क्या है नाटक की लोक कला नौटंकी शैली, जिससे जन-जन तक पहुंची अंग्रेजों की करतूत और सुल्ताना डाकू की कहानी

नौटंकी का मंचन गांवों की चौपालों और आमतौर पर खुले में हुआ करता था. इन्हें ओपन थिएटर की पुरानी भारतीय शैली की तरह समझना चाहिए. नौटंकी की इस विधा में कई क्षेत्रीय लोक कथाएं भी इसके विषय में शामिल हुई हैं. जैसे पिंडारी और डाकू. 

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नौटंकी शैली में 'डाकू सुल्ताना' की कहानी का श्रीराम भारतीय कला केंद्र में मंचन नौटंकी शैली में 'डाकू सुल्ताना' की कहानी का श्रीराम भारतीय कला केंद्र में मंचन

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 06 जून 2025,
  • अपडेटेड 5:14 PM IST

7 जनवरी 1991. रायबरेली के मुंशीगंज इलाके में उस दिन अलग ही गहमा गहमी थी. यहां बहने वाली सई नदी लहरें हिलोरे ले रही थीं. इसके पुल पर किसानों का जत्था इकट्ठा था. किसानों को खबर मिली थी डिप्टी कमिश्नर मिस्टर शेरिफ ने इससे दो दिन पहले जिन तीन किसान नेताओं को गिरफ्तार कर जेल भेजा था, उन्हें गोली मार दी गई है. 

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इसी के आक्रोश में किसानों का जत्था रायबरेली से लखनऊ की ओर बढ़ रहा था. वे अभी पुल पर पहुंचे ही थे, हजारों की भीड़ देखकर ब्रिटिश अफसर घबरा गया और उसने गोलीबारी के आदेश दे दिए. 700 से ज्यादा किसान 25 फीट ऊंचे पुल से नदी में कूद गए. लड़ाई थी अंग्रेजों की अवैध लगान वसूली के खिलाफ. किसानों पर हुए अत्याचार के खिलाफ.

भारत में हुआ दूसरा जलिांवाला हत्याकांड
नजारा ऐसा था कि लहूलुहान किसान एक के बाद एक नदी में गिर रहे थे और ब्रिटिश सेना लगातार फायरिंग कर रही थी. जब अंग्रेजों की बंदूकें शांत हुईं, तो सई नदी का पानी किसानों के खून से लाल हो चुका था. 750 से ज्यादा किसान शहीद हुए और 1500 से ज्यादा लोग घायल हुए थे. आजादी के इतिहास में इस घटना को 'मुंशीगंज गोलीकांड' का नाम दिया गया. इस भयानक नरसंहार को स्वतंत्रता सेनानी और पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘दूसरा जलियांवाला बाग’ कहा था और पं. जवाहर लाल नेहरू ने जब इस भीषण कांड के बारे में सुना तो वह रो पड़े थे. 

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अंग्रेजों की यही करतूत और शहीदों की अमर गाथा आगे चलकर विरोध की ऐसी आवाज बनी कि इसने क्रांति की आग में घी का काम किया. इस दर्दनाक कांड पर कई गीत बने, कई कहानियां लिखीं गईं और कई दास्तानें भी रची गईं, लेकिन आजादी की लड़ाई के समय से ही इस कांड को जन-जन तक पहुंचाने का काम नौटंकी शैली ने.

सिर्फ मुंशीगंज कांड ही नहीं, बल्कि चंपारण का सत्याग्रह, नील क्रांति, रानी लक्ष्मीबाई की गाथा, वीर कु्ंअर सिंह जैसे रणबांकुरों की कहानियां लोगों तक जिस अंदाज में पहुंची और उन्हें अमर बना गईं, नौटंकी शैली का इनमें बहुत बड़ा हाथ है. उत्तर भारत के कई गांवों में रामायण-महाभारत की कहानियां भी नौटंकी शैली की प्रस्तुति के विषय वस्तु रहे हैं.

लोकप्रिय नाट्य विधा है नौटंकी शैली
असल में, नौटंकी, एक लोकप्रिय लोक नाट्य रूप है जिसमें संगीत, नृत्य, संवाद और कथानक का मिलाजुला रूप दिखाई देता है. यह उन्नीसवीं सदी में उत्तर प्रदेश में पनपा और फिर लोकप्रिय भी हुआ. हो सकता है कि नौटंकी की उत्पत्ति भगत नामक नाटकीय धार्मिक गायन रूप से हुई हो, जो पंजाब के नकल, महाराष्ट्र के तमाशा, मारवाड़ के ख्याल, मध्य प्रदेश के माच और बंगाल के जात्रा (यात्रा) जैसे अन्य क्षेत्रीय नाट्य रूपकों से मिलता-जुलता है. 

