मंच पर एक कोने में बिजली का खंभा है. खंभे में पतंग उलझी हुई है. इस पतंग को एक किरदार डंडे से निकालने की दो-तीन कोशिशें करता है, लेकिन असफल रहता है. फिर हवा चलती रहती है और, पतंग यूं ही हवा में फड़फड़ाती रहती है. ऐसा दृश्य उभरता है कि दिन ढल गया है, रात हो गई है, लेकिन खंभे में उलझी पतंग उलझी की उलझी ही रहती है. यह दृश्य नाटक 'ताजमहल का टेंडर' का सबसे अर्थपूर्ण दृश्य है, सबसे अचूक और रोचक रूपक है.
ब्यूरोक्रेसी के जाल में फंसा हिंदुस्तान
इस नाटक को बीते शुक्रवार-शनिवार और रविवार को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अभिमंच थिएटर में खेला गया, जिसके मंचन ने दर्शकों की खूब वाहवाही और तालियां बटोरीं. कई फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभा चुके अभिनेता जाकिर हुसैन नाटक के इस रूपक वाले दृश्य की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि खंभें में उलझी हुई पतंग सिर्फ पतंग नहीं है, बल्कि हम-सबका रूपक है. ये इस बात का प्रमाण है कि हम सन् 47 में आजाद तो हुए लेकिन ब्यूरोक्रेसी के जाल में फंस गए.
ऐसे फंसे कि फंसे ही रह गए. कोई हमें इसे लाल फीताशाही वाले जाल से निकाल नहीं पा रहा है, कभी-कभी कोई एक-दो कोशिशें करता है, जैसे उस आदमी ने की, जिसने डंडे से उलझी पतंग को निकालने की कोशिश की, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा. ये नाटक बताता है कि आजाद भारत में ब्यूरोक्रेसी किस तरह से नई समस्या बनकर उभरी थी और सरकारी विभाग कैसे-कैसे सरकारी योजनाओं और लोगों के हित में पलीता लगाते रहते हैं. यही बात इस नाटक को प्रासंगिक भी बनाती है, क्योंकि ब्यूरोक्रेसी का जाल आज भी जस का तस है.
व्यवस्था का पोल खोलता है नाटक ताजमहल का टेंडर
असल में 'ताजमहल का टेंडर' हर दौर का एक बेहद सफल व्यंग्य नाटक है. इसमें आधार भले ही मुगल सल्तनत के सबसे मशहूर और शक्तिमान शख्सियत का जीवन और उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि को बनाया गया है, लेकिन उसकी समस्या आज की समस्या है. कहानी कुछ ऐसी है कि बादशाह शाहजहां अपनी बेगम मुमताज के गुजर जाने के बाद उसकी याद में एक खूबसूरत इमारत बनवाना चाहते हैं.
बादशाह के इसी ख्वाब की वजह से नाटक में एंट्री होती है पीडब्ल्यूडी के चीफ़ इंजीनियर गुप्ता जी की. बादशाह उनको बुलाकर अपनी जन्नतनशीन बीवी मुमताज़ के लिए एक यादगार इमारत बनवाने के अपने ख़्वाब के बारे में बताता है. काफी सोच-विचार के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचता है कि मुमताज की याद में वह एक मकबरा बनावाएगा, और इसका नाम होगा -ताजमहल.
एक बेहद चालाक और भ्रष्ट अधिकारी, गुप्ता जी, शाहजहां को अपने जाल और लालफीताशाही की ऐसी भूल भुल्लैया में फंसाता जाता है कि इससे उपजी परस्थितियां ही हास्य का रस पैदा करती हैं और गाहे-बगाहे समाज और ऐसे भ्रष्ट सिस्टम पर ताने भी कसती है. चीफ इंजीनियर गुप्ताजी का साथ देता है उनका असिस्टेंट सुधीर. जो असल में तो कुछ नहीं करता है, लेकिन नाटक में सबकुछ वही करता है. छोटे नेताओं से सेटिंग, डीलिंग, पैसे का हिसाब-किताब और हर काम को भ्रष्ट तरीके से कैसे किया जाए, उसका पूरा जुगाड़ है सुधीर के पास.
25 साल में भी नहीं बन पाया ताजमहल
इसी के सहारे शाहजहां की ताजमहल की अर्जी के 'अनुमोदन' में ही अफसरशाही 25 साल लगा देती है, तब कहीं जाकर ताजमहल के निर्माण का टेंडर निकाला जाता है. 7 जुलाई, 1955 को आगरा में जन्मे अजय शुक्ला लखनऊ विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर हैं. 1980 में वह भारतीय रेल ट्रैफिक सेवा में चुने गए और जुलाई 2015 में ट्रैफिक रेलवे बोर्ड के सदस्य पद से रिटायर हुए. वह खुद सरकारी नौकरी में रहे और बेशक उन्होंने इस व्यवस्था की 'तिया-पांचा' को करीब से देखा-समझा होगा, लिहाजा नाटक में भ्रष्ट तंत्र का पूरा धागा खोल दिया है. 1999 में ताजमहल का टेंडर को साहित्य कला परिषद्, दिल्ली का मोहन राकेश सम्मान प्राप्त हुआ था.
