हेल्दी भी और फास्ट भी... नूडल्स से हजारों साल पुराना है ये सुपर फूड

सादा जीवन और उच्च विचार वाली भारतीय परंपरा में सत्तू आसान भोजन के साथ सात्विक भोजन का भी प्रतीक है. वनवास के दौरान सत्तू पांडवों के भी जीवन का आधार बना था. जब वह घरों से अनाज की भिक्षा मांगकर लाते थे तो माता कुंती सभी अनाज को पीसकर उससे सत्तू तैयार कर देती थीं.

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सत्तू प्राचीन काल से सुपर फूड माना जाता रहा है सत्तू प्राचीन काल से सुपर फूड माना जाता रहा है

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 22 मई 2025,
  • अपडेटेड 6:34 AM IST

गीता के 14वें अध्याय में एक श्लोक है...

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ॥

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि,  हे अर्जुन! सत्त्व गुण ही असल में ज्ञान देने वाला है और इसमें कोई दोष नहीं है. यह ज्ञान का सबसे शुद्ध स्वरूप है. सत्व यानी शुद्धता, सात्विकता. इसी सत्व से बना है शब्द सत् जो कि शुद्ध का ही रूप है और जब हम अपनी आहार परंपरा की ओर देखते हैं तो पाते हैं शुद्धता और हमारी भोजन की थाली का मेल-जोल पर्यायवाची की ही तरह है. आप अशुद्ध भोजन नहीं कर सकते. एक तो आप कर ही नहीं पाएंगे और दूसरा अशुद्ध भोजन रोगों का कारण भी बनता है.

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इसी तरह आयुर्वेद भोजन को उनके सबसे शुद्धतम रूप में ग्रहण करने के लिए कहता है, हालांकि हर भोजन हमारी थाली तक पहुंचते-पहुंचते कुछ न कुछ बदल ही जाता है. जैसे गेहूं पहले आटा बनता है और फिर रोटी के रूप में आता है तब हमे उसे खा सकते है. धान, जिसे उबालकर, कूटकर, छानकर, फटककर चावल बनाया जाता है और फिर तब कहीं जाकर यह भात बनता है और थाली में पहुंचता है. दालें भी अपने स्वरूप से बदलकर ही भोजन में शामिल होती हैं, फिर सत्व कहां बचा? 

सत्तू, किसी अनाज को खाने का सबसे प्राचीन तरीका
सत्व बचा है सत्तू में. अपने शुद्ध और मूल स्वरूप में थोड़े ही अंतर के बाद खाने लायक बन जाने और सारे प्राकृतिक गुणों को बनाए रखने के कारण ही कुछ अनाजों का पाउडर सत्तू कहलाता है. आम तौर पर चना, जौ और मक्के का सत्तू बनता है, जो इन अनाजों को भूनकर और पीस कर बनाया जाता है और बहुत ही गुणकारी होता है. सत्तू, किसी अनाज को खाने का सबसे प्राचीन तरीका रहा होगा. 

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खेती करना सीखने के बाद आदिमानव ने जब पहली बार अनाज उपजाया होगा और फिर उन्हें ठीक तरीके से खाने की समझ विकसित की होगी तो सत्तू इस स्टेप में उनका शुरुआती भोजन रहा होगा. ऋग्वेद में भी इसके जिक्र का पता चलता है. इसके दशम मंडल के 91वें सूक्त की ऋषिका अत्रि मुनि का पुत्री अपाला हैं. अपाला चर्म रोग से पीड़ित थीं, इसकी वजह से उनके पति ने उनका त्याग कर दिया था.

ऋग्वेद में सत्तू
ऐसे में अपाला ने ऋग्वेद के देवता इंद्र की तपस्या की और उन्हें सोम की बेल का रस और पिष्टान्न (पीसे हुए अनाज) अर्पित किया और उसे ही प्रसाद के रूप में ग्रहण किया. इस तरह इंद्र ने उनकी काया को सुंदर और रोगमुक्त बना दिया. इस कहानी में जो पिष्टान्न शब्द आया है, वह पीसे गए अनाज के लिए प्रयोग होता है. इससे वैदिक युग में सत्तू के भोजन परंपरा में शामिल रहने और प्रमुखता से अपनी मौजूदगी दर्ज कराने का पता चलता है. 

