सत्य प्रकाश (पहचान न जाहिर करने के लिए नाम बदल दिया गया है) दिल्ली के होली फैमिली अस्पताल से एक हफ्ते के इलाज के बाद 17 अप्रैल को डिस्चार्ज हुए और उन्हें 20 अप्रैल को आंकोलोजिस्ट डॉ. सुमंत गुप्ता से अस्पताल में ही मिलने के लिए कहा गया. अस्पताल में उनका समय पूछने पर बताया गया कि डॉ. गुप्ता सेल्फ क्वारंटीन में हैं और एक नंबर देकर उनको कॉल करने को कहा गया. डॉक्टर ने वीडियो कंसल्टेशन दिया.
उन्होंने मल्टीपल माइलोमा (एक प्रकार का ब्लड कैंसर) के मरीज प्रकाश के बेटे को बताया, ''उन्हें घर पर ही हर हफ्ते कीमो का इंजेक्शन लेना है, जिसे कोई भी दे सकता है.'' उन्होंने मरीज को दिलासा दिलाया कि इस बीमारी से उनकी जान को कोई फौरी खतरा नहीं है लेकिन संक्रमण से बचें. अस्पताल के आइसीयू 4 में 15 अप्रैल की रात को दो मरीजों की रिपोर्ट कोरोना पॉजिटिव पाई गई. उस यूनिट के सभी स्टाफ को क्वारंटीन पर भेज दिया गया था, वैसे अस्पताल का कामकाज सामान्य चल रहा है.
लेकिन छोटे अस्पतालों के साथ ऐसा नहीं है. अप्रैल की 13 तारीख की शाम को दिल्ली के चितरंजन पार्क के 40 वर्षीय एक व्यक्ति को एरिस्टन मल्टीस्पेशियलिटी अस्पताल में भर्ती कराया गया था. पिछले 15 साल से उनका इलाज कर रहे जनरल फिजिशियन और अस्पताल के बोर्ड मेंबर डॉ. ईश कठपालिया बताते हैं, ''मरीज के मूत्र में कीटोन्स थे. उन्हें हल्का बुखार था तो हमने कोविड-19 के लिए उनकी जांच की.'' तीन दिन बाद डॉ. कठपालिया को रोगी के कोविड-19 जांच का नतीजा मिला तो वह वायरस से संक्रमित पाया गया. रोगी को लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल में स्थानांतरित किया गया और डॉ. कठपालिया, उनकी पत्नी और पुत्र (वे भी डॉक्टर हैं) और एरिस्टन के सभी स्टाफ को क्वारंटीन में भेजा गया.
अस्पताल बंद करने से आस-पड़ोस के निवासियों के लिए बड़ी समस्या खड़ी हो गई है क्योंकि वे किसी भी प्रकार की आपातकालीन चिकित्सा जरूरतों के लिए इसी अस्पताल पर निर्भर हैं. डॉ. कठपालिया कहते हैं, ''रेजिडेंशियल क्लिनिक और छोटे अस्पतालों पर बहुत गहरा असर हो रहा है. अगर संक्रमण का एक भी मामला आता है, तो हमें पूरी तरह से बंद करना होता है. हमारे अस्पताल में टूटी हड्डियों और मधुमेह के रोगियों से लेकर गंभीर घाव वाले मरीज आते हैं. हमें तब तक अपनी चिकित्सा सेवाएं सीमित रखनी होंगी जब तक अस्पताल पूरी तरह सैनिटाइज न हो जाए.''
हालांकि, इस बारे में अभी कोई शोध उपलब्ध नहीं है कि गर्भावस्था की जटिलता, कैंसर, मधुमेह और थैलेसीमिया जैसी बीमारियों वाले मरीजों या हाशिए पर खड़े समाज के पुराने मरीजों के दीर्घकालिक स्वास्थ्य पर लॉकडाउन क्या प्रभाव डाल रहा है पर देशभर से ऐसी कहानियां सुनने को मिल रही हैं जो चिंताजनक हैं. गुडग़ांव के सेक्टर 71 में रहने वाले उदय सिन्हा कैंसर से पीड़ित हैं. उन्हें प्रत्येक महीने एक खास तरह का इंजेक्शन लेना पड़ता है. सरकारी अस्पतालों में इस इंजेक्शन की कीमत 3,500 रुपए है, अब यह दवाई दुकानों में 11,000 रुपए में मिलती है. कोरोना महामारी के चलते हरियाणा में ऐसी अफरा-तफरी मची है कि स्वास्थ्य विभाग का पूरा अमला इसके पीछे लगा है. इसकी वजह से उदय सिन्हा को चार गुना अधिक कीमत अदाकर मेडिकल स्टोर से इंजेक्शन लेना पड़ा.
