जगद्गुरु आदि शंकराचार्य जिन्होंने ईसा से 200 साल पहले 'हिंदू' धर्म को दिखाया नया रास्ता

भारत में चार मठों की स्थापना करने वाले आदि शंकराचार्य की जयंती आज पूरा सनातन धर्म मना रहा है. बचपन से ही शंकराचार्य का रुझान संन्‍यासी जीवन की तरफ था. लेकिन उनके मां नहीं चाहती थीं कि वो संन्यासी जीवन अपनाएं.

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प्रतीकात्मक फोटो प्रतीकात्मक फोटो

aajtak.in / मंजू ममगाईं

  • नई दिल्ली,
  • 09 मई 2019,
  • अपडेटेड 9:43 AM IST

भारत में चार मठों की स्थापना करने वाले जगद्गुरु आदि शंकराचार्य की जयंती आज पूरा सनातन धर्म मना रहा है. उनका जन्‍म आठवीं सदी में भारत के दक्षिणी राज्‍य केरल में हुआ था. शंकराचार्य के पिता की मत्यु उनके बचपन में ही हो गई थी. बचपन से ही शंकराचार्य का रुझान संन्‍यासी जीवन की तरफ था. लेकिन उनके मां नहीं चाहती थीं कि वो संन्यासी जीवन अपनाएं.

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कहा जाता है कि 8 साल की उम्र में एक बार शंकराचार्य जब अपनी मां शिवतारका के साथ नदी में स्‍नान के लिए गए हुए थे. वहां उन्हें मगरमच्‍छ ने पकड़ लिया. जिसके बाद शंकराचार्य ने अपनी मां से कहा कि वो उन्हें संन्यासी बनने की अनुमति दे दे वरना ये मगरमच्छ उन्हें मार देंगे. जिसके बाद उनकी मां ने उन्हें संन्यासी बनने की अनुमति दे दी.

शंकराचार्य का निधन 32 साल की उम्र में उत्‍तराखंड के केदारनाथ में हुआ. लेकिन इससे पहले उन्होंने हिंदू धर्म से जुड़ी कई रूढि़वादी विचारधाराओं से लेकर बौद्ध और जैन दर्शन को लेकर कई चर्चा की हैं.जिसके बाद शंकराचार्य को अद्वैत परम्परा के मठों के मुखिया के लिए प्रयोग की जाने वाली उपाधि माना जाता है.

शंकराचार्य हिन्दू धर्म में सर्वोच्च धर्म गुरु का पद है, जो बौद्ध धर्म में दलाईलामा एवं ईसाई धर्म में पोप के बराबर समझा जाता है. इस पद की परम्परा आदि गुरु शंकराचार्य ने ही शुरू की थी. शंकराचार्य ने सनातन धर्म के प्रचार और प्रतिष्ठा के लिए भारत के 4 क्षेत्रों में चार मठ स्थापित किए. उन्होंने अपने नाम वाले इस शंकराचार्य पद पर अपने चार मुख्य शिष्यों को बैठाया. जिसेक बाद इन चारों मठों में शंकराचार्य पद को निभाने की शुरुआत हुई.

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देशभर में धर्म और आध्‍यात्‍म के प्रसार के लिए 4 दिशाओं में चार मठों की स्‍थापना की गई. जिनका नाम है ओडिश का गोवर्धन मठ, कर्नाटक का शरदा शृंगेरीपीठ, गुजरात का द्वारका पीठ और उत्‍तराखंड का ज्‍योतिर्पीठ/ जोशीमठ

आदि शंकराचार्य ने इन चारों मठों में सबसे योग्यतम शिष्यों को मठाधीश बनाने की परंपरा शुरु की थी, जो आज भी प्रचलित है.

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