जीवितपुत्रिका व्रत आज, पढ़ें जितिया कथा, पूजन विधि और महत्व

हिन्दू पंचांग के अनुसार आज जीवितपुत्रिका व्रत है. इसे भारत के कुछ हिस्सों में जिउतिया व्रत भी कहते हैं. यह निर्जला व्रत होता है, जिसे विवाहित महिलाएं अपनी संतान की लंबी उम्र के लिए करती हैं. पढ़ें जितिया व्रत कथा और इसका महत्व...

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जितिया व्रत जितिया व्रत

वंदना भारती

  • नई दिल्ली,
  • 13 सितंबर 2017,
  • अपडेटेड 8:16 AM IST

हिन्दू पंचांग के अनुसार आज जीवितपुत्रिका व्रत है. इसे भारत के कुछ हिस्सों में जिउतिया व्रत भी कहते हैं. यह निर्जला व्रत होता है, जिसे विवाहित महिलाएं अपनी संतान की लंबी उम्र के लिए करती हैं.

यह व्रत आश्व‍िन माह कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है. हालांकि हिन्दू पंचांग में यह तीनों तक मनाया जाता है. यह कूष्ण पक्ष की सप्तमी से शुरू होकर नवमी तक चलता है. बिल्कुल छठ व्रत की तरह ही इस व्रत में पहले दिन नहाय खाय होता है. दूसरे दिन निर्जला व्रत और तीसरे दिन पारण होता है. यह व्रत खासतौर से बिहार, उत्तर प्रदेश और नेपाल में प्रचलित है.

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इस बार जिउतिया व्रत की शुरुआत 13 सितंबर को 01:01 बजे से 22:48 बजे तक है. दरअसल, अष्टमी इसी मुहूर्त में लग रहा है. इसलिए जिउतिया व्रत या जितिया व्रत भी इसी मुहूर्त में होगा.

कैसे करें पारण

जिउतिया व्रत का पारण करने से पहले स्नान ध्यान करें और विधि पूर्वक पूजन करें. इसके बाद मडुवा की रोटी खाकर व्रत तोड़ें. झोर भात, नोनी का साग और मडुआ की रोटी खाकर भी पारण करने का विधान है.

क्या है महत्व

कहा जाता है कि एक जंगल में चील और लोमड़ी घूम रहे थे. तभी उन्होंने कुछ लोगों को जिउतिया व्रत करते और उसकी कथा पढ़ते देखा. चील ने बहुत ही ध्यान से जिउतिया के पूजन विधि को देखा और कथा सुनी. लेकिन लोमड़ी का इस ओर कम ही ध्यान था. इसके बाद चील की संतान को दीर्घायु का वरदान मिला और यही वजह है कि चील की आयु लंबी होती है. वहीं लोमड़ी की संतान जीवित नहीं बची. इस प्रकार इस व्रत का बहुत अधिक महत्व बताया जाता है. इसे करने वाली मां की संतान को लंबी आयु का वरदान मिलता है और वह सदैव दुर्घटनाओं और संकटों से बचा रहता है.

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व्रत कथा

यह व्रत महाभारत काल से जुड़ा है. महाभारत युद्ध के बाद अश्वथामा अपने पिता के मरने पर शोकाकुल था. उसने इसका बदला लेने की ठान ली और पांडवों के शिविर में पहुंच कर उसने वहां सो रहे पांच लोगों की हत्या कर दी. उसने सोचा कि पांचों पांडवों की उसने हत्या कर दी. लेकिन तभी उसके सामने पांचों पांडव आकर खड़े हो गए. दरअसल, जिन पांच लोगों की उसने हत्या की थी वे द्रोपदी के पुत्र थे. अर्जुन ने अश्वथामा को बंदी बना लिया और उसकी दिव्य मणि उससे छीन ली.

अश्वथामा के बदले की आग और बढ़ गई और उसने उत्तरा के गर्भ में पल रही संतान को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया. ब्रह्मास्त्र के मार को निष्फल करना नामुमकिन था, इसलिए भगवान कृष्ण ने उत्तरा की अजन्मी संतान को अपना सारा पुण्य दे दिया और गर्भ में ही दोबारा उत्तरा की संतान को जीवित कर दिया.

गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उसका नाम जीवितपुत्रिका पड़ा और आगे जाकर यही राजा परीक्ष‍ित बना. तब ही से इस व्रत को किया जाता है.

जितिया व्रत की ये कथा भी है प्रचलित

नर्मदा नदी के पास कंचनबटी नाम का नगर था. वहां का राजा मलयकेतु था. नर्मदा नदी के पश्चिम दिशा में मरुभूमि थी, जिसे बालुहटा कहा जाता था. वहां विशाल पाकड़ का पेड़ था. उस पर चील रहती थी. पेड़ के नीचे खोधर था, जिसमें सियारिन रहती थी. चील और सियारिन, दोनों में दोस्‍ती थी. एक बार दोनों ने मिलकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया. फिर दोनों ने भगवान जीऊतवाहन की पूजा के लिए निर्जला व्रत रखा. व्रत वाले दिन उस नगर के बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गयी. अब उसका दाह संस्कार उसी मरुस्थल पर किया गया.

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काली रात हुई और घनघोर घटा बरसने लगी. कभी बिजली कड़कती तो कभी बादल गरजते. तूफ़ान आ गया था. सियारिन को अब भूख लगने लगी थी. मुर्दा देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया. पर चील ने संयम रखा और नियम व श्रद्धा से अगले दिन व्रत का पारण किया

फिर अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया. उनके पिता का नाम भास्कर था. चील, बड़ी बहन बनी और उसका नाम शीलवती रखा गया। शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई. सिया‍रन, छोटी बहन के रूप में जन्‍मी और उसका नाम कपुरावती रखा गया. उसकी शादी उस नगर के राजा मलायकेतु से हुई. अब कपुरावती कंचनबटी नगर की रानी बन गई। भगवान जीऊतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए . पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे.

कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए. वे सभी राजा के दरबार में काम करने लगे. कपुरावती के मन में उन्‍हें देख इर्ष्या की भावना आ गयी. उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर काट दिए. उन्‍हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिया और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिया.

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यह देख भगवान जीऊतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सर बनाए और सभी के सिर को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया. इससे उनमें जान आ गई. सातों युवक जिंदा हो गए और घर लौट आए. जो कटे सर रानी ने भेजे थे वे फल बन गए. दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से सूचना पाने को व्याकुल थी. जब काफी देर सूचना नहीं आई तो कपुरावती स्वयं बड़ी बहन के घर गयी. वहां सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गयी.

जब उसे होश आया तो बहन को उसने सारी बात बताई. अब उसे अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था. भगवान जीऊतवाहन की कृपा से शीलवती को पूर्व जन्म की बातें याद आ गईं. वह कपुरावती को लेकर उसी पाकड़ के पेड़ के पास गयी और उसे सारी बातें बताईं. कपुरावती बेहोश हो गई और मर गई. जब राजा को इसकी खबर मिली तो उन्‍होंने उसी जगह पर जाकर पाकड़ के पेड़ के नीचे कपुरावती का दाह-संस्कार कर दिया.

 

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