ऐसा केवल हरियाणा में नहीं है. कर्नाटक, जहां 21 अप्रैल तक कोविड के 520 मामले थे, में कैंसररोगियों की कीमोथेरेपी रोकनी पड़ी है. बेंगलूरू स्थित किदवई मेमोरियल इंस्टीट्यूट ऑफ आंकोलॉजी के निदेशक डॉ. विजय कुमार एम. बताते हैं, ''हम कीमो कर तो रहे हैं लेकिन बहुत कम पैमाने पर. हर संभव हम अग्रेसिव कीमोथेरेपी को टाल रहे हैं क्योंकि हम मरीज की रोग प्रतिरोधक क्षमता घटाना नहीं चाहते.''
सार्वजनिक परिवहन की कमी भी एक बड़ा रोड़ा है. किदवई अस्पताल में राज्य भर से रोगी आते हैं लेकिन परिवहन सुविधा न होने के कारण उनके लिए आना सरल नहीं है, इसलिए रोगियों की संख्या घटी है. हालांकि, अभी भी कई हैं जो कैंसर अस्पताल के पर्चे दिखाकर बेंगलूरू पहुंच रहे हैं. महाराष्ट्र में, जहां कोविड के 4,203 मामले हैं, गर्भवती महिलाओं को घर पर रहने की सलाह दी जा रही है.
यहां तक कि तब भी जब उन्हें संकट के लक्षण दिखाई देते हों. 1.6 करोड़ बच्चों और गर्भवती महिलाओं के बीच काम करने वाले एनजीओ आर्ममैन की निदेशक और यूरोगाइनेकोलॉजिस्ट डॉ. अपर्णा हेगड़े कहती हैं, ''हमारी हेल्पलाइन पर ऐसी महिला का फोन आया जो गर्भावस्था की अपनी तीसरी त्रैमासिक अवधि में थी और उसे रिसाव हो रहा था पर अस्पताल ने घर पर रहने की सलाह दी. हमने उसे तुरंत अस्पताल जाने को कहा था. उसे आपातकालीन सिजेरियन की जरूरत थी. हम 10 राज्यों में वॉयस कॉलिंग सेवा प्रदान करते हैं और लॉकडाउन के बाद से हमारे पास 28 डॉक्टरों के साथ डिजिटल परामर्श सेवा उपलब्ध है.''
आवाजाही में परेशानी को देखते हुए हरियाणा रोडवेज की पांच सौ बसों को चलंत डिस्पेंसरी का रूप देकर डॉक्टरों को गांव-कस्बे भेजा जा रहा है ताकि आम लोगों को छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज किया जा सके. स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज कहते हैं कि मूविंग डिस्पेंसरी से मरीजों को मुफ्त दवाई भी दी जा रही है. हालांकि सरकार की इस योजना की सफलता पर सवाल उठने लगे हैं. प्रदेश में डॉक्टरों की भारी कमी है, जो हैं वे भी कोरोना रोगियों के इलाज में लगे हैं. कोराना वायरस के भारत में कदम रखते ही राज्य सरकार ने 447 नियमित और 350 कांट्रैक्ट पर डॉक्टरों की भर्ती की प्रक्रिया शुरू कर दी थी, पर उनमें से मात्र 196 डॉक्टरों ने ही जॉइन किया.
इसी तरह स्वास्थ्य विभाग, उत्तराखंड ने देहरादून के बड़े अस्पतालों में सामान्य ओपीडी बंद कर दी है. केवल आपातकालीन सेवाएं दी जा रही हैं. कोरोनेशन एवं गांधी अस्पताल प्रबंधन ने मरीजों की भीड़ कम करने के लिए यह फैसला लिया है. कोरोनेशन एवं गांधी अस्पताल के प्रमुख चिकित्सा अधीक्षक डॉ. बी.सी. रमोला के अनुसार, ''केवल फ्ूह ओपीडी ही चलाई जा रही है. इमरजेंसी केस में ही ऑपरेशन किए जा रहे हैं.'' पहले दून मेडिकल कॉलेज चिकित्सालय में भी सामान्य ऑपरेशन बंद किए जा चुके हैं.
