उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मंगलवार को मेरठ के दौरे पर थे. इस दौरान वो कैंट इलाके में बने औघड़नाथ मंदिर गए और वहां पर पूजा अर्चना की. मंदिर में बने एक कुंए के पास जाकर उन्होंने शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की.
मेरठ में भगवान शिव के इस मंदिर को ज्यादातर लोग काली पलटन मंदिर के नाम से जानते हैं. और जिस कुएं के पास जाकर योगी ने शहीदों को पुष्पांजलि अर्पित की उसका भी बहुत महत्वपूर्ण इतिहास है. 1857 के क्रांति की शुरुआत दरअसल इसी कुंए से ही हुई थी.
मेरठ की ऐतिहासिक छावनी
बात डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा पुरानी है. तब भारत में ब्रिटिश राज था और मेरठ का यह इलाका छावनी इलाका था जहां सैनिकों के बैरक बने हुए थे. छावनी में अंग्रेज और भारतीय दोनों सेनाओं के लोग अलग-अलग जगहों पर रहते थे. अंग्रेज भारतीय सैनिकों के प्लाटून को काली पलटन कहते थे. काली पलटन बैरक के पास ही एक छोटा सा शिव मंदिर था जहां पर भारतीय सैनिक पूजा पाठ करने जाते थे. इसी मंदिर से लगा हुआ एक कुआं भी था जहां पर प्याउ बना हुआ था. मंदिर के पीछे ही वह जगह थी जहां पर चांदमारी यानी निशानेबाजी होती थी और सैनिक गोली चलाने का अभ्यास करते थे. यहीं पर भारतीय सैनिकों के लिए बना हुआ बाजार भी था जिसे लाल कुर्ती बाजार कहा जाता था. लाल कुर्ती बाजार नाम इसलिए पड़ा था क्योंकि अंग्रेजों के समय भारतीय सैनिक लाल रंग की छोटी कुर्ती जैसी शर्ट पहनते थे. लाल कुर्ती का इलाका मेरठ में अभी भी वैसे ही बना हुआ है.
सैनिक विद्रोह की शुरुआत
बात 10 मई 1857 की है. मंदिर के प्याऊ पर कुछ सैनिक पानी पीने के लिए गए. प्याउ पर उस समय मंदिर के पुजारी बैठे हुए थे. सैनिकों ने हमेशा की तरह पुजारी से पानी पिलाने को कहा. लेकिन पुजारी ने सैनिकों को अपने हाथ से पानी पिलाने से इंकार कर दिया. वजह पूछे जाने पर पुजारी जी ने कहा जो सैनिक गाय और सूअर की चर्बी से बने हुए कारतूस को अपने मुंह से खोलते हैं उन्हें वह अपने हाथों से पानी नहीं पिला सकते क्योंकि वह पूजा पाठ करने वाले धार्मिक व्यक्ति हैं. भारतीय सैनिकों को यह बात बेहद चुभ गई. उन्होंने फैसला कर लिया या अब चाहे जो कुछ हो जाए वह कारतूस को मुंह नहीं लगाएंगे. दरअसल उस समय सैनिकों को अपनी बंदूक में इस्तेमाल करने के लिए जो कारतूस दिए जाते थे उसे पहले दांतों से काटकर तब बंदूक में लगाना पड़ता था. कहा जाता था कि इन कारतूसों को बनाने में गाय और सूअर की चर्बी का इस्तेमाल होता था. इसी कारतूस को लेकर महीने भर पहले बंगाल के बैरकपुर में मंगल पांडे विद्रोह कर चुके थे और यह बात चारों तरफ फैल चुकी थी.
आजादी की पहली लड़ाई
10 मई 1857 रविवार का दिन था. उस दिन बहुत से अंग्रेज ऑफिसर छुट्टी पर थे और पास के ही चर्च में गए हुए थे. उस दिन निशानेबाजी के समय जब कारतूस को खोलने की बारी आई तो भारतीय सैनिकों ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया. इसी बात पर अंग्रेजो से उनका झगड़ा हो गया. भारतीय सैनिकों ने वहीं पर तीन अंग्रेज अफसरों को मार डाला. उसके बाद यह बात आज की तरफ फैल गई और बाकी भारतीय सैनिक भी अपने-अपने बैरकों से बाहर निकल आए और अंग्रेजों पर हमला बोल दिया. इन लोगों ने मिलकर चर्च पर धावा बोल दिया और बहुत सारे अंग्रेजों को वहीं पर मार डाला. बाद में इन भारतीय सैनिकों के साथ आम लोग भी शामिल हो गए और मेरठ पर भारतीय सैनिकों का कब्जा हो गया. जल्दी ही यह विद्रोह की चिंगारी आसपास के इलाकों में फैल गई और 1857 के गदर की शुरुआत हो चुकी थी जिसे भारतीय आजादी की पहली लड़ाई कहा जाता है. 1857 की क्रांति से भारत को आजादी तो नहीं मिली लेकिन आज़ादी की लड़ाई के लिए बेहद मजबूत नींव जरूर पड़ गई.
काली पलटन के छोटे से मंदिर की जगह भव्य मंदिर बन गया है और इस कुएं को भी ढककर अब शहीद स्मारक के रूप में बदल दिया गया है जहां पर आकर लोग शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. कई बार 10 मई को अंग्रेजों के परिवार के लोग भी यहां पर आते हैं जिनके पूर्वजों की मौत 1857 के गदर में हुई थी.
1857 से लेकर अब तक मेरठ शहर का बहुत विस्तार हो चुका है लेकिन अभी भी यह इलाका मेरठ कैंट ही कहलाता है और इस इलाके में भारतीय सेना की काफी बड़ी छावनी है.
बालकृष्ण