आगे चलकर यजुर्वेद में पिष्टान्न और पिष्टपाक शब्द भी आता है. पिष्टपाक का अर्थ है, पीसे हुए अनाज से बना पकवान. यजुर्वेद (तैत्तिरीय संहिता, 1.1.10) में "यवैष पिष्टो हविर्भवति" एक सूक्ति है, जिसका अर्थ है 'यह हवि जो पीसे हुए जौ से बना है.' इसमें भी यज्ञकर्ता का इशारा सत्तू की ही तरफ है. 

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वेदों में इतनी प्रमुखता से आहार के तौर पर शामिल सत्तू वाकई गुणकारी भोजन है. इसकी सबसे खास बात है कि यह प्राचीन फास्ट फूड है और तुरंत ही तैयार हो जाता है. जैसे आज मैगी 2 मिनट में (विज्ञापनों में ऐसा दावा) में तैयार होती है, सत्तू ऐसा खाद्य पदार्थ जिसके लिए ईधन की भी जरूरत नहीं होती है. इसे गर्मियों के दिनों का सबसे सुपाच्य और आसान भोजन भी माना जाता है.

मौसम का बदलाव और थाली में सत्तू
भारतीय जनमानस में मौसम का बदलाव भी उत्सव है और जब सर्दी के मौसम से गर्मी के मौसम का बदलाव होता है, तब धीरे-धीरे भोजन की परंपरा भी बदलती जाती है. थाली में से गर्म तासीर वाला भोजन कम होता जाता है और इसकी जगह ठंडी तासीर वाले भोजन ले लेते हैं. ऐसे भोजन जो धूप, लू और गर्मी से बचाव करते हैं. इसी ग्रीष्म ऋतु के स्वागत का उत्सव  है सतुआन. उत्तर भारत के मैदानी भागों में 14-15 अप्रैल को सतुआन पर्व मनाया जाता है. यह ग्रीष्म ऋतु के स्वागत का पर्व है. इस दिन सूर्य का राशि परिवर्तन भी होता है. इसलिए इसे मेष संक्रांति भी कहते हैं. सतुआन के दिन सत्तू खाने की परंपरा है. सूर्य मीन राशि छोड़कर मेष राशि में प्रवेश करते हैं. 

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यह पर्व कई मायने में महत्वपूर्ण है. इस दिन लोग अपने पूजा घर में मिट्टी या पीतल के घड़े में आम का पल्लव स्थापित करके सत्तू, गुड़ और चीनी से पूजा की होती है. धन दान की भी परंपरा रही है और सत्तू और कच्चे आम की चटनी को प्रसाद के तौर पर खाया जाता है. सतुआन के साथ ही बिहार में जूड़ शीतल भी मनाया जाता है, इस दिन आम, पीपल, बरगद, आंवला और शमी के वृक्षों में जल चढ़ाते हैं और इनके आस-पास बने चीटी के घरों पर सत्तू फैलाते हैं. 

दक्षिण भारत में विषुकानी पर्व
ऐसी ही परंपराएं दक्षिण भारत में भी हैं. तमिलनाडु और कर्नाटक में 14-15 अप्रैल या सूर्य के राशि परिवर्तन दिवस को विषु कानी पर्व के तौर पर मनाते हैं. यह पर्व भगवान विष्णु को समर्पित है और दक्षिण भारत में एक तरह से नव वर्ष का प्रतीक है. दरअसल विषु कानी पर्व कृषि आधारित पर्व है, जिसमें खेतों में बुआई का उत्सव मनाते हैं. सुबह उठकर स्नान-ध्यान के बाद सबसे पहले आस-पास के मंदिर में विष्णु देव प्रतिमा का दर्शन करते हैं और झांकी भी निकालते हैं. घरों में इस दिन नए अनाज से भोजन बनाया जाता है और देव को 14 प्रकार को व्यंजन का भोग लगाते हैं. इनमें से अधिकतर भोजन पिसे हुए अनाज से तैयार किया जाता है.

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सादा जीवन और उच्च विचार वाली भारतीय परंपरा में सत्तू आसान भोजन के साथ सात्विक भोजन का भी प्रतीक है. वनवास के दौरान सत्तू पांडवों के भी जीवन का आधार बना था. जब वह घरों से अनाज की भिक्षा मांगकर लाते थे तो माता कुंती सभी अनाज को पीसकर उससे सत्तू तैयार कर देती थीं. माता कुंती ऐसा इसलिए करती थीं ताकि उनके पांचों बेटों में आपसी प्रेम हमेशा बना रहे. वह सभी के लाए हुए अनाजों को मिला देती थीं, ताकि सभी को सभी अनाजों का पोषण मिले.  

भारत की यात्रा परंपरा का हिस्सा है सत्तू
इसके अलावा सत्तू भारत की यात्रा परंपरा का हिस्सा भी रहा है. क्योंकि यह यात्रा में ले जाने लायक, लंबे समय तक सुरक्षित रहने वाला और शरीर को ऊर्जा देने वाला भोजन है. इसे पोटली में बांधकर लटका लिया. यात्रा करते रहे और जब थकान हुई और भूख लगी तो किसी घने पेड़ की छाया में बैठ गए, कुएं से जल निकाला सत्तू घोला और पी लिया. जैसे दूध संपूर्ण आहार माना जाता है, सत्तू भी पूर्ण पौष्टिक होता है. 

संत-महात्माओं के लिए भी सत्तू सात्विक भोजन रहा है. आयुर्वेद में सत्तू को वात-पित्त-कफ संतुलित करने वाला बताया गया है. यह शरीर को ठंडक देता है, पाचन में सहायक होता है और शरीर को प्राकृतिक रूप से ऊर्जा देता है. बिहार में विवाह के समय 'सात्विकता' और शुद्धता का प्रतीक मानकर दुल्हन को ससुराल जाते समय सत्तू दिया जाता है, जिसे 'सत्तू-दान' कहा जाता है. लड़की के लिए वर देखने जाने वाले कन्या के पिता भी साथ में सत्तू लेकर यात्रा करते थे. यह शुभ का प्रतीक होता था, शुभ भी इसलिए, क्योंकि कन्या के लिए वर तलाशना कोई आसान काम तो था नहीं, यात्रा कितनी लंबी होगी इसका पता नहीं, ऐसे में सत्तू सिर्फ भोजन नहीं एक विश्वास भी था कि, कम से कम सफर में खाने के लिए कुछ तो रहेगा ही. 

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सत्तू का इतिहास भारतीय खानपान के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक बदलावों का भी साक्षी है. सत्तू युद्ध के समय भी सैनिकों का सहायक रहा, बल्कि राजस्थान में जो दाल-बाटी खाई जाती है और बिहार में सत्तू भरी लिट्टी खाई जाती है, ये दोनों ही भोजन एक जैसी ही परिस्थिति में तैयार हुए. युद्ध, थकान और मानसिक द्वंद्व के बीच भी जब पेट ने भोजन मांगा, लेकिन शरीर बहुत कुछ बनाने को राजी नहीं था तब आटे की लोइयां, सत्तू भरके गर्म राख में दबा दी गईं और जब ये राख ठंडी हुई तब भीतर से जो निकला वो लिट्टी बना.

भोजन ही नहीं क्रांति भी है सत्तू

सत्तू सिर्फ भोजन नहीं क्रांति भी था. चंद्रशेखर आजाद, अंग्रेजों के खिलाफ अपनी छेड़ी हुई जंग चना और सत्तू खाकर लड़ रहे थे. महात्मा गांधी ने अगर पहनने के लिए खादी पर जोर दिया और चरखा क्रांति की तो उन्होंने भोजन के लिए सत्तू जैसे पारंपरिक भोजन को भारतीयता की पहचान बनाया. 

आज के दौर में जब लोगों की लाइफ स्टाइल और फूड हैबिट बिगड़ी हुई है और जब वे धीरे-धीरे स्वास्थ्य के प्रति सजग हो रहे हैं, तो सत्तू को फिर से "सुपरफूड" के तौर पर पहचान मिल रही है. इसमें प्रोटीन, फाइबर, आयरन, मैग्नीशियम जैसे जरूरी मिनरल्स पाए जाते हैं. यह डायबिटीज़, कोलेस्ट्रॉल और पाचन संबंधी समस्याओं में लाभदायक है. सत्तू केवल भोजन नहीं, बल्कि भारतीय जीवनशैली की सांस्कृतिक पहचान है. यह अतीत का आशीर्वाद है और भविष्य की धरोहर है.

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