बहुत जरूरी न होने पर ऑपरेशन की अगली तारीख दी जा रही है. दिल्ली से मिली एडवाइजरी के मुताबिक एम्स ऋषिकेश समेत देहरादून जिले के सभी सरकारी अस्पतालों में सामान्य ओपीडी में मरीजों को बहुत जरूरी होने पर ही आने के लिए कहा जा रहा है. बहुत जरूरी न होने पर ऑपरेशन की अगली तारीख दी जा रही है. यही हाल उत्तर प्रदेश और बिहार के अस्पतालों में है. सारा ध्यान कोविड-19 के रोगियोंके उपचार और संक्रमण रोकने पर है. उत्तर प्रदेश सरकार अस्पतालों में स्थिति सामान्य बनाने की योजना पर विचार कर रही है.
दिल्ली के होली फैमिली अस्पताल की मेडिकल सुप्रिंटेंडेंट डॉ. सुंबुल वारसी कहती हैं, ''हम इमरजेंसी में हर तरह की सेवा दे रहे हैं. गायनी डिपार्टमेंट पहले की तरह काम कर रहा है. जरूरी ऑपरेशन भी कर रहे हैं, रूटीन ऑपरेशन को टाल रहे हैं. लेकिन इमरजेंसी वाले पेशेंट भी कम आ रहे हैं.'' वे आश्चर्य जताती हैं कि आखिर दिल और अस्थमा के दौरे वाले मरीज कहां गए. दरअसल, महामारी के संक्रमण की वजह से काफी मरीज अस्पताल से कतरा रहे हैं.
कई तो सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों में सीमित सेवा की वजह से घर में ही गंभीर रोगों से जूझ रहे हैं. इंदौर शहर के मुसलमानों के कब्रिस्तानों में पहुंचने वाले शवों का आंकड़ा एकाएक बढ़ गया है. वहां के लोग डायबिटीज, किडनी और बल्ड प्रेशर जैसी बीमारियों का फौरन इलाज नहीं मिल पाना इसकी वजह बता रहे है. इंदौर में 10 अप्रैल तक 187 शव शहर के चार बड़े कब्रिस्तान में दफन हुए, वहीं मार्च में यह आंकड़ा 130 था, फरवरी में 98 और जनवरी में 113 था. इंदौर में दो डॉक्टर भी इस महामारी के शिकार हो गए.
लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में, रक्त की कमी प्रमुख चिंता थी. दिल्ली में प्रकाश को जब अस्पताल में भर्ती किया गया था तब डॉक्टरों ने उन्हें खून चढ़ाने के लिए कहा था. ब्लड बैंक ने रक्तदान करने को कहा लेकिन प्रकाश के कई हितैषी चाहकर भी पहुंच नहीं पाए. बाद में डॉक्टरों ने मना कर दिया कि अभी किसी को न बुलाएं. खून का इंतजाम हो गया. अस्पताल ने कहा कि अभी खून है. फिलहाल,ब्लड बैंकों ने रक्तदाताओं से जुडऩे के तरीके तो ढूंढ लिए हैं लेकिन खून की मांग बढ़ती है, तो वर्तमान आपूर्ति पर्याप्त नहीं होगी.
इंडियन रेड क्रॉस सोसाइटी (आइआरसीएस) की निदेशक वनश्री सिंह कहती हैं, ''अभी हमारे पास आम दिनों के मुकाबले रक्त की 50 प्रतिशत कम मांग है क्योंकि गंभीर मामलों में ही रक्त दिया जा रहा है. रक्त का संग्रह प्रति दिन 200 यूनिट से घटकर 40-50 यूनिट रह गया है.'' ज्यादातर पुराने रक्तदाताओं से जिनके रक्त संग्रह केंद्र में आने के लिए पास और गाडिय़ों का इंतजाम किया गया है, उन्हीं से रक्त मिल पा रहा है. नेशनल ब्लड ट्रांसफ्यूजन काउंसिल ऑफ इंडिया ने कहा है कि दान वाले रक्त में वायरल लोड बहुत कम है और इसमें जोखिम काफी कम है, फिर भी अगर रक्तदान के बाद किसी व्यक्ति में लक्षण विकसित होते हैं, तो उन्हें तुरंत ब्लड बैंक को सूचित करने के लिए कहा जाता है.