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हालांकि कला पारखी विद्वानों में इसे लेकर मतभेद है. कुछ का मानना है कि यह संस्कृत शब्द 'नाट्य' से लिया गया है, जिसका अर्थ है "नाटक", जबकि कुछ इसे मुल्तान से आया शब्द कहते हैं, जहां लोककथाओं को देसी अंदाज में आसान कविताओं के जरिए लोगों के हुजूम के सामने पेश किया जाता था. लिहाजा नौटंकी में आज भी कवित्त रूप अपने पूरे विस्तार में दिखाई देता है.

1920 के दशक में इसे मुख्य रूप से स्वांग (हास्य नाटक) कहा जाता था और यह नाम उत्तर प्रदेश के हाथरस और ब्रज क्षेत्रों में आज भी मिलता है. नौटंकी मुख्य रूप से मनोरंजन का एक रूप है, जिसमें कहानियां और विषयवस्तु अधिकतर धर्मनिरपेक्ष सोर्स से ली जाती हैं, जिनमें उत्तर भारत की लोकप्रिय किंवदंतियां और कहानियां, अरबी और फारसी रोमांस, राजस्थान, पंजाब और उत्तर प्रदेश के लोक महाकाव्य, संतों, राजाओं, नायकों और समकालीन घटनाओं की कहानियां, साथ ही सामाजिक असमानता और लैंगिक हिंसा जैसे विषय शामिल हैं.

नौटंकी शैली में मंचन की शुरुआत करते सूत्रधार  (Photo-  Grok AI)

कैसे हुई उत्पत्ति, क्या है विशेषताएं
हाथरस और कानपुर उन्नीसवीं सदी के अंत में नौटंकी के दो प्रमुख केंद्र बनकर उभरे. हाथरस शैली 1890 के दशक में कवि इंदरमन द्वारा स्थापित अखाड़े (संगीत, कविता, नाटक और कुश्ती के अभ्यास के लिए मुख्य रूप से पुरुषों का स्थान) में निर्मित स्वांगों की एक श्रृंखला से उभरी. इस शैली में संगीत पर जोर दिया गया, जिसमें ध्रुपद से शुरुआत होती थी और इसमें शास्त्रीय हिंदुस्तानी रचनाएं और गीत शामिल थे. 1910 के दशक में, कानपुर एक महत्वपूर्ण नौटंकी केंद्र बनकर उभरा, जिसने हाथरस से अलग एक विशिष्ट शैली विकसित की, जो पारसी थिएटर की बढ़ती लोकप्रियता से प्रभावित थी. इसमें प्रोसीनियम मंच और पर्दों का उपयोग, साथ ही संवाद, अभिव्यक्ति, अभिनय और मंच डिजाइन पर ध्यान केंद्रित किया गया.

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नौटंकी प्रदर्शनों को अक्सर शाही संरक्षण प्राप्त होता था, खास तौर पर लखनऊ के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह (शासनकाल 1847–56) से. उनके शासनकाल में कथानक, वेशभूषा, भाषण, संगीत रचना और मंच डिजाइन में इस्लामी विषयों का उपयोग बढ़ा, जिसका श्रेय आमतौर पर आगा हसन अमानत द्वारा लिखित नाटक इंदरसभा की लोकप्रियता को दिया जाता है. इस दौर तक उर्दू शब्दों का उपयोग भी अधिक होने लगा, और स्याहपोश, बेनजीर बेदरमुनीर और लैला मजनूं जैसी कहानियों को नाटकों में बदलकर पेश किया जाने लगा. कानपुर में, लालमन नंबरदार और श्री कृष्ण पहलवान के अखाड़े महत्वपूर्ण केंद्र बनकर उभरे. 1857 के भारतीय विद्रोह के बाद सामाजिक अशांति के कारण नवाब का शाही संरक्षण समाप्त हो गया, और नौटंकी का विकास व्यक्तियों और मंडलियों के प्रयासों से होने लगा.

अंग्रेजों के क्रूर इतिहास को डाकुओं से मिली थी चुनौती
ये नौटंकी का एक सामान्य इतिहास है. वक्त के साथ इसमें काफी तब्दीली आई. नौटंकी का मंचन गांवों की चौपालों और आमतौर पर खुले में हुआ करता था. इन्हें ओपन थिएटर की पुरानी भारतीय शैली की तरह समझना चाहिए. नौटंकी की इस विधा में कई क्षेत्रीय लोक कथाएं भी इसके विषय में शामिल हुई हैं. जैसे पिंडारी और डाकू. 

