अरहर, थोड़ा चना, उससे थोड़ी ज्यादा मटर और सरसों की वासंती चूनर ओढ़े दूर तक फैले गेहूं के खेत ही खेत. हरे-भरे विस्तार में रह-रहकर नजर आने वाली छोटी-छोटी पहाडिय़ां. सड़क किनारे फूलने की प्रतीक्षा में मुस्तैदी से खड़े पलाश के पेड़. शहर-कस्बों के नाम वाली तख्तियों से झांकता हजार साल का इतिहासः झांसी में 1857 के गदर की नायिका रानी लक्ष्मीबाई, महोबा में बनाफर वीर आल्हा-ऊदल, कालिंजर में शेरशाह सूरी की मौत और महमूद गजनवी से राजा विद्याधर की कामयाब कूटनीति. स्मृतियों पर सवार बुंदेली बसंत अपनी पूरी भव्यता से ऐसे नाजिल होता है कि एक बारगी भूल जाते हैं कि बुंदेलखंड को कई साल से सूखे, पलायन और किसान आत्महत्याओं के लिए याद किया जा रहा है.
लेकिन ये बसंत चुनावी है, इसलिए खेत में व्यस्त किसान को अपने पाले में लाने के लिए नेतागण व्यस्त हैं. यह इलाका पिछले विधानसभा चुनाव तक बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) का गढ़ बना रहा. 2007 के विधानसभा चुनाव में यहां 21 विधानसभा सीटें थीं और बीएसपी ने इनमें से 14 जीती थीं. समाजवादी पार्टी (सपा) और कांग्रेस को क्रमशः चार और तीन सीटें मिली थीं, जबकि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का खाता भी नहीं खुला था. परिसीमन के बाद 2012 विधानसभा चुनाव में यहां 19 सीटें बचीं. इस चुनाव में बीएसपी के गढ़ पर जोरदार चोट हुई, लेकिन मरा हाथी भी सवा लाख का रहा. बीएसपी को सबसे अधिक 7, सपा को 5, कांग्रेस को 4 और बीजेपी को 3 सीटें मिलीं. बाद में हुए दो उपचुनाव में सपा ने बीजेपी की सीटें जीतकर अपनी सीटों की संख्या बीएसपी के बराबर कर ली और अब बीजेपी के पास सिर्फ एक सीट ही बची है.
इसी बढ़त को और पक्का करने में जुटे हैं दो बार से झांसी की गरौठा विधानसभा सीट से सपा के विधायक दीप नारायण सिंह उर्फ दीपक यादव. बुंदेलखंड में सपा का चेहरा माने जाने वाले यादव के लिए गठबंधन के बाद चुनाव बहुत आसान होना चाहिए था, क्योंकि इस सीट से सात बार कांग्रेस के विधायक रहे रणजीति सिंह जूदेव (राजा समथर) उनके साथ हैं. दोनों को पिछले चुनाव में मिले वोट जोड़ लें तो बाकी प्रत्याशियों की जमानत जब्त दिखती है. इसके अलावा इस बार कांग्रेस के टिकट से चुनाव लडऩे की तैयारी कर चुके किसान नेता शिव नारायण परिहार भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे हैं. लेकिन, बीजेपी ने यहां से लोधी जाति के किसान नेता जवाहर राजपूत को मैदान में उतारा है. पूरे प्रदेश की तरह यहां भी बीजेपी की कोशिश है कि कुशवाहा, पाल, कुर्मी और लोधी जैसी गैर यादव पिछड़ी जातियां उसके पीछे लामबंद हो जाएं. बीजेपी की इस खुली रणनीति की काट में अपने चुनाव कार्यालय में बुलाई कुशवाहा समाज की बैठक में यादव ने कहा, ''मैं गाय-भैंस पालने वाली जाति से हूं, पटेल लोग किसान हैं, पाल समाज भेड़ चराता था और कुशवाहा समाज सब्जी उगाता था. इसका क्या मतलब है? मतलब यह है कि कई पीढिय़ों पहले हम सबके बाप-दादा एक थे. परिवार में किसी को एक काम मिल गया, तो किसी को दूसरा. बीजेपी हमारे इस परिवार को तोडऩे की कोशिश कर रही है, जबकि समाजवादियों ने हमेशा जोडऩे की बात की है." इस सामाजिक तानेबाने के इतर यादव ने इंडिया टुडे से कहा, ''हम अखिलेश जी के विकास कार्यों के बल पर चुनाव जीतेंगे." दरअसल अखिलेश यादव ने बुंदेलखंड में बड़े पैमाने पर काम कराए हैं. ज्यादातर प्रमुख सड़कें बनकर तैयार हो चुकी हैं. इलाके के बड़े तालाबों के काम को मुख्यमंत्री ने खुद मॉनिटर किया. एरच और पहाड़ी बांध के नव निर्माण के अलावा, नए पावर प्लांट और सोलर प्लांट इस कार्यकाल में लगाए गए. बिजली की सप्लाई भी पहले से कहीं बेहतर है. पूर्व केंद्रीय मंत्री और इलाके में कांग्रेस का चेहरा प्रदीप जैन ''आदित्य" कहते हैं, ''राहुल गांधी और अखिलेश यादव की छवि साफ सुथरी है. यूपीए सरकार में बुंदेलखंड को विशेष मदद दी गई, लेकिन मोदी सरकार आते ही सब बंद हो गया. लोगों को भरोसा है कि कांग्रेस और सपा का गठबंधन इलाके की सूरत बदल देगा."