आइआरसीएस ने दिल्ली में लगभग 40 दानदाताओं के लिए सामाजिक दूरी के मानदंडों का ध्यान रखते हुए रक्तदान अभियान भी चलाया था. डिजिटल पहुंच ने उनकी बहुत मदद की है. किदवई के इन-हाउस रोगियों में 60 बच्चे शामिल हैं, जिनमें से कुछ तो महज पांच साल की उम्र के हैं और अस्पताल के पास इस वक्त छह ऐसे मरीज हैं जिनकी जिंदगी में बहुत ज्यादा दिन शेष नहीं हैं. अस्पताल उन्हें आगंतुकों से न मिलने और मात्र एक स्थायी तीमारदार रखने की सलाह देता है.
ऐसी बीमारियां जिनके लिए आपातकालीन देखभाल की जरूरत नहीं है—मसलन दांत की समस्याएं, घाव, जलन और मोतियाबिंद—को स्थगित किया जा रहा है और उनका इलाज वस्तुत: फोन या वीडियो कंसल्टेशन के जरिए किया जा रहा है. लेकिन कुछ डॉक्टर जोखिम उठाकर देश में अंधता के दूसरे सबसे बड़े कारण काला मोतिया से लड़ रहे हैं. दिल्ली में विजियो आई क्लिनिक की डॉ. सीमा राज बताती हैं, ''ज्यादातर मरीजों को फोन से ही सलाह दे रही हूं, लेकिन लॉकडाउन के दौरान सफेद मोतिया फटने की वजह से इमरजेंसी में कुछ पेशेंट का ऑपरेशन करना पड़ा.''
हालांकि, हर कोई सलाह के लिए डॉक्टर को वीडियो कॉल नहीं कर सकता या आपातस्थिति के लिए जिला अस्पताल नहीं पहुंच सकता. देश में सब लोगों के पास स्मार्टफोन नहीं है और कुछ इलाकों में तो सामान्य कॉल भी नहीं लगता. इसके अलावा, कॉल ड्रॉप की परेशानी अपनी जगह है. भारत में करीब 25,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) हैं, जिनमें से प्रत्येक के जरिए 40,000 से 80,000 लोगों की देखभाल होती है. निकटतम पीएचसी तक पहुंचने के सीमित साधनों के साथ, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) में डॉक्टर केवल आपातकालीन मामलों को ले रहे हैं और आशा कार्यकर्ताओं को कोविड के मामलों की पहचान के काम में लगाया गया है.
आशा इंडिया, जो आशा कार्यकर्ताओं के साथ पश्चिम बंगाल के 100 गांवों में पोषण की कमी को दूर करने के लिए काम करता है, के अध्यक्ष रजत कुमार दास कहते हैं, ''आशा कार्यकर्ताओं की आमतौर पर दर्जनों गांवों की जिम्मेदारी रहती है. अब उनके पास जाने का कोई साधन नहीं है. स्वास्थ्य चिंताओं और परिवहन के साधनों की कमी के कारण सेवाएं सीमित हो गई हैं.'' वे यह भी कहते हैं, ''भोजन उपलब्ध है लेकिन गरीबों, विशेष रूप से दैनिक वेतन भोगियों को बुनियादी भोजन के साथ गुजारा करना है जिसमें पोषण की मात्रा बहुत कम है.'' यूनिसेफ के छत्तीसगढ़ कार्यालय के प्रमुख प्रशांत दास कहते हैं, ''इसमें शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चे शामिल हैं. स्वास्थ्य, पोषण, स्वच्छ पानी जैसी सेवाओं तक उनकी पहुंच की स्थिति चिंताजनक है.''
वहीं शहरी मरीजों की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं है. मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के सरकारी अस्पतालों में लॉकडाउन के बाद ओपीडी में आने वाले मरीजों का आंकड़ा एकदम कम हो गया. जो मरीज आ भी रहे है वे बहुत इमरजेंसी में ही पहुंच रहे हैं. भोपाल के सरकारी अस्पताल हमीदिया, जयप्रकाश और भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल ऐंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) में अब हर मरीज के लिए इलाज उपलब्ध कराया जा रहा है. सरकार ने एक प्राइवेट हॉस्पिटल चिरायु और एक्वस को कोरोना के इलाज के लिए तय कर दिया है. शहर के सबसे बड़े अस्पताल हमीदिया में जहां लॉकडाउन के पहले ओपीडी में आने वाले लोगों की तादाद 2,500 तक थी वह अब सिमट कर मात्र 500 से 700 रह गई है. वहीं जेपी अस्पताल में यह आंकड़ा मात्र 500 तक रह गया है जो पहले 1,600 तक हुआ करता था.