18वीं से 19वीं सदी के बीच अंग्रेजी सरकार की अव्यवस्था के कारण डाकुओं का आतंक भी बढ़ा. हालांकि डाकू खूंखार जरूर थे, लेकिन उनके निशाने पर अमीर, धन्ना सेठ और अंग्रेजी अफसर ही अधिक रहे. गरीबों के लिए वह मसीहा की तरह रहे और उनकी इमेज रॉबिन हुड जैसी रही. यहां यह बताना भी जरूरी है कि रॉबिन हुड अंग्रेजी लोककथाओं में ऐसा नायक है जो अमीरों को लूटकर उनका धन गरीबों में बांट देता था. 

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नौटंकी शैली में डाकू सुल्ताना के मंचन का प्रतिनिधि चित्र  (Photo- Grok AI)



क्यों प्रसिद्ध है सुल्ताना डाकू की कहानी
ऐसी ही एक कहानी है डाकू सुल्तााना की. दिल्ली के श्रीराम सेंटर की नाटक मंडली ने सुल्ताना डाकू की कहानी को नौटंकी शैली में तैयार किया है और निर्देशक पद्मश्री राम दयाल शर्मा ने इस नाटक में नौटंकी की परंपरा को पुनर्जीवित किया है. उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में सुल्ताना डाकू नाम के एक चरित्र ने उत्तर प्रदेश के कुछ इलाक़ों में दहशत फैला दी थी. 

1920 के आसपास नजीबाबाद, मुरादाबाद और हरिद्वार से लेकर पंजाब तक के इलाको तक सुल्ताना डाकू नाम था. सुल्ताना अमीरों को लूटता था और लूट का बहुत सा धन गरीबों में बांट देता था. इस तरह वह गरीबों का भाई, उनका दोस्त बन गया, लेकिन अंग्रेजों की निगाह में खटकने लगा.

सुल्ताना की एक और ख़ासियत ये थी कि वो चिट्ठी भेज कर डाका डालने का दिन पहले से बता देता था. उसका असली नाम सुल्तान सिंह था. उसका जन्म बिजनौर में एक बंजारा भांतू समुदाय में हुआ था. बंजारा भांतू ख़ुद को राणा प्रताप का वंशज बताते हैं.

अंगुलिमाल और रत्नाकारः पुराणों और मिथक में भी शामिल हैं डाकू
बात जहां तक डाकुओं की होती है तो कहीं न कहीं वह भी भारतीय संस्कृति का हिस्सा बनते हैं, बल्कि पौराणिक कहानियों का हिस्सा तो वह हैं हीं. जैसे बौद्ध जातक कथाओं में अंगुलिमाल डाकू का जिक्र होता है. इसी तरह का एक मिथकिय चरित्र डाकू रत्नाकर है, जो नारद मुनि की शिक्षा के प्रभाव से वाल्मीकि बन गया था. वाल्मीकि ने ही संस्कृत में रामायण की रचना की थी. उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में भी कई डाकू अलग अलग कारणों से चर्चा में रहे, जिनमें परसुराम, परमेश्वर और सुल्ताना डाकू जैसे नाम प्रसिद्ध हैं. डाकुओं का जिक्र आजादी के बाद तक और लगभग 80 के दशक तक रहा है. भिंड के बीहड़ में फूलन देवी, जिन्हें बैंडिट क्वीन के नाम से जाना जाता है और जो बाद में राजनीति में भी आईं, प्रसिद्ध नाम रही हैं.

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खैर, सुल्ताना डाकू पर लौटते हैं. लेखक राम दयाल शर्मा ने सुल्ताना के चरित्र को एक बागी की तरह उभारा है. अमीरों के साथ साथ वो अंग्रेजी सरकार के लिए भी एक बड़ी चुनौती है. उसका चरित्र काफी जटिल है. एक तरफ वो गरीबों की मदद करता है तो दूसरी तरफ वो अमीरों और गद्दारों के लिए एक बेरहम डाकू है.

श्रीराम सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स की ओर से आयोजित शीला भरत राम नाट्य महोत्सव के दूसरे दिन नौटंकी शिला की अद्भभुत विधा में इसी डाकू सुल्ताना की कहानी दोहराई जा रही है.  

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