एक निर्भीक यात्री लालकृष्ण आडवाणी

भाजपा के 'लौह पुरुष', 1990 के दशक में जिनकी रथ यात्रा का नतीजा बाबरी मस्जिद के विध्वंस और भाजपा के सत्ता में पहुंचने के रूप में निकला.

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लालकृष्ण आडवाणी लालकृष्ण आडवाणी

मंजीत ठाकुर

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  • 25 जनवरी 2019,
  • अपडेटेड 4:17 PM IST

आधुनिक भारत के निर्माता/ गणतंत्र दिवस विशेष

अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के किसी अन्य नेता ने इसकी स्थापना में और साथ ही भारतीय राजनीति में उसके त्वरित उत्थान में उतना योगदान नहीं दिया है, जितना कि लालकृष्ण आडवाणी ने. अटल-आडवाणी का दौर 1980 में भाजपा की स्थापना से पहले ही शुरू हो गया था. इसे फरवरी 1968 में भारतीय जनसंघ (भाजपा की पूर्ववर्ती पार्टी) के मुख्य विचारक और संयोजक पंडित दीनदयाल उपाध्याय की रहस्यमय हत्या के दर्दनाक नतीजे से समझा जा सकता है.

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जनसंघ देश के कई हिस्सों में श्रमिकों का अत्यधिक प्रतिबद्ध और अनुशासित संघ था और उपाध्याय की हत्या के बाद वह नेतृत्वहीन हो गया. ऐसे में उसको नए नेता की जरूरत थी. भारतीय राजनीति के उभरते सितारे वाजपेयी इस दारोमदार के लिए आगे बढ़े. लेकिन उन्हें पार्टी के मिशन में मदद करने के लिए एक सक्षम सहयोगी की जरूरत थी. थोड़े शर्मीले पर तेज-तरार्र आडवाणी मजबूत संकल्प के साथ इसके लिए आगे आए.

1980 के दशक के उत्तरार्ध में और '90 के दशक की शुरुआत में, अयोध्या में राम मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए जन आंदोलन का नेतृत्व करके आडवाणी ने भारतीय राजनीति की दिशा और शब्दावली, दोनों में बड़ा बदलाव ला दिया. राम मंदिर निर्माण के मकसद से की गई आडवाणी की रथ यात्रा को इतने बड़े पैमाने पर हिंदुओं की प्रतिक्रिया मिली कि इसने भाजपा के विरोधियों को सकते में डाल दिया, तो खुद आडवाणी भी हैरान रह गए. अफसोस की बात है कि इस आंदोलन पर आडवाणी की पकड़ नहीं रही और जिसकी वजह से देशभर में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा हुई.

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अयोध्या आंदोलन के जरिए आडवाणी ने अपनी पार्टी को विस्मयकारी चुनावी कामयाबी दिलाई और कांग्रेस-वामपंथी मानकों तथा धर्मनिरपेक्षता की परिपाटी को चुनौती दी. उन्होंने इसे छद्म धर्मनिरपेक्षता कहा और इसके प्रत्युत्तर में भाजपा के अलग किस्म की सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता का नारा बुलंद किया—''सबको न्याय, तुष्टिकरण किसी का नहीं''. लेकिन इसी मानक पर भाजपा की कामयाबी पर सवाल खड़े होते हैं. भारतीय मुसलमानों के वंचित वर्गों के सामाजिक-आर्थिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए एक समग्र दृष्टि और व्यावहारिक नीतियों को तैयार करने में भाजपा विफल रही है.

और आडवाणी को यह आरोप साझा करना पड़ेगा. अब चीजें इस हद तक खराब हो गई हैं कि भाजपा बहुसंख्यकों पर अपनी कामयाबी  तक ही सीमित है. वह धर्मनिरपेक्षता की बात नहीं करती जो भारत के विचार का मुख्य सहारा है. भाजपा आक्रामक तरीके से अपने विभाजनकारी (हिंदू) वोट बैंक की राजनीति कर रही है.

(लेखक कई वर्षों तक एल.के. आडवाणी से सहयोगी रहे हैं. वैचारिक मतभेद के कारण उन्होंने 2013 में भाजपा छोड़ दिया था)

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