बीजेपी की जातिगत रणनीति को भोथरा करने के लिए सपा विकास कार्यों के साथ ही सामाजिक समीकरण दुरुस्त कर रही है. सपा और बसपा, दोनों ने ही कुर्मी, लोधी, कुशवाहा और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को उचित अनुपात में टिकट बांटे हैं, ताकि ये जातियां एक साथ किसी तरफ न जा सकें. टिकट के इस गणित को बांदा के अतर्रा कस्बे के बस स्टैंड पर किसान ब्रह्मदत्त पांडे ने कुछ इस अंदाज में समझाया, ''यह चुनाव जनाधार वाली पार्टियों और जातिवादी पार्टियों के बीच है." जब उनसे पूछा कि इसका मतलब क्या हुआ तो प्याली में चाय फूंकते हुए उन्होंने कहा, ''सपा और बसपा के पास जनाधार है. भाजपा ने अपने प्रत्याशी जाति के समीकरण के आधार पर उतारे हैं. लेकिन बिना जनाधार के समीकरण चलेगा कैसे?" हालांकि झांसी से बीजेपी प्रत्याशी और इलाके में बीजेपी के इकलौते विधायक रवि कुमार शर्मा का कहना है, ''बुंदेलखंड की जनता गुंडाराज और भ्रष्टाचार के खिलाफ वोट करने जा रही है. बीजेपी जातिवाद नहीं जानती, हम सिर्फ राष्ट्रवाद और विकास जानते हैं." शर्मा को इस बार कांग्रेस के युवा नेता राहुल राय और बसपा के सीताराम कुशवाहा से कड़ी टक्कर मिल रही है.
लेकिन बसपा नारों के बजाए चुपचाप जमीनी काम करने में जुटी है. अगर झांसी में पार्टी प्रत्याशी कुशवाहा के होर्डिंग छोड़ दिए जाएं तो इलाके में बसपा के होर्डिंग-बैनर कहीं नजर नहीं आ रहे. लेकिन नीला झंडा लगी गाडिय़ा खूब घूम रही हैं. उरई में पार्टी प्रत्याशी विजय चौधरी के चुनाव दफ्तर में दाखिल होंगे तो सबसे पहले इत्र लगाकर आपका स्वागत किया जाएगा. चौधरी शहर के नगर पालिका चेयरमैन रहे हैं और इस समय उनकी मां गिरिजा देवी शहर की चेयरमैन हैं. पुराने बसपाई चौधरी पिछला लोकसभा चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़े थे, लेकिन इस बार उनकी घर वापसी हो गई है. उनके समर्थकों को उम्मीद है कि पार्टी के पारंपरिक दलित वोट के साथ ही उन्हें शहरी मतदाता का वोट भी मिलेगा. यह नगर पालिका में कराए उनके कामों का असर होगा. इसके साथ ही पार्टी कम से कम 50 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं को अपनी तरफ झुकाने का लक्ष्य लेकर चल रही है. फिलहाल यह सीट समाजवादी पार्टी के पास है. बुंदेलखंड की बाकी सीटों पर भी बीएसपी इसी मजबूती और खामोशी से चुनाव लड़ रही है. विधानसभा और विधान परिषद, दोनों में विपक्ष के नेता गयाचरण दिनकर और नसीमुद्दीन सिद्दीकी बुंदेलखंड क्षेत्र से ही आते हैं. इस दलित बहुल हलाके में बीएसपी के पास ठोस जमीनी समीकरण हैं और अगर ऐसे में बीजेपी ने सपा-कांग्रेस के वोटों में जरा भी सेंधमारी की तो बीएसपी को सीधा फायदा मिलेगा.
