बड़ी टेक कंपनियों के रेगुलेशन की जरूरत क्यों?

सोशल मीडिया कंपनियों समेत बड़ी टेक कंपनियां बहुत बड़ी और शक्तिशाली बन चुकी हैं. उनके इस बढ़ते आकार के साथ ही उनकी उदासीनता और अकर्मण्यता भी बढ़ी है. सरकारें इन्हें अस्थिर करने वाला मान रही हैं.

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राम माधव राम माधव

aajtak.in

  • नई दिल्ली ,
  • 08 जून 2021,
  • अपडेटेड 4:28 PM IST

सिंगापुर में जब फेसबुक के अधिकारियों को एक जांच आयोग का सामना करना पड़ा तो वहां के गृहमंत्री के. शनमुगम के एक सवाल पर उन्होंने आपत्ति जताई. इसके बाद सिंगापुर के गृहमंत्री ने चिढ़कर कहा, ‘मेरे सवाल की प्रासंगिकता आप मुझ पर छोड़ दें.’ उन्होंने फेसबुक के अधिकारियों के मुंह पर बोला, ‘आप (फेसबुक) रेग्यूलेट होना नहीं चाहते, लेकिन हमने दुनियाभर में आपके काम करने का तरीका देखा है और हमें हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता है.’

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उसके बाद उन्होंने इस मुद्दे पर और बहस करना ठीक नहीं समझा और कहा, ‘मुझे इस पर आपसे कोई जवाब नहीं चाहिए, क्या हम आगे बढ़ें?’ इस घटना के बाद सिंगापुर में फेक न्यूज़ और अन्य अपमानजनक पोस्ट के मामले में सोशल मीडिया को रेग्यूलेट करने के कड़े से कड़े नियम बने.

ऑस्ट्रेलिया भी फेसबुक और गूगल के साथ कड़ाई से निपटा. ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने जब समाचारों के लिए स्थानीय मीडिया हाउस के साथ रेवेन्यू शेयरिंग का प्रस्ताव किया तो उन्हें फेसबुक की ओर से कड़ा प्रतिरोध देखना पड़ा. फेसबुक और गूगल दोनों ने उनके इस कदम के खिलाफ आक्रामक तरीका अपनाया और न्यूज़ ब्लैक आउट तक का सहारा लिया जिसमें उसने आपातकालीन सेवाओं की न्यूज़ तक दिखाना बंद कर दिया.

ऑस्ट्रेलिया की लगभग 70% आबादी फेसबुक का उपयोग करती है, लेकिन मॉरिसन टस से मस नहीं हुए. इसके लिए उन्हें विपक्षी दल लेबर पार्टी का समर्थन मिला और इसे लेकर ऑस्ट्रेलिया की संसद में बिल पास हो गया. अपने इन साहसी कदमों से वह इन बड़ी टेक कंपनियों के खिलाफ खड़े होने के लिए दुनिया का समर्थन जुटाते भी नजर आए. स्कॉट मॉरिसन ने बेबाक तरीके से कहा, ‘वे (टेक कंपनियां) भले दुनिया बदल रही हों, लेकिन इसका ये मतलब बिलकुल नहीं कि वे इसे चला भी सकती हैं. हम इन बड़ी टेक कंपनियों की इस तरह की धौंस से डरेंगे नहीं.’

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सोशल मीडिया कंपनियों समेत ये बड़ी टेक कंपनियां बहुत बड़ी और शक्तिशाली बन चुकी हैं. उनके इस बढ़ते आकार के साथ ही उनकी उदासीनता और अकर्मण्यता भी बढ़ी है. सरकारें इसे अस्थिर करने वाला मान रही हैं. चीन, रूस और उत्तर कोरिया जैसे देशों ने अपनी अधिनायकवादी सत्ता से इन बड़ी टेक कंपनियों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया है. वहीं कई यूरोपीय देशों ने इन बड़ी टेक कंपनियों की बढ़ती ताकत को सीमा में रखने के कदम उठाए हैं और अपने नागरिकों की निजता की सुरक्षा की है. अमेरिकी राष्ट्रपति के ट्विटर हैंडल तक पर बैन लगा देने की हिमाकत करने के अलावा अमेरिका ने इन बड़ी टेक कंपनियों की बढ़ती ताकत के इस्तेमाल का अनुभव किया है. इसलिए अमेरिका ने गूगल, फेसबुक और एमेजॉन जैसी कंपनियों द्वारा उनकी ताकत के संभावित दुरुपयोग के मामले में सुनवाई शुरू की है.

अगर इन सब से तुलना की जाए तो भारत सरकार की प्रतिक्रिया को बहुत ही नरम कहा जा सकता है. ट्विटर को ये बात अच्छी तरह समझना चाहिए कि उसके भारतीय पुलिस पर ‘धमकाने के तरीकों का उपयोग करने’ या ‘देश के जिन नागरिकों की हम सेवा करते हैं उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संभावित खतरा बताने’ के आरोपों वाले बयानों के बावजूद आईटी मंत्रालय ने जरूरी समझा कि उसे एक तीन पेज का बड़ा नोटिस दिया जाए.

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कांग्रेस की कथित टूलकिट को दिखाने वाले ट्वीट्स के मामले में जब पहले से पुलिस जांच कर रही है तब उसे ‘मैनिपुलेटेड मीडिया’ का टैग देने को लेकर ट्विटर निश्चित तौर पर गलत है. बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं के ट्वीट्स को ‘मैनिपुलेटेड मीडिया’ टैग करने के लिए ट्विटर को इस मामले में आरोपी कांग्रेस पार्टी की एक मामूली सी शिकायत का सहारा नहीं लेना चाहिए था. यदि ट्विटर के पास मैन्युपुलेशन का कोई और सबूत था तो ये उसकी ड्यूटी थी कि उसे पुलिस के साथ साझा करे. पुलिस ट्विटर के ऑफिस वही लेने गई थी, लेकिन ट्विटर ने खुद को पीड़ित दिखाने का चुनाव किया.

