वो अप्रैल का महीना था, जब धूप में गर्मी से ज्यादा तपिश होती है. बहन को पता चला कि भाई आ रहे हैं. दरवाजे पर दस्तक हुई. बहन ने दरवाजा खोला तो देखा कि चेहरे पर मुस्कान लिए भाई दरवाजे पर खड़े हैं. पसीने से तर-बतर. इलाहाबाद की तंग गलियों में एक तांगा तो खड़ा था लेकिन भाई स्टेशन से पैदल चलकर आए थे. दरअसल ये वो वक्त था जब हाथ से खींचने वाले रिक्शे चलते थे. स्टेशन पर उतरे भाई ने कहा कि 'इंसान, इंसान को ढोये... ये जायज़ बात नहीं है'.
लिहाज़ा उन्होंने सिर्फ सामान रिक्शे पर रखा और खुद परिवार के साथ पैदल स्टेशन से चलकर बहन के घर पहुंचे. उन्होंने रिक्शेवाले को 2 रुपये भाड़े के बदले 10 रुपये दिए और काफी देर तक उसकी पीठ पर अपना हाथ सहलाते रहे. हमारे और बीते दौर के सबसे बड़े नगमा निगारों में शुमार साहिर लुधियानवी पर बात करने के लिए, उनकी शख़्सियत को समझने के लिए इससे मुफ़ीद किस्सा कोई और नहीं हो सकता.
अल्लामा इक़बाल को क्या पता था कि उनके एक शेर में से अब्दुल हई अपने लिए एक नाम चुन लेगा,
इस चमन में होंगे पैदा बुलबुले शिराज़ भी
सैंकड़ों साहिर भी होंगे, साहिब-ए-इजाज़ भी
साहिर यानी जादूगर. लेकिन साहिर का जादू शायरी या नगमा निगारी नहीं थी. इतनी दुश्वारियों, इतने दुख और ऐसी मनोदशा के साथ लिखना असल जादू था. पिता की नफ़रत और मां-बाप के रिश्तों की कड़वाहट के बीच बीता बचपन, अधूरे इश्क और मुक्कमल दोस्ती के साथ बीती जवानी और मां के जाने के बाद... क्या बचा? मां के जाने के बाद कुछ नहीं बचता. बचता है सिर्फ मौत का इंतजार. साहिर के अंतिम दिन भी अकेलेपन, असुरक्षा और मौत के इंतजार में कटे.
हम ग़मज़दा हैं लाएं कहां से ख़ुशी के गीत,
देंगे वही जो पाएंगे इस ज़िंदगी से हम
उफ़्फ़... ऐसे बेचारगी भरे हालात और ऐसे तल्ख़ तेवर. घर छूट गया, मां के साथ रहने के लिए बचपन में ही अदालत की चौखट तक देख ली, तक़सीम के बाद पाकिस्तान गए तो पीछे सीआईडी लग गई और लौटे तो बंबई की दुश्वारियां लेकिन आखिर किसी को कॉलेजों से निकाले जाने का ग़ुमान कैसे हो सकता है. मजाज़ का शेर याद करिए है,
मेरी बर्बादियों का हम-नशीनो
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है
जब 'तल्ख़ियां' छपी तो लोगों को पता चला कि शायर साहिर लुधियानवी किस बला का नाम है. बड़े-बड़े मुशायरों में जहां न सिर्फ दिग्गज शायर पहुंचते बल्कि एक से एक खतरनाक सामईन आते, जिनकी हूटिंग से उस्ताद शायरों के चराग़ भी टिम-टिमाने लगते. उन मुशायरों में भी साहिर की एक नज़्म सुई पटक सन्नाटा पैदा कर देती. नज़्म का नाम था- ताजमहल.
ये चमन-ज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श दर ओ दीवार ये मेहराब ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से...
जावेद अख़्तर बताते हैं कि इस नज़्म को लिखने तक साहिर ने ताजमहल को देखा तक नहीं था. कभी मुशायरों में मंच पर जिसके मिसरे लोग तक़रीरों की तरह खामोश सुनते थे, बंबई उस साहिर को सुनने को तैयार नहीं थी. हर बार उनकी दलीलों पर उनकी खाली जेब भारी पड़ जाती. लेकिन हवाएं कब तक एक ही दिशा में बहती हैं. वक्त बदला. 1957 में फिल्म आई 'प्यासा' और सामईन बनी बंबई ने खड़े होकर साहिर के लिए बाहें खोल दीं.
ये महलों ये तख़्तों ये ताजों की दुनिया
ये इंसां के दुश्मन समाजों की दुनिया
ये दौलत के भूके रिवाजों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
फिर तो सिलसिला चल पड़ा... सिलसिला से याद आया, कमर्शियल सिनेमा में भी साहिर ने गीत लिखते वक्त शायरी से समझौता नहीं किया. उन्हीं की वजह से फिल्मी नगमों को आर्ट का दर्जा हासिल हुआ. 1981 में फिल्म आई 'सिलसिला'. साहिर ने नज़्म लिखी,
न कोई जादा-ए-मंज़िल न रौशनी का सुराग़
भटक रही है ख़लाओं में ज़िंदगी मेरी
इन्ही ख़लाओं में रह जाऊंगा कभी खो कर
मैं जानता हूं मिरी हम-नफ़स मगर यूंही
कभी कभी मिरे दिल में ख़याल आता है...
