आधुनिक भारत के निर्माता/ गणतंत्र दिवस विशेष
पटेल का बेहतरीन समय उस वक्त आया, जब वे 550 से भी ज्यादा बिखरी हुई रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करने के काम में लगे. अपनी रणनीति, दृढ़निश्चय और ताकत की वजह से वे इस असंभव-से कार्य को संभव कर पाए और इसमें उन्हें सक्षम मदद मिली वी.पी. मेनन की जिन्हें लॉर्ड माउंटबेटन ने उनका साथ देने के लिए लगाया था.
जब हैदराबाद के निजाम ने गंभीर अड़चन पैदा की, हिंसा को बढ़ावा देकर और बाहरी हस्तक्षेप की गुहार कर, तो पटेल ने सेना की मदद ली, जिसकी वजह से यह मसला आसानी से सुलझ गया. दूसरी तरफ, कश्मीर के भारत में विलय के बाद यह पाकिस्तानी उपद्रवियों का रणक्षेत्र बन गया, लेकिन यहां उनको हटाने के लिए नेहरू पूरी तरह से सेना के इस्तेमाल से हिचक गए और इसकी बजाए उन्होंने इस मसले को संयुक्त राष्ट्र में उठाया, जहां यह मसला आज भी अनसुलझा बना हुआ है.
इतिहास को आज के हिसाब से आंकना निरर्थक ही है. लेकिन यह याद रखना वाजिब होगा कि पटेल में लोगों को पहचानने की विलक्षण क्षमता थी
वे कभी रोमांटिक नहीं रहे, उन्होंने कभी गंभीर दार्शनिक विचार पेश नहीं किए, लेकिन जिस बात की उन्हें आशंका थी, उसके बारे में उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के लिखा. उनकी ऐसी ही एक आशंका चीन के बारे में थी, जिसके तिब्बत पर कब्जे को वे कभी माफ नहीं कर पाए, क्योंकि वे इस हरकत को आगे एक ज्यादा विनाशकारी हमले की शुरुआत मानते थे. चीन के हाथों 1962 में भारत को मिलने वाली हार को देखने के लिए सरदार पटेल जिंदा नहीं रहे, लेकिन 7 नवंबर, 1950 को जवाहरलाल नेहरू को लिखे अपने पत्र में उन्होंने साफ तौर से इसकी भविष्यवाणी कर दी थी.
उन्होंने यह अनुभव किया कि तिब्बत पर चीनी कार्रवाई 'विश्वासघात' थी और भारत तिब्बत को 'चीनी दुर्भावना का शिकार होने' से बचाने में विफल रहा. तिब्बत के चीन में विलय हो जाने से भारत की समूची उत्तरी और पूर्वोत्तर सीमा असुरक्षित हो गई. उन्होंने लिखा कि ''चीनी विस्तारवाद और साम्यवादी साम्राज्यवाद' पश्चिमी साम्राज्यवाद से भी ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि यह विचारधारा के विस्तार, नस्लीय, राष्ट्रीय और ऐतिहासिक दावों के छद्म वेश में आ रहा है. सरदार पटेल ने अंत में लिखा, ''इसलिए उत्तर और पूर्वोत्तर से आने वाला खतरा साम्यवादी और साम्राज्यवादी, दोनों है.''
सरदार पटेल के बारे में अपने आकलन में लॉर्ड माउंटबेटन ने राजनैतिक मामलों की उनकी जबरदस्त समझ की सराहना की. अंत में वे एक विरोधाभास बने रहे-लौह इच्छाशक्ति, स्पष्ट दृष्टि और कठोर दृढ़ता वाला एक व्यक्ति, जो ''भले दिल वाला, सज्जन और भावुक भी था.'' लॉर्ड माउंटबेटन ने जब जून 1948 में सरदार से अंतिम विदाई ली तो इसे देखा जा सकता था, दोनों की आंखें नम थीं.
(कई पुस्तकों की लेखिका रेबा सोम की नवीनतम पुस्तक है मार्गटः सिस्टर निवेदिता ऑफ विवेकानंद)
मंजीत ठाकुर