज भी कोई सानी नहीं है. पुराने समय में राजा-महाराजा, अपने दरबार में इसी तरह विद्वान कवियों को रखते थे, ताकि वह किसी गुप्त संदेश को अपने कूटपद शैली में कविता बनाकर लिख दें और इसे वही समझ सके, जिसे भेजा जा रहा है. इस तरह कई बार राजा अपने खजानों की सुरक्षा के लिए भी पहेलियां रचते थे, ताकि खजाने तक कोई पहुंच भी जाए तो ऐसी कविता वाली पहेलियों में उलझ जाए.

कूद पद और कवित्त की पहेलियों की बात हो रही है और साहित्य के अग्रणी कवियों का नाम लिया जा रहा है तो भक्ति कवि तुलसीदास का नाम भी लिया जाना चाहिए. उन्होंने भी ऐसे कई कवित्त और सवैया छंदों की रचना की है, जिनके बेहद गूढ़ अर्थ है. हनुमान चालीसा में तो उन्होंने सूर्य से पृथ्वी की दूरी का रहस्य ही बता डाला है, जिसमें उन्होंने लिखा है,

'जुग सहस्त्र योजन पर भानु, लील्यो ताहि मधुर फल जानू'

इसी तरह एक जगह वह लिखते हैं कि 'प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं, जलधि लांघि गए अचरज नाहीं'  इस चौपाई का शाब्दिक अर्थ तो ये हुआ कि हनुमान जी ने प्रभु श्रीराम की अंगूठी मुख में रख ली और सागर को लांघ गए, लेकिन इसका अर्थ शाब्दिक से कहीं अधिक है.

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असल में तुलसीदास यहां संकेत कर रहे हैं कि, अगर आपके मुख में राम का नाम हो तो आप बड़ी से बड़ी बाधा पार कर सकते हैं. असल में रामजी की अंगूठी एक रूपक है. रूपक इसलिए क्योंकि श्रीराम ने हनुमान जी को जो अंगूठी दी थी, उस पर उनका नाम राम लिखा हुआ था. तुलसीदास का इशारा अंगूठी के बजाय उसी राम नाम पर है. उनके जीवन में कूटपद की एक और कहानी आती है.

जब तुलसी ने सिर्फ एक छंद से की निर्धन व्यक्ति की मदद

हुआ यूं कि जब तुलसी बनारस में थे. एक बहुत ही निर्धन व्यक्ति उनके पास आया और अपनी बेटी की शादी के लिए धन की इच्छा जताई. तुलसी खुद भी निर्धन थे, वह खुद उसकी मदद नहीं कर सकते थे, लेकिन उनके मित्र थे रहीम जो कि अकबर के दरबार में मनसबदार भी थे और धनी भी. तुलसीदास ने उस व्यक्ति को एक नोट लिखकर दिया और कहा, आगरे जाओ और रहीमजी को ये देना, कहना- तुलसी ने दिया है. इस नोट पर लिखा था... सुरतिय नरतिय नागतिय, अस चाहत सब कोय,

धन की इच्छा लेकर वह व्यक्ति रहीम दास के पास गया और तुलसी का लिखा हुआ नोट दिखाया. रहीमदास ने उसे पढ़ा और तुरंत ही उस व्यक्ति की जरूरत पूरी की और तुलसी के लिखे नोट के आगे अपनी ओर से एक और पंक्ति जोड़कर उसे पूरा कर भिजवाया... गोद लिए हुलसी फिरें, तुलसी सो सुत होय. इस तरह यह पूरा छंद ऐसा बना कि 'सुरतिय नरतिय नागतिय, अस चाहत सब कोय, गोद लिए हुलसी फिरें, तुलसी सो सुत होय.'

क्या था तुलसी के छंद का अर्थ?

तुलसी के कहने का मतलब ये था कि देवताओं की पत्नियां, नागों की पत्नियां और मनुष्यों की पत्नियां जैसा चाहती हैं, इस व्यक्ति को वह सब देकर इसकी सहायता करें, तुलसी का इशारा धन की ही ओर था. रहीम दास उनकी बात को समझ गए थे, लेकिन बिना कहे अपनी असली बात कह देने के तरीके के ऐसे कायल हुए कि उन्होंने जब उनका छंद पूरा किया तो लिखा, यह तीनों की पत्नियां चाहती हैं कि जैसे तुलसी को गोद में हुलसी प्रसन्न होती हैं और अपने सौभाग्य पर इठलाती हैं, वैसा ही एक सौभाग्यशाली पुत्र उन्हें भी हो.  

कविवर सूरदास हों, भक्ति तुलसीदास हों या रहीम या अष्टछाप, निर्गुण-सगुण धारा के कोई भी कवि... इन सभी ने भारतीय साहित्य में भारत की संस्कृति को संजोकर-संवारकर रखा है. जब भी इसके पन्ने पलटे जाते हैं, गौरव का एक-एक सफा खुलता जाता है.

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