कायापलट करने वाला करिश्माई नेता नरेंद्र मोदी

नरेंद्र मोदी आए और राष्ट्रीय फलक पर छा गए. उनकी चुनावी कामयाबियों के इतर उन्हें नेता ही नहीं, जनता के बीच बेहद लोकप्रिय रॉक स्टार जैसी छवि के लिए भी जाना जाता है.

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नरेंद्र मोदी नरेंद्र मोदी

मंजीत ठाकुर

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  • 25 जनवरी 2019,
  • अपडेटेड 4:01 PM IST

आधुनिक भारत के निर्माता/ गणतंत्र दिवस विशेष

हरेक चुनावी फतह के साथ यह जाहिर होता जाता है कि भाजपा-आरएसएस ने एक ऐसी चुनावी मशीन तैयार कर ली है जो भयभीत करने वाली है. कांग्रेस अब आधा दर्जन से भी कम राज्यों में सत्ता में रह गई है. इससे पता चलता है कि 'कांग्रेस मुक्त भारत' का मोदी-शाह का सपना दूर की कौड़ी नहीं. उनका काम करने का तरीका ऐसा है कि वे किसी भी दूसरी चीज का क्चयाल किए बगैर एक धुन से अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ते हैं. इसे देखते हुए 2019 में और भी बड़ी कामयाबी की उनकी भूख अब खाम क्चयाली नहीं रह गई है.

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चुनावी अपराजेयता में अडिग भरोसे ने उनमें और ज्यादा जोखिम लेने का माद्दा पैदा कर दिया है. नवंबर 2016 में मोदी ने 500 रु. और 1,000 रु. की 'नोटबंदी' का नाटकीय ऐलान किया था. आर्थिक तौर पर यह भले विवादित रहा हो, पर यह उथलपुथल मचाने वाली सियासत भी थी जिसे उन्होंने अपनी पहचान बना लिया है. इस फैसले को काले धन पर 'जंग' की तरह पेश किया गया, जिससे प्रधानमंत्री को नैतिक बढ़त और गरीबों की वाहवाही मिली. गरीबों का यही चुनाव क्षेत्र है जिसे मोदी खूब सोच-समझकर साधने में जुटे हैं.

आलोचक मानते हैं कि मोदी का घमंड और हेकड़ी ही आखिरकार उनके पतन की वजह बनेगी. बड़े नीतिगत फैसलों से पहले पर्याप्त सलाह-मशविरे की कमी ही धीरे-धीरे उन्हें नीचे ले जाएगी. फैसलों और कामों का जितनी धूमधाम से ढिंढोरा पीटा जाता है, जमीन पर नतीजे भी उतने ही ठोस होने चाहिए. नौकरियों और खेती के संकट सरीखे सबसे अहम मुद्दों पर वादों का पूरा न होना अंततः मोहभंग की तरफ ले जा सकता है.

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गोरक्षकों का दुस्साहस और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरतजदा अपराध 'सबका साथ' और कानून-व्यवस्था के नारों को खोखला कर सकते हैं. कश्मीर में खूनखराबा नासूर बना हुआ है और चीन के साथ रिश्ते चिंताजनक पड़ाव पर हैं. बेअसर विपक्ष यह उम्मीद लगाए बैठा है कि उनसे पहले के कई 'सुप्रीम' नेताओं और सबसे ज्यादा 1970 के दशक की इंदिरा गांधी की तरह मोदी को भी वक्त के साथ आखिरकार बेसब्र मतदाताओं के आक्रोश का सामना करना होगा.

फिलहाल हकीकत यही है कि मोदी बांटने वाली मगर लुभाने वाली ताकत हैं, एक ऐसे प्रचारक जिन्होंने हिंदुत्व के राष्ट्रवाद को अच्छे राजकाज के उसूल के साथ मिला दिया है. उनके समर्थक उन्हें दूरदृष्टि से लैस काम करने वाले नेता के तौर पर देखते हैं, जो भ्रष्टाचार को लेकर सख्त है और ऐसा चुस्त कर्मयोगी है जो दिन में 18 घंटे काम करता है. उनके आलोचक उन्हें फासिस्ट, अधिनायकवादी हिप्नोटिस्ट यानी सम्मोहित करके भुलावे में डालने वाली शख्सियत के तौर पर देखते हैं जो समाज को तार-तार और संस्थाओं को तहस-नहस कर देगा और आखिरकार राज्य सत्ता पर कब्जा कर लेगा.

मोदी ने मान लिया है कि वे नियति के दुलारे शख्स हैं. हिंदुस्तान की सियासत में भविष्यवाणी करना खतरे से खाली नहीं. फिर भी कुछ यकीन के साथ इतना कहा जा सकता है कि मोदी ने चुनावी मुकाबलों की फितरत बदल दी है. अब मैदान और मीडिया, दोनों में बढ़ती तीव्रता के साथ राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज पर नेतृत्व के चुनाव लडऩे होंगे. यहां तक कि सरकार में भी मोदी अब भी चुनाव अभियान की ट्रेडमिल पर हैं, एक ऐसे राजनैतिक सीईओ-सह-इवेंट मैनेजर, जो काम की रफ्तार तय करना चाहता है और 'नए' भारत की आकांक्षाओं की नुमाइंदगी का दावा करता है.

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(लेखक इंडिया टुडे टीवी के कंसल्टिंग एडिटर और 2014 द इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया किताब के लेखक हैं)

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