नृत्य से निर्वाण तक... कथक की लय में मीरा का पुनर्जन्म, 'मिहिरा' में दिखी भक्ति, विद्रोह और समर्पण की गाथा

तबले की थाप और घुंघरुओं की झंकार जब एक ही लय में एकाकार हो जाती है, तो नृत्य केवल दृश्य नहीं रह जाता वह स्मृति बन जाता है. स्मृति उस समय की, उस स्त्री की और उस भक्ति की, जिसने प्रेम को विद्रोह और समर्पण को साधना बना दिया. कथक की परंपरा में सजी एक ऐसी ही संध्या में मीरा की गाथा ने मंच पर आकार लिया.

Advertisement
इंडिया हैबिटेट सेंटर में मीरा की गाथा 'मिहिरा' को कथक के जरिए प्रस्तुत किया गया इंडिया हैबिटेट सेंटर में मीरा की गाथा 'मिहिरा' को कथक के जरिए प्रस्तुत किया गया

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 31 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 2:36 PM IST

तबले पर लगातार जितनी गति और लय के साथ उंगलियां गिर रही थीं पांव में बंधें घुंघरू ठीक उसी गति के साथ रुनझुन झनक पैदा कर रहे थे. तीनताल के पलटों और कायदों में बंधी लय, पैरों की थाप, उंगलियों की मुद्राएं और नयनों के उनसे मेलजोल में इतनी समानता-इतनी परस्परता थी कि ऐसा लगे कि जैसे एक न हो तो दूसरा भी बंद हो जाए. भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में दर्ज है

Advertisement

'यतो हस्तः ततो दृष्टिः, यतो दृष्टिः ततो मनः' यानी जहां हाथ (मुद्रा) हो वहां नजर होनी चाहिए और जहां नजर पहुंचे मन को भी वहीं होना चाहिए.

...लेकिन मन कहां था? मन तो न जाने कब आज से 500 साल पीछे वहां जा चुका था, जहां मेड़ता के एक गांव में सात वर्ष की एक बालिका खेल-खेल में श्रीकृष्ण को अपना पति मान लेती है और फिर तो उस सांवरे के रंग में ऐसा रंगी कि उसकी रंगत आज भी भक्ति परंपरा के सुनहरे इतिहास में ऐसी सजी-संवरी मिलती है कि भुलाई नहीं भूलती. इतिहास के पन्ने जब भी पलटे जाते हैं तो कभी उनसे आवाज आती है, 'मेरे ते गिरधर गोपाल', तो कहीं सुनाई दे जाती है 'स्याम का चाकर बनने की प्रसन्नता की धुन' तो कहीं हृदय की अंतस गहराइयों में घर बना लेती है एक पुकार, जो कहती है 'बसौं मेरे नैनन में नंदलाल'....

Advertisement

मंच पर उतरी भक्त मीरा की महागाथा 
साल 2025 के आखिरी सर्द भरे दिन, और इसी की एक शाम में इंडिया हैबिटेट सेंटर के मंच पर मीरा की गाथा जीवंत हो उठी. कथक की नृत्य परंपरा में सजी, तीनताल में बंधी हुई और राग यमन, पीलू समेत कुछ अन्य भाव पूर्ण शास्त्रीय रागों की मिश्रित राग परंपरा में सजी पदावलियां जैसे-जैसे नृत्य का विषय बनतीं वह अपना अर्थ पा जाती थीं.

अंजना वेलफेयर सोसाइटी के बैनर तले कथक नृत्यांगना माया कुलश्रेष्ठ ने हिंदी साहित्य की भक्ति परंपरा की सिरमौर और संत कवियत्री मीरा की गाथा को नृत्य का विषय बनाया और उसे अपनी साथी कलाकारों के साथ प्रस्तुत किया. मीरा का केंद्रीय किरदार भी माया ने ही निभाया. उन्होंने पवित्रता, भक्ति, समर्पण, त्याग, सिद्धि और निर्वाण इन सभी भावों को विभिन्न नृत्य मुद्राओं के जरिए मंच पर उकेरा.

सूर्यदेव से प्रेरित था मीरा का नाम
इस नृत्य प्रस्तुति का नाम उन्होंने 'मिहिरा' रखा, लेकिन क्यों? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए माया बताती हैं कि आज हम जिन्हें मीरा नाम से जानते हैं, वह असल में 'मिहिरा' ही थीं. मिहिरा नाम सूर्यदेव के एक वैदिक नाम मिहिर से निकला है. जब मीरा का जन्म हुआ तो उनके दादाजी ने उनका नाम मिहिरा रखा था. जिस दौर में कन्या का जन्म उदासी का भाव ले आता था, उस दौर में एक पुत्री को स्वीकारना और उसे सूर्य की शक्ति के पर्याय का नाम देना, अपने आप में एक बड़ा कदम रहा होगा. मीरा के भीतर जो भक्ति आधारित, प्रेम से भरा और समर्पण के रूप में विद्रोही भाव जन्मा उसकी शुरुआत शायद यहीं से होती है.

Advertisement

मेवाड़ और चित्तौड़ के दर्ज इतिहास में जहां मीरबाई का जीवन परिचय लिखा गया है, कई लेखकों ने उन्हें उनके जीवन के शुरुआती नाम 'मिहिरा' से ही पुकारा है. यही मिहिरा आगे चलकर लोकभाषा और बोली में मीरा बन जाता है.

मानवीय आकांक्षा से दिव्य मिलन तक
इस मौलिक प्रस्तुति में माया कुलश्रेष्ठ मीरा की यात्रा को शास्त्रीय और समकालीन नृत्य शैलियों के समृद्ध ताने-बाने में पिरोती हैं. उनकी कोरियोग्राफी मीरा के रूपांतरण को सामने रखती है. जहां वह पहले एक राजकुमारी, फिर एक राजा की पत्नी बनती हैं. वह सांसारिक खेल से गृहस्थ की ओर बढ़ती हैं, लेकिन इसके साथ ही बढ़ती जाती है उनकी भक्ति और श्रीकृष्ण के प्रति उनका समर्पण. फिर वह राजमहल की सीमाओं से निकलकर भक्ति के असीम पथ तक, अपनी सरल प्रार्थनाओं से उन्मुक्त कीर्तन तक, मानवीय आकांक्षा से दिव्य मिलन तक की यात्रा तय करती हैं.

नृत्य में उनकी इस यात्रा को शब्द देते हैं मीरा के ही कई पद, जिन्हें कुछ बदलावों के साथ और भावपूर्ण बना दिया गया.

जाऊं मैं गिरधर के घर जाऊं,
लोक-लाज सब तोड़ निभाऊं,

संसार कहे जो, कहने दूं,
मैं तो श्याम नाम रस पाऊं.

सशक्त अभिनय, प्रभावशाली ध्वनि और काव्यात्मक मंच-सज्जा के साथ 'मिहिरा' सत्य की खोज में जुटी एक वैरागी का जीवन बन जाती है. मंच पर उकेरा गया हर एक दृश्य मीरा के पदों से प्रेरित है, जो उनके साहस, समर्पण और उस उज्ज्वल प्रेम को सामने रखता है जिसने अपने समय की रूढ़ियों को चुनौती दी. 'मिहिरा' केवल एक प्रस्तुति नहीं, बल्कि एक अनुभूति है. नारी शक्ति, आध्यात्मिक जागरण और उस कला का उत्सव है जो मानव हृदय की गहराइयों को आज भी प्रकाशित करती है.

Advertisement

---- समाप्त ----

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement