नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे एक शाश्वत सेनानी

जिन्होंने आजाद हिंद फौज को खड़ा किया और जिनकी मौत एक अनसुलझा रहस्य बन गई. भारत के आत्मसम्मान में बोस का अहम योगदान

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सुभाषचंद्र बोस (1897-1945) सुभाषचंद्र बोस (1897-1945)

मंजीत ठाकुर

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  • 25 जनवरी 2019,
  • अपडेटेड 1:57 PM IST

आधुनिक भारत के निर्माता/ गणतंत्र दिवस विशेष

अपने जीवनकाल में ही सुभाषचंद्र बोस किंवदंती और मौत के बाद मिथक बन गए. विडंबना यह कि उनकी तारीफ के लिए असल में इतनी चीजें हैं कि फंतासी की जरूरत ही नहीं रह जाती. बोस ने सिंगापुर के चेट्टियार मंदिर में एक धार्मिक समारोह में तब तक शामिल होने से इनकार किया जब तक कि वहां के पुजारी सभी जातियों और समुदाय के लोगों को शामिल करने को तैयार नहीं हो गए.

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उन्होंने भारत की राष्ट्रभाषा के तौर पर (रोमन लिपि में लिखी जाने वाली) हिन्दुस्तानी पर जोर दिया. ब्रिटिश भारत के कमांडर-इन-चीफ फील्ड मार्शल सर क्लॉड ऑचिनलेक संभवतया बोस के उस राजद्रोह का पर्दाफाश करने की उम्मीद में थे, जब वे आजाद हिंद फौज के एक हिन्दू (प्रेम कुमार सहगल), एक मुसलमान (शाहनवाज खान) और एक सिख (गुरबख्श सिंह ढिल्लों) जैसे कैदियों पर ब्रिटिश सम्राट के खिलाफ युद्ध छेडऩे का मुकदमा चला रहे थे. इसकी बजाए यह तिकड़ी आजादी के आंदोलन के धर्मनिरपेक्ष सद्भाव का प्रतीक बन गई. गांधीजी ने भी आइएनए और आजाद हिंद सरकार में मौजूद सांप्रदायिक सद्भाव की तारीफ की थी.

बोस ने कलकत्ता कॉर्पोरेशन में मुस्लिम लीग के साथ सहयोग किया था और बंगाल, सिंध और पंजाब में गठबंधन सरकारों की वकालत की थी. गैर-सांप्रदायिक भविष्य के लिए यह समर्पण राष्ट्रहित में बोस का सबसे बड़ा योगदान था. उनमें लोकप्रियता की तमाम अपील मौजूद थी. उन्होंने भारतीय सिविल सेवा की नौकरी ठुकरा दी थी. भारतीयों ने उन्हें दो दफा सबसे ऊंचे सियासी पद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना, नजरबंदी से नाटकीय तरीके से निकल भागे और छद्मवेश में अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी पहुंच गए. पनडुब्बी से वे जापान गए और फिर सिंगापुर में फौज खड़ी की. इन सबने बंगाली कातरता को सफेद झूठ में बदलने में मदद किया.

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नेहरू के साथ बोस की प्रतिद्वंद्विता और गांधी के साथ उनके मतभेद ने उन्हें अपनी पहचान के लिए संघर्षरत बंगालियों का प्यारा बना दिया. अगर जापानी युद्ध जीत जाते हैं तो भारत का क्या होगा, इस बात ने ज्यादातर भारतीयों को परेशान नहीं किया—ऑर्थर मूर जैसे कुछ अपवाद जरूर थे, जो बोस को पसंद करने के बावजूद सोचते थे कि भारतीय नेताओं का यह दावा कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद और जर्मनी और जापान के प्रस्तावों में कुछ भी नहीं चुनने वाले हैं, खतरनाक है.

मूर ने बोस की किताब द इंडियन स्ट्रगल पढ़ी थी लेकिन वे इसे भारतीय मीन काम्फ करार देते हैं, ''यह ज्यादा उदार और सुसंस्कृत है, या कहना होगा कि थोड़ा कम अश्लील है. लेकिन सांचा स्पष्ट है और जीवन दृष्टि एक जैसी...इसमें कुछ भी खांटी भारतीय नहीं.'' लेकिन अधिकतर भारतीय अधिनायकवादी प्रवृत्तियों की परवाह नहीं कर रहे थे. 18 अगस्त, 1945 को ताइवान में हुए हवाई दुर्घटना के बारे में आधिकारिक अनिर्णय इस बारे में विवादों की ओर इशारा करता है. लेकिन एक के बाद दूसरी सरकारों का उनका बड़ा स्मारक बनाने की अनिच्छा आजादी की लड़ाई में उनकी भूमिका और आजादी के बाद प्रशासन में बोस के सुझाए विकल्पों को लेकर असहजता का प्रतीक भी है.

(सुनंदा के. दत्ता-रे लेखक, स्तंभकार और द स्टेट्समैन के पूर्व संपादक हैं)

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