छठ व्रत, या जल में खड़े रहकर सूर्यदेव की पूजा की व्रत परंपरा कैसे शुरू हुई, इसकी प्राचीनता को लेकर कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते हैं. ये अलग बात है कि शिवपुत्र कार्तिकेय के जन्म के बाद उनके शुरुआती पालन पोषण में सूर्यलोक में रहने वाली छह कृत्तिकाओं ने सहायता की थी. उन्हीं कृत्तिकाओं के नाम पर देवी पार्वती के पुत्र का नाम कार्तिकेय पड़ा.
हिंदी महीनों में कार्तिक का महीना इन्हीं छह कृत्तिकाओं और देवी पार्वती के पुत्र भगवान कार्तिकेय के नाम पर पड़ा है. इस महीने में कृत्तिका नक्षत्र की प्रधानता होती है, जो कि छह तारों से मिलकर बना होता है. ये छह तारे एक दीपशिखा की तरह दिखाई देते हैं. इसलिए कार्तिक के महीने को सौभाग्य सूचक, संतान के स्वास्थ्य, सुरक्षा और प्रकृति के बदलाव का महीना माना जाता है. खास बात यह है कि इन सभी मान्यताओं के त्योहार और पर्व भी इसी महीने में आते हैं. जैसे करवाचौथ, अहोई अष्टमी, दीपावली, छठ और देवोत्थान...
छठ पर्व की पूजा में यही मान्यता बलवती होती दिखाई देती है. यह मान्यता भी कोई एक बार में प्रबल नहीं होती है, बल्कि समय के कई कालखंड में विकसित हुई है. षष्ठी तिथि को माता के रूप में कब माना गया है, पहले किसने पूजा की और इस स्वरूप में पहले किसने पहचाना, इसका ठीक-ठीक अनुमान लगा पाना कठिन है, लेकिन पौराणिक आख्यानों में ऐसे कुछ प्रसंग और घटनाक्रम मिलते हैं, जिन्हें छठ पूजा के लिए उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है.
इसी तरह छठ पूजा के लिए सबसे पहला नाम तो खुद स्वयंभुव मनु का ही आता है. एक दिन वह जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य दे रहे थे. इसी दौरान उनके हाथ में एक मछली आ गई. मनु उस मछली को घर ले आए और एक पात्र में रखदिया. रात भर में मछली बड़ी हो गई और पात्र छोटा पड़ गया. तब उन्होंने उस मछली को बड़े कुंड में डाल दिया. मछली के लिए कुंड भी छोटा पड़ गया. तब महाराज मनु ने उस मछली को पहले तालाब, फिर झील और फिर वापस नदी में डाला. इस बार मछली ने विशालकाय आकार ले लिया. इसे मनु देखते ही रह गए. तब उसी मछली से महाविष्णु प्रकट हुए और उन्होंने अपने मत्स्य अवतार के बारे में बताया. तब महाविष्णु ने कहा कि सूर्य को लगातार अर्घ्य देने के कारण ही मैंने सबसे पहले अपने अवतार के दर्शन तुम्हें दिए हैं. इसलिए तुम प्रलय के बाद सृष्टि शुरू करने वाले प्रथम मनुष्य होगे. इस तरह स्वयंभुव मनु को सूर्य कृपा से सृष्टि की शुरुआत करने और उसके पालन का अधिकार मिला.
लेकिन, वह सिर्फ कमर तक जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे, लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह छठ पूजा करते थे, क्योंकि वह जो करती थी, उनकी दैनिक दिनचर्या थी.
लेकिन, सबसे पहले छठ व्रती के तौर पर इन्हीं मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत का भी नाम आता है. राजा प्रियव्रत धरती के सम्राट थे, लेकिन उन्होंने एक दुख था कि उनकी कोई संतान नहीं थी. महर्षि कश्यप के कहने पर राजा प्रियव्रत ने उनसे यज्ञ करने को कहा. इस यज्ञ के फल से राजा की पत्नी मालिनी एक बालक की माता बनीं, लेकिन शिशु मृत पैदा हुआ था.
मृत संतान के जन्म से राजा और उनका परिवार हताश हो गया. तब राजा प्रियव्रत ने जल में खड़े होकर मां भुवनेश्वरी को पुकारा. राजा की पुकार पर माता अपने छठवें अंश से प्रकट हुईं. जब राजा ने उनसे प्रार्थना की, तो उन्होंने कहा: "मैं षष्ठी देवी हूं, प्रकृति का छठा रूप. मैं संसार के सभी बच्चों की रक्षा करती हूं और सभी संतानहीन माता-पिता को संतान का आशीर्वाद देती हूं." इसके बाद, देवी ने निर्जीव शिशु को अपने हाथों से आशीर्वाद दिया, जिससे वह जीवित हो गया. षष्ठी देवी की कृपा के लिए आभारी होकर, राजा ने देवी की पूजा की. इसके लिए उन्हें सभी प्रकार के ऋतुफलों का नैवेद्य चढ़ाया. नवान्न का भोग लगाया और जल में ही उतर कर उनकी पूजा की. राजा प्रियव्रत की यह कथा, छठ की कोसी भरते हुए महिलाएं आपस में कहती-सुनती हैं और छह कोसी में छह प्रकार के ऋतुफल भरती जाती हैं. वे कहती हैं कि छठी मइया ने जैसे राजा-रानी की झोली भरी और जैसे हमने कोसी भरी वैसे ही छठ मइया हमारा घऱ-परिवार भरा-पूरा रखें, बाल बच्चों को जिलाए रखें और उनकी रक्षा करें.
इस तरह इस कथा को छठ पर्व की शुरुआती परंपरा माना जा सकता है.
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