लेकिन शौहरत की रौशनी भी साहिर के भीतर के अंधेरे को मिटा नहीं पाई. यूं तो साहिर वैसे ही अकेले थे लेकिन मां के निधन ने उन्हें बेसहारा कर दिया और दिल के दौरे ने उनके भीतर मौत का डर पैदा कर दिया. लेकिन साहिर तो फिर साहिर थे. दिल का दौरा आया तो बोले,
'मुझे दिल का दौरा नहीं आएगा तो किसे आएगा, साली ज़िंदगी ही ऐसी जी है...'
साहिर से मोहब्बत और नफ़रत करने वाले तो कई थे लेकिन उनसे हमदर्दी रखने वाला अब कोई नहीं था. उन्हें हमदर्द चाहिए था. साहिर टूट चुके थे. कहीं आते-जाते नहीं थे. सेहत पहले ही बग़ावत कर चुकी थी. अब मानसिक हालात भी साथ नहीं दे रहे थे. एक रोज़ अपने डॉक्टर दोस्त से मिलने पहुंचे साहिर बात करते-करते गिर गए और दुनिया को तरानाबख़्श करके खुद ख़ामोश चले गए. जाते-जाते उनके आखिरी अल्फ़ाज़ थे,
'चेहरे पर चेचक के हज़ार दाग़ सही डॉ कपूर, ज़िंदगी ख़ूबसूरत है... मैं मरना नहीं चाहता'... साहिर मर चुके थे.
सागर से उभरी लहर हूं मैं
सागर में फिर खो जाऊंगा
मिट्टी की रूह का सपना हूं
मिट्टी में फिर सो जाऊंगा
कल कोई मुझ को याद करे
क्यूं कोई मुझ को याद करे
मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए
क्यूं वक़्त अपना बरबाद करे
मैं पल दो पल का शायर हूं, पल दो पल मेरी कहानी है...
ताजमहल नज़्म का जादू क्या था, क्या था जो साहिर को साहिर बनाता था, वो किरदार जिन्होंने साहिर के आगे मुश्किलें पैदा कीं और वो लोग जिन्होंने साहिर को संभाला. उन्हें बर्दाश्त किया. उन्हें माफ़ किया. हर बार. बार-बार. इंसान को इंसान होने के लिए माफ़ कर देना चाहिए. बीती शाम साहिर दिल्ली में थे. मैक्स मूलर भवन में उनकी दास्तान सुनाई लखनऊ के रहने वाले दास्तानगो डॉ. हिमांशू बाजपेई और डॉ. प्रज्ञा शर्मा ने.
दौरान-ए-दास्तान साहिर कई बार हंसे, कई बार नाराज हुए, तंज भी कसे, हमेशा की तरह शराब पी, गालियां दीं और फिर रो दिए. लोगों ने हिमांशू और प्रज्ञा के मार्फ़त साहिर का साहिर देखा. साहिर पर इससे ज्यादा कुछ कहना या लिखना दास्तान का स्पॉइलर देना हो जाएगा लेकिन अगर आपको जानना है कि आखिर क्यों साहिर ने लता मंगेश्कर के साथ कभी काम न करने की कसम खाई थी, वो कौन था जिसने मुश्किल वक्त में साहिर से पूछा कि 'तुम्हारी पासबुक का वजन कितना है बरख़ुरदार?', अपने दौर के सबसे लोकप्रिय और व्यस्त गीतकार साहिर की फीस कितनी थी, अमृता प्रीतम के साथ उनका रिश्ता क्यों नहीं चल पाया, आखिर क्यों मंच पर फिल्मफेयर लेने पहुंचे साहिर ने अवॉर्ड स्वीकार करने से इनकार कर दिया था और वो मशहूर गाना कौन सा था जिसके लिए उन्हें अवॉर्ड दिया जा रहा था, साहिर का सबसे नापसंद शायर कौन सा था, जावेद अख़्तर के साथ उनके रिश्ते कैसे थे, वो किससे करते थे बेपनाह प्यार और किस चीज़ से लगता था उनको सबसे ज्यादा डर, साहिर से जुड़े ऐसे तमाम किस्से हिमांशु और प्रज्ञा ने संजोए हैं दास्तान-ए-साहिर में, जिसे हर उस शख्स को ज़रूर सुनना चाहिए जिसने जीवन में साहिर का एक भी गीत सुना है.
लब पे पाबंदी तो है एहसास पर पहरा तो है
फिर भी अहल-ए-दिल को अहवाल-ए-बशर कहना तो है
झूठ क्यों बोलीं फ़रोग़-ए-मस्लहत के नाम पर
ज़िंदगी प्यारी सही लेकिन हमें मरना तो है
(साहिर लुधियानवी)
योगेश मिश्रा