यही हाल हरियाणा के अस्पतालों में है, जहां आम दिनों में बड़े निजी और राजकीय अस्पतालों में दो से ढाई हजार तक ओपीडी हुआ करती है. फरीदाबाद के सर्वोदय अस्पताल की प्रवक्ता गार्गी कहती हैं, ''हमारे यहां नाममात्र की ओपीडी हो रही है. प्रत्येक निजी अस्पताल की आमदनी का मुख्य स्रोत ओपीडी ही होती है, जो बिल्कुल बंद है.'' लॉकडाउन का दूसरा चरण शुरू होने और अस्पतालों में ओपीडी बंद होने से आम रोगियों की परेशानी कई गुणा बढ़ गई है. स्वास्थ्य विभाग के निदेशक सूरजभान कहते हैं, ''अभी अस्पतालों में केवल इमर्जेंसी में आने वालों का इलाज संभव हो पा रहा है. ओपीडी में आने वाला अगर कोई गंभीर रोगी होता है तो उसको देखने की व्यवस्था की गई है. लॉकडाउन के दूसरे चरण देखते हुए लोगों तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचे इसके लिए एक योजना बनाई गई है.''
यही हाल श्रीनगर में है. शहर के सबसे बड़े अस्पताल श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल में घाटी के विभिन्न इलाकों से हर रोज सैकड़ों मरीज आते थे लेकिन महामारी के चलते रोगियों की संख्या कम हो गई है. डॉक्टर्स एसोसिएशन ऑफ कश्मीर ने मार्च के आखिर में मरीजों को ऑनलाइन कंसल्टेशन का फैसला कर लिया था. करीब 200 डॉक्टर चौबीसों घंटे एक हजार मरीजों को मुफ्त चिकित्सीय सलाह दे रहे हैं. टेलीमेडिसिन सोसाइटी ऑफ इंडिया देश के हर डॉक्टर को प्रशिक्षण देने के लिए तैयार है. सोसाइटी के सलाहकार डॉ. गुरइकबाल सिंह जैया बताते हैं कि यह काम शुरू हो गया है. लेकिन यह व्यवस्था फिलहाल हर मरीज को संतुष्ट नहीं कर रही है. श्रीनगर के 45 वर्षीय अमीन मोहम्मद की मां किडनी की बीमारी की मरीज हैं. अमीन बताते हैं, ''डॉक्टर ने उन्हें फोन पर सलाह दी लेकिन वे संतुष्ट नहीं हैं.''
कई जगहों पर डॉक्टर फोन से कंसल्टेशन दे रहे हैं लेकिन जैसा कि एक सीनियर फिजिशियन और दिल्ली में एक अस्पताल के आइसीयू इंचार्ज कहते हैं, ''हम लोग गंभीर रूप से बीमारियों के शिकार लोगों को फोन पर हर संभव मदद करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन मरीज को सामने देखकर उसकी हालत का अंदाजा ज्यादा लगता है. अभी वास्तव में डॉक्टरों को मरीज से और मरीज को डॉक्टरों से संक्रमण का खतरा है.''
रॉस क्लिनिक के संस्थापक डॉ. देवाशीष सैनी युवा डॉक्टरों को अपना क्लिनिक शुरू करने का प्रशिक्षण देते हैं. इस क्लिनिक के डॉक्टर मरीजों का घर पर जाकर भी इलाज करते हैं. लेकिन डॉ. सैनी कहते हैं, ''फिलहाल, कंसल्टेशन महज 10 फीसद रह गया है. लोग क्लिनिक में कम आते हैं और होम विजिट भी कम हो गया है.'' क्लिनिक भी बंद हैं.
उन्हीं की तरह देश के शहरों और कस्बों के क्लिनिक भी बंद हैं. बिहार के पूर्वी चंपारण में हालांकि इसी हफ्ते पहला कोविड मामला मिला है, पर वहां के क्लिनिक के डॉक्टर पहले से एहतियात बरत रहे हैं. जिले के सबडिविजन ढाका में बड़ा क्लिनिक चलाने वाले डॉ. सगीर अहमद बताते हैं, ''सोशल मीडिया की वजह से इस बीमारी के बारे में यहां भी काफी जागरूकता है. लोग गांव से कस्बे में बेहद जरूरी काम से आते हैं. जाहिर है, हर जगह की तरह यहां भी मरीज कम हैं.''
