सोना... भारतीय परंपरा में सबसे अधिक शुद्ध मानी जाने वाली और निर्विवाद रूप से सभी की पसंदीदा धातु है. इसके प्रति दीवानगी का आलम ये है कि साल 2016 के बाद से बीते 9 सालों में सोने के दाम लगातार बढ़ें हैं और आज लगभग सवालाख रुपये प्रति दस ग्राम इसका रेट है, फिर भी इसकी खरीदारी में कमी नहीं आई है. साल 2024 के धनतेरस पर नजर डालें तो उस दौरान करीब 25 टन सोने की बिक्री हुई थी, जिसका मूल्य करीब 20 हजार करोड़ रुपये आंका गया था.
भारतीय समाज की पहचान है सोना
सोना, भारतीय समाज की पहचान है और इसकी मान्यता सबसे अधिक होने का कारण यह है कि यह सीधे हमारी पूजा पद्धति, वैदिक परंपरा और हमारी विरासत से जुड़ा हुआ है. वेद-पुराणों से लेकर दादी-नानी की कहानियों तक में सोने की मौजूदगी है और यह सिर्फ धन का ही एक रूप नहीं है, बल्कि सोना समृद्धि, ऐश्वर्य, शुद्धता, लालसा, कामना, इच्छा, विजय और शक्ति का भी प्रतीक है.
हर तरह की इच्छा का प्रतीक है सोना
यहां यह बता देना जरूरी है कि लालसा, कामना और इच्छा तीनों ही अलग-अलग भावनाओं की प्रतीक हैं. लालसा में लोभ की मिलावट है. कामना दैविक और शुद्ध भाव वाली चाहत है और इच्छा एक सामान्य प्रवृत्ति है जो जीव के भीतर होती है. मजे की बात ये है कि सोना इन तीनों भावनाओं की पूर्ति एक साथ कर सकता है.
ब्रह्मांड की शुरुआत का प्रतीक है सोना
वैदिक समाज समृद्धिशाली था, लिहाजा सबसे शुरुआती रिटेन डॉक्यूमेंट और स्क्रिप्ट में ही सोने का जिक्र शुरू हो जाता है. ऋग्वेद में सूर्य को हिरण्य कहकर पुकारा गया है. हिरण्य का अर्थ है सुनहला... ब्रह्मांड जिस एक गोल पिंड के भीतर समाया हुआ था वह हिरण्यगर्भ कहलाया. देवी भागवत में देवी का एक नाम हिरण्यमयी भी है.
सोना और अग्नि दोनों ही का जन्म हिरण्यादित्य यानी सूर्य से हुआ है. सूर्य अदिति के पुत्र हैं इसलिए 12 आदित्यों में सबसे बड़े वही हैं. उनका नाम हिरण्य भी जो उन्हें उनके दमकते-सुनहले रंग के लिए मिला है. सू्र्य देव का एक मंत्र है, 'ओम हिरण्यगर्भाय नमः', जिसमें उन्हें ब्रह्मांड का जनक बताया गया है. इसलिए सोने में अग्नि जैसी ही जो दमक है वह सूर्य से ही आई है.
वैदिक काल की महत्वपूर्ण धातु है सोना
वैदिक महिलाएं सोना पहनती थीं, ऐसा जिक्र बार-बार होता है. तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से उपलब्ध भारतीय मूर्तियों में विभिन्न प्रकार के आभूषणों की बहुतायत दिखाई देती है. मूर्ति के हर भाग में एक आभूषण होता है. इसके उलट जब हम यूनानी मूर्तियों को देखते हैं तो हमें नग्न शरीर दिखते हैं. जब हम सुमेरियन और बेबीलोनियन मूर्तियों को देखते हैं तो कुछ कम आभूषण दिखते हैं. केवल मिस्र की महिलाएं हिंदुओं की तरह गहनों से लदी दिखती हैं.
सोने के नामकरण की कहानी
इस तरह वेदों में सोने का नामकरण उसके पाए जाने वाले स्थानों के आधार पर भी किया गया है. वैदिक ग्रंथों में चंद्र की किरणों की भी तुलना सोने की शुद्धता से की गई है. वैदिक लोगों को पृथ्वी से सोने कैसे निकाला जाए, इसकी विधि पता थी. तैत्तिरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण में सोना कहां से और कैसे मिलता है, इसका विस्तार से जिक्र है. सोना नदी के तल से भी प्राप्त किया जाता था और यही कारण है कि सिंधु को ऋग्वेद में हीरमय कहा गया है. सरस्वती के लिए एक नाम हीरण्यवर्तनी लिखा मिलता है.
वेदों के स्वर्ण साक्ष्य
भारतीय सभ्यता की समृद्धि और वैभव का सबसे प्राचीन साक्ष्य वेदों में मिलता है. ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद जैसे वैदिक ग्रंथ न केवल आध्यात्मिक विचारों के भंडार हैं, बल्कि वे उस युग के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन के भी सजीव दस्तावेज हैं. इनमें सोना, रत्न, और आभूषणों के अनेक उल्लेख यह बताते हैं कि भारत प्राचीन काल से ही धातु विज्ञान, सौंदर्यबोध और समृद्धि की दृष्टि से अत्यंत विकसित रहा है.
सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक भी है सोना
ऋग्वेद में “हिरण्य” शब्द का अर्थ सोने के आभूषणों से है. यह न केवल भौतिक संपदा का प्रतीक था, बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा का भी संकेत रहा है. काठक संहिता (कृष्ण यजुर्वेद) और तैत्तिरीय संहिता में सोने की मुद्रा और सोने के वजन ‘अष्टाप्रुद’ का उल्लेख मिलता है. शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि एक सोने का ‘सतमान’ सौ कृष्णल (तमिल में कुंथुमणि) के बराबर होता था. यह भारतीय समाज में सुव्यवस्थित आर्थिक प्रणाली और वजन-तौल की परिपक्वता को दर्शाता है.
ऋग्वेद की प्राचीन कथा में सोने का उल्लेख
ऋग्वेद (6-47-23) में उल्लेख है कि राजा दिवोदास ने एक पुजारी को दस स्वर्ण पिंड 'दश हिरण्य पिंडम' भेंट किए थे. यह उदाहरण भी दर्शाता है कि सोना उस समय उपहार और सम्मान का प्रमुख माध्यम था. बृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य द्वारा गायों के सींगों में हजार सोने के टुकड़े बांधकर भेंट करने का वर्णन है. यह परंपरा तमिलनाडु के संगम काल तक जीवित रही, जहां विद्वानों और महान व्यक्तियों को सोना दान देने की प्रथा थी.
यह भारतीय समाज की अपार संपत्ति और दानशीलता का प्रमाण है. यदि सोने की मुद्रा के ऐसे प्रमाण पुरातत्व से मिलते हैं, तो यह सिद्ध होगा कि भारत दुनिया में सबसे पहले सोने की मुद्रा का उपयोग करने वाला देश था.
शतपथ ब्राह्मण में जिक्र मिलता है कि सोना अयस्क से गलाने से प्राप्त किया जाता था. इसका अर्थ है कि वैदिक काल तक भारतीय धातु विज्ञान में काफी प्रगति हो चुकी थी. सोने को पाया जाना, उसका शोधन और उसे आभूषणों में ढालने की तकनीक उस समय विकसित थी.
अथर्ववेद में तो जिक्र आता है कि बुढ़ापे में मरने वाला व्यक्ति वही बन जाता है, मृत्यु के समय जो सबसे अधिक बहुमूल्य वस्तु उसने पहनी हो. इसलिए ही सोना पहनने का चलन है. अथर्ववेद की एक सूक्ति का अर्थ ऐसा है कि 'सोने से जीवन, वैभव, बल और तेज प्राप्त हो; सोने की चमक से तू लोगों के बीच चमक सके.' यह सूक्ति सोने के धार्मिक और प्रतीकात्मक महत्व को सामने रखती है.
ऋग्वेद में है विवाह के समय पुत्री को सोना देने का उल्लेख
ऋग्वेद में विवाह के समय पिता द्वारा पुत्री को सोने के आभूषण देने का उल्लेख है. “कुरिर” शब्द का अर्थ सिर का आभूषण और “कर्णसोभण” झुमके के लिए कहा गया है. अथर्ववेद में प्रवर्त (कान का आभूषण), सोने के ताबीज और “निष्करिव” (सोने के सिक्कों का हार) का उल्लेख मिलता है.
वाजसनेयी संहिता में “सुनार” और “मणिकार” का उल्लेख है. शतपथ ब्राह्मण में सोने की जंजीर को “रुक्म पासा” कहा गया है. ऋग्वेद ही में महिलाओं द्वारा स्तनों पर सोने के आभूषण पहनने का वर्णन है, जिसे वह बड़े ही गर्व से धारण करती रही हैं. इसे 'वक्षसु रुक्म' कहा गया है.
देवताओं के आभूषणों में सोना
इंद्र के हाथों में सोने के कंगन और मरुतों के शरीर पर सोने की अलंकरणों का उल्लेख भी मिलता है. यह उस युग की समृद्धि और सौंदर्यप्रियता का प्रमाण है. इसी तरह 'मणि' शब्द ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों में आया है. इसका अर्थ रत्न या आभूषण दोनों हो सकता है. 'मणिग्रीव' (ऋग्वेद) का अर्थ है गले में पहना जाने वाला मणि युक्त हार.संगम तमिल साहित्य में भी “मणि” शब्द रत्न के रूप में 400 से अधिक बार प्रयुक्त हुआ है. यह दर्शाता है कि स्वर्ण प्रेम और स्वर्ण आभूषणों की परंपरा उत्तर से दक्षिण तक पूरे भारत में प्रचलित थी.
वैदिक साहित्य में सोना केवल धातु नहीं, बल्कि वैभव, दानशीलता, सौंदर्य और आध्यात्मिक तेज का प्रतीक है. इंडो-यूरोपीय भाषाओं में सोने या आभूषणों के समकक्ष शब्दों की अनुपस्थिति और 1700 ईसा पूर्व के यूरोप में ऐसी परंपराओं का न होना यह प्रमाणित करता है कि वैदिक सभ्यता भारत में ही उत्पन्न हुई.
परंपरा का प्रतीक है सोना
भारत की यह परंपरा केवल भौतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक है. “कांचनं हस्तलक्षणम्” यानी हाथों की सुंदरता सोने में बसी हुई है, यह सूक्ति भारतीय सौंदर्यबोध का सार सामने रखती है.
भारत प्राचीन काल से ही संपन्न, सुसंस्कृत और सौंदर्यप्रेमी राष्ट्र रहा है. सोना यहां केवल धन नहीं था, यह सम्मान, विश्वास और संस्कृति का प्रतीक था, वही संस्कृति जिसने भारत को “सोने की चिड़िया” बनाया.
विकास पोरवाल