कुपोषण से लेकर सामाजिक असमानता झेल रही महिलाओं के खिलाफ अपराधों में तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही हैं और शायद ये बढ़ोत्तरी हमारे देश की आर्थिक विकास दर से भी से ज्यादा बड़ी बहस का विषय हैं. लिंग अनुपात और दहेज-हत्या की कहानी एक ही स्याही से लिखी जाती हैं. हां वाही स्याही जिसमें हमारे समाज की औरतों के प्रति नफरत का रंग घुला हुआ हैं.
लिंग अनुपात का सच
सरकार के पास आंकड़ों से खेलने वाले लाखों सिपाही मौजूद हैं जिनके सहारे वो हमें वहीं आकड़े दिखाती हैं जो उसका बचाव करते हैं. बात चाहे एफडीआई की हो या आर्थिक विकास के आकड़ों की, सरकार सिर्फ फीसदी में बात करती है. पर हमारे गणित के अध्यापक ने कहा था फीसदी में आधार संख्या (बेस नंबर) का हमेशा ध्यान रखना सारा खेल उसी का हैं. सरकार ने 2011 की जनगणना में कहा कि पिछले 10 सालों में लिंग अनुपात में सुधार हुआ है. बात भी सच हैं, 2001 में लिंग अनुपात 933 था जो 2011 में बढ़कर 943 हो गया. सरकार को ये भी बताना चाहिए था कि 1951 में यह आकंडा 946 था और 1901 में 972. अब आप पूरी कहानी जान सकते हैं बढ़त कहां और कितनी हुई.
काश सिर्फ गणित के खेल से देश की दो तिहती आबादी की हालत सुधारी जा सकती. बच्चों के लिंग अनुपात के आंकड़े चौकाने वाले हैं. जी हां 2011 की जनगणना कहती हैं कि 6 साल तक बच्चों में लिंग अनुपात, बीते सौ सालों में सबसे चिंताजनक स्थिति में हैं. मसलन 1951 में बच्चों में लिंग अनुपात 983 था जो 2001 में घटकर 927 हुआ और 2011 में न्यूनतम 919 हो गया.
हरियाणा और पंजाब में फसल भले ही लहलहाती हो पर नन्ही बच्चियों और बेबस औरतों के भाग्य में यहां हमेशा ही सूखा रहा हैं. इस बार भी देश में लिंग अनुपात के आकड़ों में निचले पायदान को लेकर पंजाब और हरियाणा में बड़ी जेद्दोजेहद देखने को मिली पर बाजी इस बार हरियाणा ने मारी. वहीँ जम्मू-कश्मीर में अब आतंकी मुठभेड़ें बीते दशक से भले ही कम हो गयी हों पर बच्चों में गिरता लिंग अनुपात उलझनों को और बढ़ाने वाला हैं. जहां बीते दशक में सबसे ज्यादा गिरावट आई हैं. जम्मू-कश्मीर में 2001 में 6 साल तक के बच्चों में लिंग अनुपात 941 था जो 2011 में गिरकर 859 हो गया.
औरतों के खिलाफ हिंसा
औरतें के खिलाफ हिंसा और दुर्व्यवहार प्रेमचंद के उपन्यास से लेकर समाज की कड़वी सच्चाई रही हैं. अगर बात सिर्फ बीते दशक की करें तो महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों में करीब 70 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई हैं जो शायद सरकार को छोड़ किसी के भी माथे पर सिकन लाने के लिए काफी हैं. बीते दशक की कहानी कहती है कि हर साल औसतन 8,000 औरतों को दहेज़ की कमी के कारण मार दिया जाता है. मतलब देश में हर घंटे में दहेज़ को लेकर कम से कम एक औरत को अपनी जान गवनीं पड़ रही है.
मुलायम सिंह यादव जो आज-कल आईपीएस अफसर को भी डपट देते हैं क्या प्रदेश में दहेज़ हत्या के बढ़ते मामलों में अपने सुपुत्र और सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यदाव को भी डांटेंगे? क्योकिं बीते दशक में भी हमेशा की तरह दहेज़-हत्या के सबसे ज्यादा मामले वहीँ सामने आएं हैं. बिहार सिर्फ उत्तर-प्रदेश का पडोसी ही नहीं बल्कि दहेज़-हत्या के मामलों में भी उसका पडोसी हैं.
प्रगति के इस दौर में जब हमारी मिसाईलों की जद में पूरा महाद्वीप आ रहा हैं, मीलों दूर मंगोलिया को हम आर्थिक सहायता दे रहे हैं, तब क्या हमारी सरकारों को देश और समाज के भीतर मौजूद इस कड़वी सच्चाई को से निपटने की योजनाएं नहीं बनानी चाहिए?
आनंद गुप्ता