आधुनिक भारत के निर्माता/ गणतंत्र दिवस विशेष
जब वे अपनी लय में होते थे तो यकीनन दुनिया के सबसे ‘पूर्ण’ बल्लेबाज होते थे, भले ही सबसे मनोरंजक न हों. बल्लेबाजी को लेकर उनका नजरिया बड़ा ही महीन रहता था. वे पिच और सामने गेंदबाज के अनुसार मामूली-सा तकनीकी बदलाव अपनी शैली में करते थे. उनका बुनियादी तरीका यही रहता था कि विपक्षी गेंदबाजों को थका दो और उसके पीछे यह तय विश्वास रहता था कि रन तो अपने आप बनेंगे. स्ट्रोक्स के उनके भंडार में कोई कमी नहीं थी और अपने आखिरी कुछ सीजन में उन्होंने यह भी दिखा दिया था कि वे सहजता से खुद को आक्रामक रुख में भी ढाल सकते थे. इस लिहाज से उनके संयमित रुख का श्रेय तीन बातों को दिया जा सकता था: पहला, जिस तरह से उन दिनों बल्लेबाजों को सिखाया जाता था (कैरिबियाई बल्लेबाजों को छोड़कर) और उन पर टीम की बल्लेबाजी को अपने कंधों पर ढोने का दारोमदार होता था. निश्चित तौर पर, बॉक्वबे स्कूल की सर्वश्रेष्ठ परंपराओं के अनुसार उन्हें भी आउट होने से नफरत थी. और उन्हें आउट करना भी गेंदबाजों के लिए उतना आसान होता नहीं था.
उनकी बल्लेबाजी की खूबसूरती अच्छा प्रदर्शन करने की दृढ़ता और अनुशासन के इर्दगिर्द खड़ी थी. बुद्धिमान होने की वजह से वे मैच की स्थितियों का मूल्यांकन बाकी लोगों के मुकाबले जल्दी कर लिया करते थे, हाथी जैसी याददाश्त के चलते वे कभी कुछ नहीं भूलते थे, खास तौर पर अपनी की गई गलतियों को. नेट प्रैक्टिस सुनील गावसकर के लिए मैच खेलने जैसा ही गंभीर विषय होती थी. वे अपनी बल्लेबाजी की तकनीक में छोटी से छोटी खामी को दूर करने में घंटों लगा दिया करते थे. इन मामलों में वे खुद अपने सबसे बड़े दोस्त और सबसे खराब आलोचक हुआ करते थे. वे तब कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते थे और उसे हल्के में लेने की किसी भी इच्छा को बेदर्दी से अपने मन से बाहर कर देते थे. धीरज और सहजता उनके दो प्रमुख गुण थे.
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संध्या द्विवेदी / मंजीत ठाकुर