लेकिन इन सियासी समीकरणों ने जमीनी मुद्दों को हाशिये पर डाल दिया है. चित्रकूट जिले के मानिकपुर का पाठा यानी पठार का इलाका पूरे देश में जल संकट का प्रतीक माना जाता है. यहां की ऊंचाडीह पंचायत के गांव टेढ़वा में गिरीश कुमार द्विवेदी की तेल पिराने की चक्की पर कोल आदिवासी समुदाय के छेदीलाल दो पसेरी सरसों लेकर पहुंचे. उनका काला पैंट पीछे से फटा हुआ था और उस पर दो तरह के पैबंद लगे थे. उनके स्पोर्ट शू कितनी जगह से और कितने रंग के धागों से सिले गए थे, इसे दावे से कहना मुश्किल है. इस गरीबी के बावजूद वे पाठा के बाहर मजदूरी के लिए कभी नहीं गए. जब उनसे पूछा कि वे किस पार्टी को वोट देंगे तो उनका दार्शनिक जवाब था, ''अगर कोई वोट मांगने आएगा तो हम मान लेंगे कि चलो इतनी दूर जंगल में आने का कष्ट उठाया. इतनी मेहनत की तो वोट भी ले लो, लेकिन ये तो बता दो कि हमारे लिए करोगे क्या? " ये सवाल इसलिए वाजिब है क्योंकि 1973 में शुरू की गई पाठा पेयजल परियोजना से लेकर आज तक कितनी ही योजनाएं आईं, फिर भी टिकरा मार जैसे गांवों में मीलों चलकर पीने का पानी लाना पड़ता है.
पिछले डेढ़ दशक में बुंदेलखंड पलायन करने वाले मजदूरों का गढ़ बन गया है. यूपीए सरकार ने 2010 में इलाके के लिए 7,200 करोड़ रु. का सूखा राहत पैकेज दिया था, लेकिन इससे पलायन रुका नहीं. पूरे बुंदेलखंड में पैकेज से बनाई गई कृषि मंडियां नजर आती हैं, लेकिन इनमें से ज्यादातर में कोई काम अब तक शुरू नहीं हुआ. इलाके में प्रधानमंत्री सांसद आदर्श ग्राम तक की हालत खस्ता है. हमीरपुर के बीजेपी सांसद पुष्पेंद्र चंदेल के आदर्श गांव पिपरा माफ का हाल यह है कि यहां आदर्श ग्राम का बोर्ड तक नहीं लगा है. गांव के हर्षवर्धन रिछारिया कहते हैं, ''जब गांव में कोई काम हुआ ही नहीं, तो हम दिखाएं क्या? सांसद मोदीजी का नाम खराब करा रहे हैं." बांदा के सांसद भैरव प्रसाद मिश्र के आदर्श गांव कटरा कालिंजर के बारे में कालिंजर शोध संस्थान के निदेशक अरविंद छिरौलया कहते हैं, ''सब आदर्श ही आदर्श है, जो न कहें सो कम है."
दल बदल बना मुद्दों से भागने का रास्ता
लेकिन नेताओं को भी अब मुद्दों की ज्यादा फिक्र नहीं रह गई है. अपनी माली हालत और जातिगत समीकरण के बल पर वे इस नहीं तो उस दल से टिकट पा लेते हैं. जैसे मानिकपुर से बीजेपी के प्रत्याशी आर.के. पटेल इससे पहले सपा और बीएसपी से सांसद रह चुके हैं. इसी सीट पर बीएसपी सरकार में मंत्री रहे दद्दू प्रसाद निर्दलीय तो बीएसपी के पूर्व विधायक और बांदा से बीजेपी सांसद मिश्र के भाई विनोद मिश्र राष्ट्रीय लोक दल के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं. बीएसपी से लोकसभा और राज्यसभा सांसद रह चुके ब्रजलाल खाबरी ललितपुर जिले की महरौनी सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार हैं. झांसी की मऊरानीपुर सीट पर बीजेपी ने कांग्रेस से दो बार विधायक रहे बिहारीलाल आर्य और बीएसपी ने बीजेपी के टिकट से दो बार विधायक रहे प्रागीलाल अहिरवार को टिकट दिया है. महोबा सीट पर सपा से सिद्धगोपाल साहू, बीजेपी से राकेश गोस्वामी और बीएसपी से अरिमर्दन सिंह चुनाव लड़ रहे हैं. साहू और अरिमर्दन सिंह पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी थे, वहीं गोस्वामी ने पिछला लोकसभा चुनाव बीएसपी के टिकट पर लड़ा था. नरैनी से भरतलाल अहिरवार को पहले सपा से टिकट मिला था, लेकिन सीट कांग्रेस के हिस्से में जाने के बाद वे कांग्रेस के टिकट पर यहीं से चुनाव लड़ रहे हैं. बांदा के सामाजिक कार्यकर्ता आशीष सागर कहते हैं, ''हर सीट पर चार-पांच राजनैतिक माफिया पैदा हो गए हैं. यही लोग पार्टियां बदल-बदल कर स्थानीय राजनीति पर कब्जा किए रहते हैं." तो बहुत संभव है कि 11 मार्च को चुनाव परिणाम की वेला में जब बुंदेलखंड सुर्ख पलाशों पर इतरा रहा होगा, तब यही नेता नए चोले में सत्ता की होली खेलने को तैयार हों.
—साथ में संतोष पाठक
पीयूष बबेले