लेकिन हिमाचल प्रदेश अपवाद लगता है, जहां स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति ठीक होती लग रही है. शिमला के इंदिरा गांधी मेडिकल अस्पताल के मेडिकल सुप्रिंटेंडेंट डॉ. जनक राज का कहना है कि यहां कोई कोरोना मरीज नहीं है इसलिए सामान्य ओपीडी शुरू कर दी गई है. वे कहते हैं कि कोरोना से बचाव का यह मतलब नहीं है कि लोग अन्य बीमारियों की तकलीफ में जिएं. यहां गंभीर बीमारियों का इलाज और ऑपरेशन भी हो रहा है.
वैसे, अस्पतालों में मरीजों के कम आने से कई निजी अस्पतालों की सेहत बिगड़ रही है. उन्हें अपने कर्मचारियों का वेतन देना मुश्किल होता जा रहा है. एक अस्पताल की वरिष्ठ चिकित्सक का कहना है कि एक तो पेशेंट की कमी है, दूसरा कोविड अस्पताल न होते हुए भी डॉक्टरों और स्टाफ को बचाने के लिए तरह-तरह के खर्च करने पड़ रहे हैं. ऊपर से बचाव के उत्पादों पर टैक्स अब भी लगा हुआ है. इन सबकी वजह से अस्पतालों का अपना खर्च काफी बढ़ गया है और आमदनी घटती जा रही है. दिल्ली में होली फैमिली अस्पताल की ओपीडी में पहले हजार पेशेंट आते थे, लेकिन अब उनकी संख्या बमुश्किल दो सौ रह गई है.
इसके अलावा, भर्ती होने के मामले मात्र 30 फीसद हैं. करीब 1,500 स्टाफ वाले अस्पताल के डायरेक्टर फादर जॉर्ज पी.ए. कहते हैं, ''अगर कोविड का दौर लंबा खिंच गया तो कई अस्पतालों की अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी, कुछ ने तो अभी से अपने कर्मचारियों का वेतन कम कर दिया है.'' शहरों के कई पॉलीक्लिनिक पूरी तरह बंद हो गए हैं. यह महामारी प्राइवेट स्वास्थ्य व्यवस्था का दम निकाल सकता है और स्वास्थ्यकर्मियों की नौकरी भी जा सकती है.
मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी में एशिया स्टडीज के निदेशक सिद्धार्थ चंद्रा कहते हैं; ''एक मुद्दा जिसकी वर्तमान में बहुत चर्चा नहीं हो रही, वह है—महामारी का बच्चों के जन्म पर बड़ा प्रभाव.
1918 में भारत में स्पैनिश फ्लू महामारी के दौरान, बच्चों के समय से पहले पैदा होने या फिर मरे हुए बच्चे जन्मने के मामलों में तेजी आई थी और इन्फ्लुएंजा से संबंधित मौतों के शिखर पर पहुंचने के नौ महीने बाद जन्म लेने वाले शिशुओं की 'संख्या सामान्य से बहुत कम थी.''
बहरहाल, वे स्वास्थ्यकर्मी जो कोविड-19 देखभाल में सीधे तौर पर शामिल नहीं हैं, वे जहां भी संभव हो वहां अंतराल को भरने और हालात को अनुकूल बनाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. डिजिटल मीडिया ने स्वयंसेवकों तक पहुंचने और मरीजों के लिए डॉक्टरों से जुड़कर अस्पताल आए बिना भी इलाज कराना आसान बना दिया है.
बेशक ई-परामर्श ने कुछ हद तक जोखिमों को कम किया है, लेकिन जिन क्षेत्रों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध नहीं हैं वहां के मरीजों तक चिकित्सा पहुंचाना एक बड़ी आवश्यकता है.
जाहिर है, लंबे समय तक बीमारियों के उचित इलाज को टाल देना आगे चलकर लोगों के लिए एक साइलेंट किलर साबित हो सकता है.
— मोअज्जम मोहम्मद, मलिक असगर हाशमी, वरदा गुप्ता, संतोष पाठक, शुरैह नियाजी और अखिलेश पांडे
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मोहम्मद वक़ास