नाटक के प्रसिद्ध कलाकार
'ताजमहल का टेंडर' निकलवाने में जुटे भ्रष्ट तंत्र को मंच पर बड़ी खूबसूरती से उकेर कर लाते हैं इस नाट्य के कलाकार. ग्रीष्मकालीन रंग महोत्सव के अंतर्गत हो रहे इस नाटक में मु्ख्य किरदारों के तौर पर वह पहली कास्ट नजर आई, जिसने 1998 में इस नाटक का पहली बार प्रदर्शन किया था. चित्तरंजन त्रिपाठी जो इस नाटक के निर्देशक भी हैं, वह इसमें शाहजहां के तौर पर नजर आए. श्रीवर्धन त्रिवेदी ने गुप्ता की भूमिका निभाई. सत्येंदर मलिक सुधीर के किरदार में नजर आए तो राजेश शर्मा भईया जी के किरदार में दिखे. विजिलेंस ऑफिसर थे पराग शर्मा तो वहीं कविता कुंद्रा महिला नेता की भूमिका में दिखीं.
नाटक अपने हर दृश्य और हर संवाद में दर्शकों को हंसाता है तो इसी के साथ व्यवस्था का ढोंग करने वाले सिस्टम की अव्यवस्था की परतें भी उधेड़ते चलता है. इस नाटक का विषय जितना प्रासंगिक है, प्रस्तुति उतनी ही शानदार रही. नाटक का आरंभ भरपूर ऊर्जा से होता है और कहानी की शुरुआत दर्शकों में हास्य का संचार करती हुई होती है, जो नाटक के अंत तक कम ज़्यादा बनी रहती है. नाटक में मुख्य भूमिका कर रहे किरदार और सभी अभिनेता मंच पर भरपूर उत्साह से उतरे थे.
आज भी क्यों प्रासंगिक है नाटक
1998 में बने नाटक और आज के दौर में हो रहे मंचन में कितना बदलाव आया है? इस सवाल के जवाब में नाटक के निर्देशक चित्तरंजन त्रिपाठी कहते हैं कि कथानक वही है, बदलते वक्त के अनुसार कुछ ही चीजें जोड़ी गई हैं, यह केवल समय के साथ इसे ताजा बनाए रखने के लिए और हकीकत के करीब रखने के प्रयास में किया गया है.
आगरा की पृष्ठभूमि में चल रही कहानी में बीच-बीच में एक कपल का दृश्य भी शामिल है, जो बेहद आधुनिक है और उनकी बातचीत से पता चलता है कि वह दिल्ली के हैं. उनकी बातों में आज की दिल्ली के कई मशहूर इलाकों का जिक्र शामिल है. आगरा की कहानी के बीच अचानक ही दिल्ली का आना, क्या ये दर्शकों को खटकेगा नहीं... चित्तरंजन त्रिपाठी कहते हैं कि शाहजहां हिंदोस्तान का बादशाह था.
वो आगरा में था, तो दिल्ली भी उसकी अपनी ही थी. शाही महल के दायरे से बाहर उसके राज्य में और क्या चल रहा है, ये दिखाने के लिए उस कपल के रूपक का इस्तेमाल किया है. उनका कहानी से सीधा-सीधा कोई संबंध नहीं है, लेकिन उनका संबंध आज के दौर से है. यानी कि जैसे हम तमाम मसलों-मामलों के बीच अपना-अपना जीवन भी जी रहे हैं. कहीं कोई इमारत भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई, कहीं कोई नया बना पुल टूट गया, ऐसी ही तमाम विडंबनाओं के बीच हमारी अपनी जिंदगी भी तो है ही, उससे न इनकार किया जा सकता है और न ही मुंह फेरा जा सकता है.
सिर्फ शाहजहां ही अपने मुगलिया गेटअप में नजर आता है, बाकी उसके दरबारी, अंगरक्षक, सलाहकार, खुद औरंगजेब और सारा समाज लगभग बदल चुका है. ताजमहल जो उसका सपना है वह आज की इसी व्यवस्था की भेंट ऐसा चढ़ा है कि ख्वाब मुकम्मल भी नहीं हो पाता और बादशाह उसके दीदार की आस लिए दुनिया से भी रुखसत हो जाता है. ताजमहल का टेंडर किसी तरह 25 साल बाद निकल पाता है, लेकिन तबतक गुप्ता जी, सुधीर, कॉट्रैक्टर सबकी बड़ी-बड़ी कोठियां बन जाती हैं. उसके नाम पर हर छुटभैया नेता भी माल काटता है, लेकिन ताजमहल सिर्फ कागजों में जिंदा रहता है.
आदमी पतंग बना 'बिजली के खंभे में अटका' रहता है, पर्दा गिरता है...
विकास पोरवाल