हम एक प्रौद्योगिकी से जुड़ी दुनिया में जी रहे हैं. इक्कीसवीं सदी में दुनिया बहुध्रुवीय से विषमध्रुवीय हो रही है. एक विषमध्रुवीय दुनिया में अंतरराष्ट्रीय शक्तियां सिर्फ अपने देश की सरकारों तक सीमित नहीं रहती. ये व्यवस्था भौगोलिक स्वरूप में काफी बिखरी है और इसका नेतृत्व राष्ट्रीय सरकारों के अधिकार को चुनौती देने वाले अलग-अलग उद्देश्यों के साथ अलग-अलग पक्ष कर रहे हैं. इन पक्षों में फेसबुक, गूगल और ट्विटर जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय टेक कंपनियां, वैश्विक स्तर के एनजीओ, आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन और धार्मिक संगठन हैं.

इस विषमध्रुवीय व्यवस्था के खिलाड़ियों ने राष्ट्रों के सामने नई चुनौतियां पेश की हैं. पिछली बार भारत को ऐसी चुनौती का सामना तब करना पड़ा था, जब दिशा रवि और ग्रेटा थनबर्ग ने किसानों के आंदोलन का फायदा उठाने के लिए अन्य टूलकिट का उपयोग किया था और वैश्विक स्तर पर भारत सरकार के खिलाफ विरोध और वैमनस्य को फैलाने का काम किया. सोशल मीडिया के लिए किसी तरह के नियामकीय कानून होने के अभाव में भारत सरकार को देशद्रोह और यूएपीए जैसे मौजूदा कानूनों का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर होना पड़ा. तब  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के झंडाबरदारों ने दिशा रवि और ग्रेटा थनबर्ग के खिलाफ देशद्रोह कानून के इस्तेमाल का बहुत विरोध किया था. ये बात सच है कि इस तरह की नई चुनौतियों से निपटने में कई देशों के राष्ट्रीय कानून अपर्याप्त हैं. नई परिस्थिति में नए कानून की जरूरत है. इस संबंध में भारत सरकार हाल ही में एक कानून के साथ आई है. टेक कंपनियों को समझना चाहिए ये ब्रिटिश काल के देशद्रोह या यूएपीए जैसे आतंकवाद-रोधी कानून के इस्तेमाल से बेहतर स्थिति है.

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इस नई परिस्थिति ने जहां एक ओर राष्ट्रीय सरकारों को फेक न्यूज़ या अन्य ऑनलाइन अपराधों से निपटने के लिए नए कानून लाने को मजबूर किया है, वहीं दूसरी ओर ये बात भी ध्यान रखना चाहिए कि इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने संचार के माध्यम को एकरूप और लोकतांत्रिक बनाया है. इस स्थिति से शुरुआती तौर पर बेहतर संवाद के साथ निपटना चाहिए. वहीं विरोध के स्वर के लिए अधिक सहनशक्ति की भी जरूरत है. डिजिटल और सोशल मीडिया की प्रकृति लोकतांत्रिक है, ऐसे में कानून के माध्यम से उन्हें रेग्यूलेट करने की कोशिश अधिक न्यायोचित है जिसकी जरूरत भी है ताकि व्यापक लोकतांत्रित मूल्यों के साथ समझौता ना हो.

लेकिन उसी समय ये उम्मीद करना कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर या एक्टिविस्टों की उम्र, लिंग या खाने की आदतों के चलते समाज में फूट और वैमनस्य फैलाने वाले ऑनलाइन अभियानों को सहन किया जाए, जैसा दिशा रवि पर ट्रायल के दौरान देखा गया, बिलकुल भी स्वीकार्य नहीं है. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म राजनीतिक पक्षधरता के आरोपों से पूरी तरह बच नहीं सकते हैं. कुछ सोशल मीडिया कंपनियों के भारत और अन्य जगहों पर पक्षपात पूर्ण व्यवहार को लेकर शिकायतें हैं.

हम अभी एक विषमध्रुवीय दुनिया बनने के संक्रमण काल से गुजर रहे हैं. ऐसे में सरकारों की कार्रवाइयों को लेकर बहस होगी. सोशल मीडिया नियंत्रित करने वाली बड़ी टेक कंपनियां सरकारों की किसी भी नियामकीय कोशिशों का डटकर विरोध करती हैं. इसलिए इस बात को लेकर एक राष्ट्रीय सहमति बनाने की जरूरत है कि तार्किक तरीके से किया गया नियमन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रभावित नहीं करेगा बल्कि व्यक्तियों की निजता और गरिमा की रक्षा करने में मदद करेगा.

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गूगल, फेसबुक और ट्विटर जैसी बड़ी टेक कंपनियां स्व-नियमन का दावा करने के नाम पर सरकार के इन कदमों का विरोध जारी नहीं रख सकतीं. फ्रांस में फेक न्यूज के खिलाफ उठाए गए कदमों का प्रस्ताव रखते हुए वहां के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने उन्हें (टेक कंपनियों को) बोल दिया था कि इंटरनेट को सही मायनों में स्वतंत्र, खुला और सुरक्षित रखने के लिए कुछ नियमन अनिवार्य शर्त हैं.

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